परिश्रमी बनें-पुरुषार्थी बनें

November 1976

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ईश्वर की इस विशाल सृष्टि में मनुष्य को उसकी सर्वश्रेष्ठ रचना माना जाता है, क्योंकि मनुष्य को कल्पना सँजोने को मन और निर्णय के लिए बुद्धि तथा श्रम करने हेतु शरीर प्रदान किया गया है। यह सुनिश्चित तथ्य है कि मन और मस्तिष्क के समन्वय सहित शरीर को जिस ओर कार्य करने के लगा दिया जायेगा, उस ओर चमत्कार हो जावेगा। संसार की प्रगति में मनोयोग का बड़ा गहरा हाथ रहा है। मनोयोगपूर्वक किये गये श्रम ने सदैव अच्छे परिणाम ही प्रस्तुत किये हैं। श्रम की सफलता में एक शर्त यह है कि वह किसी अन्य के द्वारा कठपुतली की भाँति संचालित न हो। अन्यमनस्क दशा में न किया गया हो, तभी श्रम की सार्थकता सम्पन्न होगी।

आदि युग से लेकर वर्तमान वैज्ञानिक युग तक के परिवर्तनों पर दृष्टिपात करें तो हम पायेंगे कि मनुष्य के मस्तिष्क ने इस कुरूप और बेडौल पृथ्वी को सजाने-सँवारने का कार्य बड़े ही सुरुचिपूर्ण ढंग से कर दिखाया है। कहाँ आदि युग का बर्बर, जंगली मनुष्य और कहाँ वर्तमान युग का सभ्य, सुशिक्षित मानव। निश्चय ही प्रगति के पथ पर मानव मस्तिष्क, मन की कल्पनाओं को लिए दौड़ता चला गया है और सम्पूर्ण धरा को दुल्हन की भाँति सजा डाला है, सँवार डाला है। विज्ञान के आविष्कारों ने मनुष्य के श्रम की महत्ता तथा उसमें मनोयोग के समन्वय की महत्ता को सिद्ध कर दिया है। यह समस्त प्रगति जहाँ श्रम के बिना असम्भव थी वहीं मनोयोग की महत्ता को भी नकारा नहीं जा सकता ।

यदि मनुष्य जाति का वह वर्ग जिसने अपने श्रम तथा बुद्धि से ये सभी साधन उपलब्ध कराये हैं, अकर्मण्यता का रुख अपना लें, श्रम से कन्नी काटने लगें, तो आज की हमारी सुविधाएँ थोड़े समय पश्चात् नष्ट हो जावेंगी। एशिया महाद्वीप का एक छोटा-सा शोषित देश जापान अपनी महत्वाकाँक्षाओं को दमित होते देख स्थिर न रह सका। उस देश के निवासियों ने अपनी भावनाओं को ऊँचा उठाया और वे अपनी शक्ति के साथ-साथ पूर्ण मनोयोगपूर्वक देश के विकास में लग गये तथा संसार के समक्ष अल्पकाल में ही प्रगति प्राप्त कर एक उदाहरण प्रस्तुत कर दिया। इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि जिसने अपना तन-मन लगा दिया वह तुलनात्मक रूप से अधिक लाभ उठा सका। जबकि जिसने श्रम से जी चुराया वह सौभाग्य के किनारों को छू भी न सका।

संसार में कुछ व्यक्ति विभिन्न क्षेत्रों में असाधारण उन्नति करते देखे जाते हैं। जन-सामान्य की धारणा उनके विषय में यह रहती है कि-‘‘वे दैवी शक्ति प्राप्त व्यक्ति हैं। ऐसी दैवी सम्पदा उसी व्यक्ति विशेष को नहीं, वरन् प्रत्येक जन को पर्याप्त मात्रा में प्राप्त हो सकती है। अन्तर है मात्र उसको विकास करने का। लगन का-निष्ठा का। ऐसा सोचने वाले लोग यदि स्वयं भी श्रम के साथ मनोयोग का समन्वय कर अपने उद्देश्य की प्राप्ति में संलग्न हो जावें तो सफलता उनके पैर चूमने लगेगी। जो लोग जीवन पर्यन्त श्रम की महत्ता को न समझ सकेंगे और आलस्य में ही अपना बहुमूल्य समय गँवाते रहेंगे उन्हें हर क्षेत्र में निराश और खाली हाथ ही रहना पड़ेगा। बगीचे का माली यदि पेड़-पौधों को वर्षा के सहारे छोड़ दे, उनकी सेवा-सुश्रूषा न करे तो उसे अपने हरे-भरे बगीचे से हाथ धोना ही पड़ेगा। हरा-भरा बगीचा माली के श्रम सीकरों का प्रतिबिम्ब ही होता हैं बगीचे में लहलहाते पौधे और स्मित हास्य से युक्त पुष्प माली के मनोयोग के परिचायक हैं। श्रम से कतराने वाले लोग अपने भाग्य को कोसा करते हैं। वास्तव में यह दुर्भाग्य उस व्यक्ति की अकर्मण्यता का ही है। उसी ने उसकी प्रगति को अवरुद्ध कर दिया है।

अवनतिग्रस्त व्यक्तियों के दुर्भाग्य की कहानी यह है कि वे अपने अमूल्य समय और अमूल्य श्रम की महत्ता को पहचान न सकें। ऐसे लोग देवताओं से कार्य सिद्धि की भीख माँगा करते हैं। ये लोग बिना परिश्रम के बड़े कार्य सिद्ध कर लेना चाहते हैं। ये लोग फल प्राप्ति के लिए जड़ को सींचना नहीं चाहते। आशीर्वाद वरदान चाहने वाले लोग इसी वर्ग में रखे जा सकते हैं ऐसे लोगों को जान लेना चाहिए कि मनोयोगपूर्वक किये गये श्रम से बढ़कर सिद्धि प्रदायक अन्य कोई देवता नहीं। यदि सफलता चाहते हो तो श्रम करना ही होगा।

मानव की बाहुओं में निवास करने वाला श्रम देव अत्यन्त शक्तिशाली तथा उदार है। वह कभी निरर्थक नहीं जाता। छोटे-से-छोटे साधन वाला व्यक्ति भी यदि अपनी उन्नति हेतु कोई निश्चित कार्यक्रम बनाकर अपनी सम्पूर्ण निष्ठा के साथ समय और श्रम की मात्रा बढ़ाता चले तो प्रगति सुनिश्चित है। जहाँ आलस्य है, प्रमाद है, वहाँ जीवन की रसमयी धारा विषाक्त हो जाती है। असफलताओं की ठोकरें मनुष्य की मानसिक स्थिति को तनावपूर्ण बना देती हैं। विवेक नष्ट हो जाता है। जीवन एक भार-सा प्रतीत होने लगता है। ठीक इसके विपरीत मनोयोगपूर्वक कर्म करने वाले व्यक्ति को अपना जीवन स्वर्ग से भी अधिक सुखमय प्रतीत होने लगता है। समय की महत्ता को न समझ कर श्रम से, मेहनत से जो कतराता है, वह स्वयं अपना ही शत्रु है। जिस व्यक्ति के मन प्राण में आलस रूपी जहर घुस गया उसका तो ईश्वर ही रक्षक है। उसने अपनी बर्बादी के साज-समान स्वयं इकट्ठे कर लिए। उसके ऊपर कथित साढ़े साती नहीं हमेशा-हमेशा का शनीचर चढ़ेगा और राहु का कुचक्र उसके मस्तक पर सदैव मंडराता रहेगा।

हमें यह जानना चाहिए कि सबसे बड़ा सिद्ध मन्त्र सुनिश्चित क्रम के संयम, श्रम और पुरुषार्थ का उपयोग ही है। इस मन्त्र को जिन्होंने जीवन में उतारा है उन्हें सफलता कभी दूर नहीं दिखाई दी और वे बड़ी सरलता से अपना उद्देश्य प्राप्त कर अग्रसर होते रहे।

हमें सुख-शान्ति, सन्तोष प्राप्त करना है तो खोजना होगा कि दूसरे सफल लोगों की सफलता का क्या रहस्य रहा है? क्या उनके शरीर की बनावट भिन्न थी? क्या उनकी परिस्थितियाँ भिन्न थीं? या हमारे और उनके दृष्टिकोण में अन्तर है। जहाँ तक शरीर का प्रश्न है परम-पिता परमेश्वर ने अपने सभी पुत्रों को समान अंग प्रदान किये हैं। परिस्थितियों के विषय में सोचें तो पायेंगे कि वे सफल व्यक्ति भी इसी समाज में रहते हैं जिसमें हम रह रहे हैं। मात्र हमारा और उनका सोचने का दृष्टिकोण भिन्न है। उन्होंने श्रम से जी चुराने की बात कभी नहीं सोची और हम श्रम से बचने के रास्ते ढूँढ़ने में ही अपना समय गुजार देते हैं। वे श्रम के साथ मनोयोग का समन्वय कर लेते हैं जबकि हममें लगन तथा निष्ठा का पूर्ण अभाव है। बस यही उनकी सफलता और सामान्यजन की असफलता का भेद है। ईश्वर ने हमें शरीर दिया है, मन दिया है। इतनी अनमोल वस्तुएँ हमें प्राप्त हैं। किन्तु इनका लाभ भी वे ही उठा सकते हैं जो सुव्यवस्थित क्रम से श्रम करते हुए अपने समय का एक पल भी नहीं गंवाते।

निष्ठा, लगन और दिलचस्पी से जो भी कार्य किया जावेगा उसकी सफलता निश्चित है। जिन लोगों को अपने कार्यों में सफलता की आकाँक्षा हो उन्हें यही पथ अपनाना चाहिए। गौरव और सफलता अर्जित करने वाले व्यक्ति इसी रास्ते आगे बढ़े हैं। हमें भी यदि सफलता का गौरव अर्जित करना है तो यही मार्ग अपनाना होगा, परिश्रमी बनना होगा, जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करना जानना होगा। हम जिस श्रम और मनोयोग से कार्य करेंगे उतनी ही सफलता निश्चित है।


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