चिन्तन की विकृति मनोरोगों का प्रधान कारण

June 1975

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सोचने का तरीका विकृत हो जाने पर सामान्य परिस्थितियाँ भी प्रतिकूल दिखाई पड़ती हैं और उनसे डरा, घबराया हुआ व्यक्ति अपना सन्तुलन गँवा बैठता है। झाड़ी का भूत बन जाना, रस्सी का सर्प दिखाई पड़ना, भ्रम की प्रतिक्रिया को प्रत्यक्ष कर देता है। प्रतिकूलताएँ वस्तुतः उतनी होती नहीं जितनी कि समझी जाती हैं। मनुष्य हर स्थिति में गुजारा कर सकने योग्य शरीर और हर परिस्थिति में मुस्कुराते रह सकने योग्य मन लेकर जन्मा है। इनकी मूल संरचना में कोई दोष नहीं है। शरीर ‘व्याधि’ से और मन आधि’ से यदि ग्रसित होता है तो उन विपत्तियों का कारण अपनी ही भूल होती है। असंयम हमें रुग्ण बनाता है और असन्तुलन से हम अर्धविक्षिप्त दिखाई पड़ते हैं।

शरीर के साथ अनीति बरती जाय तो वह देर सवेर में रुग्ण होकर रहेगा। कमजोरी और बीमारी उसे धर दबोचेंगी और रोती, कराहती स्थिति में घसीट ले जायेंगी। मस्तिष्क के साथ यदि अनीति बरती गई है तो उसे कुसंस्कारी चिन्तन का अभ्यासी बनाया गया है तो या तो परिस्थिति पैदा कर लेगा या फिर सामान्य स्थिति में ही विपरीतता का आरोपण करके विक्षुब्ध रहने लगेगा। इस विक्षुब्धता को ही मानसिक रुग्णता कहा जाता है।

इन दिनों शारीरिक रोग भी बेतरह बढ़ रहे हैं। नई-नई किस्म के-नई-नई आकृति-प्रकृति के रोग हर साल उठ खड़े होते हैं और डाक्टर उनका अता-पता चलाने एवं उपचार खोजने में नित नई परेशानी अनुभव करते हैं। पुराने जमाने के परिचित रोगों की भी अब इतनी अधिक शाखा-प्रशाखाएँ फूट पड़ी हैं कि उन्हें नये रोग की संज्ञा देने में भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। मानसिक रोगों की बढ़ोतरी इससे भी अधिक तेज और भयंकर हैं। जिस तरह पूर्ण स्वरूप कहे जा सकने योग्य शरीर कठिनाई से ही ढूंढ़े मिलेंगे, उसी तरह ऐसे मनुष्य कदाचित ही मिलेंगे जिनका मस्तिष्क मानसिक रोगों के कारण विकृत जर्जर बना हुआ न हो। आज की बढ़ी हुई अनैतिकता एवं असामाजिकता ऐसी समस्याएँ उत्पन्न करती हैं जिससे सामान्य मनोबल का व्यक्ति सहज ही विक्षिप्त हो उठता है। घटा, गिरा मनोबल भी इतना अपंग हो चला है कि सीधे-साधे, सरल स्वाभाविक-मनुष्य जीवन के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई अनुकूलता, प्रतिकूलताओं को विपत्ति मान बैठता है और रो-रो कर जमीन, आसमान को सिर पर उठा लेता है। कभी सचमुच ही ऐसी घटनाएँ घटित होती हैं जिन्हें असाधारण या अप्रत्याशित कहा जा सके। शौर्य-साहस के सहारे इनका सामना किया जा सकता है। जूझने से हर विपत्ति हलकी पड़ती है। यदि कुछ आपत्ति आ ही जाय तो उसे सन्तुलन बनाये रखकर सहा जा सकता है। संकट को हलका मानने से वह बहुत कुछ हलका पड़ जाता है और यदि असह्य मान लिया जाता है तो उसका वजन पर्वत से भी भारी हो जाता है। सामान्य बुद्धि के लोग परिस्थितियों को ही सुख-दुख का कारण मानते हैं और यह भूल जाते हैं कि मान्यताओं की जादुई शक्ति कितनी अद्भुत है। मामूली-सी बात असह्य संकट के रूप में दीखना और सचमुच ही किसी बड़ी विपत्ति का आक्रमण मामूली ही विपरीतता भर लगना अपने चिन्तन की ही दो चमत्कारी दिशाएँ हैं। इनमें से किसी को भी अपनाया जा सकता है और सन्तुलन को बनाये रह सकना या गँवा बैठना सम्भव हो सकता है।

परिस्थितियों के साथ चिन्तन का उपयुक्त तालमेल न बिठा सकने के कारण अब असंख्य व्यक्ति मानसिक रोगों से ग्रसित होते चले जा रहे हैं। यह अवाँछनीयता महामारी की तरह-आँधी, तूफान की तरह बढ़ रही है और लगता है कि स्वस्थ और सन्तुलित मस्तिष्क वाले व्यक्ति अगले दिनों ढूंढ़ पाना कठिन हो जायगा।

शरीर की तुलना में मन का मूल्य हजारों गुना अधिक है। उसी प्रकार शरीर-रोगों की तुलना में मानसिक रोगों की क्षति अत्यधिक है। शरीर रोगी रहे किन्तु मस्तिष्क स्वस्थ हो तो मनुष्य अनेकों मानसिक पुरुषार्थ कर सकता है किन्तु यदि मस्तिष्क विकृत हो जाय तो शरीर के पूर्ण स्वस्थ होने पर भी सब कुछ निरर्थक बन जायगा।

इन दिनों मानसिक रोगों की बाढ़ जिस तूफानी गति से आ रही है- दावानल की तरह बढ़ती, धधकती चली जा रही है उसे देखते हुए लगता है मनुष्य जीवन से उसका सहज सुलभ आनन्द छिनने ही जा रहा है। यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। सनकी, वहमी, शेखचिल्ली, उद्विग्न, क्रुद्ध, रुष्ट, असन्तुष्ट, आशंकाग्रस्त, चिन्तित, निराश, भयभीत, उदासीन व्यक्ति क्रमशः अपने लिए भार बनते चले जाते हैं। उनके मस्तिष्क में ऐसे चक्रवात उठते रहते हैं जो सोचने की स्वस्थ शैली को बेतरह तोड़-मरोड़कर रख देते हैं। टूटी हुई मनः स्थिति में तथ्य को समझना सम्भव नहीं रहता। कुछ के बदले कुछ समझ सकना और कुछ करने के स्थान पर कुछ करने लगना ऐसी विपत्ति है जिसके कारण मनुष्य अर्धविक्षिप्त स्थिति में चला जाता है। अपने आपके लिए तथा दूसरों के लिए एक समस्या बन जाता है।

बढ़ते हुए मनोरोगों से क्रमशः सारा मनुष्य साज जकड़ता चला जा रहा है। सन्तोष इतना ही है कि यह विपत्ति पूर्ण उन्माद की स्थिति तक नहीं पहुँची है। मस्तिष्क के छोटे-छोटे हिस्सों पर ही उसने आधिपत्य जमाया है और लोग अर्धविक्षिप्त जैसे ही दिखाई पड़ते हैं। जो सही नहीं सोच सकता, सही निष्कर्ष नहीं निकाल सकता और साधनों का उपयोग करने एवं परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाने से समर्थ नहीं है उसे मानसिक दृष्टि से रोगी ही कहा जायगा। ऐसे व्यक्ति दर्द से कराहते भले ही न हो पर उनकी जीवन सम्पदा एक प्रकार से कूड़ा-करकट ही बन जाती है न वे स्वयं चैन से रहते हैं और न साथियों को चैन से रहने देते हैं। इन दिनों कुछ मानसिक रोगों की तो भरमार ही हो चली है।

मनुष्य की अनेकानेक मनोवृत्तियों का विवेचन विश्लेषण और वर्गीकरण करते हुए मनः शास्त्री प्रो.शेल्डि के अनुसार उनकी मूलतः दो ही धाराएँ बतायी हैं एक प्रिय दूसरी अप्रिय। एक सुख दूसरी दुख। इन दोनों का परिस्थितियों से कम और मान्यताओं से अधिक सम्बन्ध होता है। कौन व्यक्ति किस स्थिति में दुख और किस में सुख अनुभव करता है यह उसका अपना इच्छित विषय है। एक व्यक्ति जिस स्थिति में दुखी रहता है और उससे अच्छी स्थिति न मिलने के कारण असन्तोष व्यक्त करता है उसी में दूसरे लोग बहुत प्रसन्न रहते हैँ। इतना ही नहीं कितने व्यक्ति उसे प्राप्त करके आनन्द विभोर हो सकते हैं जिसमें कि असन्तुष्ट व्यक्ति अपने को दुखी अनुभव कर रहा है।

ज्वर, दर्द आदि कष्ट और भूख-प्यास,सर्दी, गर्मी जैसे अभाव प्रायः सभी को दुख देते हैं, पर इन दुखों में भी भयंकर विपत्ति अथवा सामयिक समस्या की छोटी सी झलक मान लेने पर उनका कष्ट हलका और भारी हो सकता है। इस प्रकार की कठिनाइयाँ थोड़ी ही होती है। वस्तुतः अधिकाँश सुख और दुख काल्पनिक होते हैं। वे मान्यताओं और इच्छाओं से सम्बन्ध रखते हैं। सोचने का तरीका बदला जा कसता है और दुख सुख की, प्रसन्नता-अप्रसन्नता की, सन्तोष-असन्तोष की स्थिति में आमूलचूल नहीं तो अत्यधिक परिवर्तन अवश्य ही किया जा सकता है।

एडवर्ड कारपेन्टर का कथन है- ’दुख की मान्यता वस्तुतः मन की पराधीनता प्रकट करती है।’ मन की स्वाधीनता मिलने पर वह सहज ही समाप्त हो जाती हैं। बाहरी व्यक्ति या बाहरी पदार्थ हमें बहुत ही कम सहायता कर सकते हैं या सुख दे सकते हैं। उनके योगदान का न्यून या अधिक मूल्याँकन करके ही हम प्रसन्नता, अप्रसन्नता अनुभव करते हैं यदि अनुभूति की प्रक्रिया में परिवर्तन कर लिया जाय। अपने सद्गुणों और सत्प्रयत्नों को ही सफलता मान लिया जाय और उतने ही क्षेत्र में प्रसन्नता को केन्द्रित कर लिया जाय तो प्रायः हर स्थिति में प्रसन्न एवं संतुष्ट रहने का अवसर

मिल सकता है। मन की स्वाधीनता का यही प्रत्यक्ष प्रतिफल है। व्यक्तियों, वस्तुओं या पदार्थों पर अपनी प्रसन्नता को निर्भर बना देना मानसिक पराधीनता है उस स्थिति में कोई न तो सुखी रह सकता है और न संतुष्ट।

दार्शनिक स्पिनीजा भी यही कहा करते थे, उनने अपने दर्शन में इसे मौलिक सत्य माना है कि “विक्षुब्ध मनः स्थिति, मानसिक पराधीनता की ही अवस्था है। स्वावलम्बन की स्थिति में कोई उद्वेग ठहर ही नहीं सकता।

हमें किन-किन वस्तुओं का अभाव है, किन-किन व्यक्तियों ने कब-कब, क्या-क्या दुर्व्यवहार किया, अब तक कितनी बार असफलताएँ मिलीं और हानियाँ उठानी पड़ी इसका लेखा-जोखा लेते रहा जाय तो कोई भी मनुष्य अपने आपको दुख दुर्भाग्य से ग्रसित अनुभव करेगा किन्तु यदि वही अपने उपलब्ध साधनों की बहुलता, दूसरों के सहयोग-सद्भाव एवं समय-समय पर मिली सफलताओं की लिस्ट तैयार करने लगे तो प्रतीत होगा कि वह जन्म जात वरदान लेकर सुख और सफलताओं के लिए ही पैदा हुआ है। चिंतन की विकृति का नाम ही दुख है इस कथन में कोई अत्युक्ति नहीं हैं।

वियना के पोलोक्लिनिक अस्पताल में मानसिक चिकित्सा के विशेषज्ञ डा.विक्टर ई. फ्रेंक्ल ने अपने 50 वर्षों के चिकित्सा अनुभवों का सार बताते हुए लिखा है- ”जो मनुष्य यह अनुभव करेगा कि उसका जीवन निरर्थक है। उसका मन और शरीर कभी स्वस्थ न रहेगा। सार्थकता की अनुभूति न होने पर मनुष्य जिंदगी को लाश की तरह ढोता है और उस नीरस निरानन्द स्थिति में सचमुच ही जीवन बहुत भारी पड़ता है। उस दबाव से इतनी थकान आती है कि कुछ करते धरते नहीं बनता। हारा थका आदमी धीरे-धीरे गिरता धुलता जाता है और मरण को निकट बुलाने वाली बीमारियों को निमंत्रण देकर स्वेच्छा संकल्प के आधार पर कष्ट ग्रसित रहने लगता है।

स्काटलैंड के मनोरोग चिकित्सक डा.रोनाल्ड डैकिटलेंज ने मनुष्य के मानसिक रोग ग्रसित होने के कारण और उनके निवारण के उपाय बताने के संदर्भ में दो बड़े ग्रन्थ लिखे हैं-(1) दि पालिटिक्स आफ एक्पीरियेन्स और (2) दि पालिटिक्स आफ फैमिली इन दोनों में उसने समाज की वर्तमान परिस्थितियों की भर्त्सना करते हुए कहा इनमें जकड़े रहने पर मनुष्य को मानसिक रोगों का शिकार होते रहना पड़ेगा और सहज स्वाभाविक रीति से व्यक्तित्व का विकास कर सकना उसके लिए संभव न होगा। सामान्य व्यवहार में वे कूटनीतिक चालबाजी की दुर्गंध देखते हैं, और कहते हैं, मनुष्य को दवा, सता कर बाधित नहीं किया जाना चाहिए उसे प्रत्येक क्षेत्र में अपने विवेक को विकसित करने का अवसर मिलना चाहिए।

समर्थ वर्ग को अधिक सुविधा देने वाली और असमर्थ वर्ग को यथा स्थान बने रहने की नीति ने वर्तमान कानूनों एवं परम्पराओं का सृजन किया है। इस असंतुलन ने एक पक्ष को उद्धत और दूसरे को भौतिक दृष्टि से दीन और आत्मिक दृष्टि से हीन बनाया है। अस्तु दोनों ही पक्षों में अपने अपने ढंग के मानसिक रोग उत्पन्न हुए हैं। यदि हर किसी को लगभग समान अवसर मिले होते और अनावश्यक बंधन न जकड़े गये होते तो लोग मानसिक दृष्टि से प्रसन्नता एवं संतोष अनुभव करते। तदनुसार वे शारीरिक दृष्टि से भी स्वस्थ रहते और आर्थिक पारिवारिक और सामाजिक स्थिति में भी सुसंपन्नता दृष्टि गोचर होती है।

अत्यधिक हताश व्यक्ति कभी एक तरह की, कभी दूसरे तरह की गड़बड़ियाँ करते रहते हैं। इन हरकतों को प्रेरणा देने वाली मनोवृत्ति को, ‘एजीटटेड डिप्रेसिव साइकोसिस’ कहा जाता है। न्यूरोटिक डिप्रेशन अथवा साइकोटिक डिप्रेशन उस स्थिति का नाम है जिसमें निराशा छाई रहती है, चित्त उदास और खिन्न रहता है। कुछ नया सोचने या नया करने को जी नहीं करता। चुपचाप बैठे या पड़े रहना, एक ही सीमित विचार में निमग्न रहना इन रोगियों को पसंद होता है। ये न कुछ चाहते हैं, न कुछ कहते हैं, न करते हैं। किसी प्रकार दिन काटते रहना ही उनके लिए पर्याप्त है।

मेनिक डिप्रेशन और एण्डोमेनिक डिप्रेशन की स्थिति में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, कभी उत्तेजना कभी निष्क्रियता। कुछ दिन या कुछ समय वे सक्रिय दीखते हैं, किन्तु फिर ऐसा कुछ हो जाता है कि जो किया था, या सोचा था उसे जहाँ का तहाँ छोड़कर फिर ठप्प हो जाते हैं। आलोडित हताश, एजीटेटेड डिप्रेशन, ग्रसित रोगियों की स्थिति एक जैसी नहीं रहती। उनकी चित्र-विचित्र हरकतें अदलती-बदलती रहती है, कभी मूड़ एक तरह का होता है तो कभी दूसरी तरह का।

बड़ी-बड़ी आशाएँ बाँधने वाले, किंतु परिस्थिति वश वैसे बन न सकने वाले लोग यदि अधीर और भावुक प्रकृति के हैं तो उन पर उस असंतोष का गहरा असर पड़ता है। उन्हें अमुक व्यक्तियों का अमुक परिस्थितियों से बहुत शिकायत होती है, जिनके कारण वे अपना खेल बिगड़ा मानते हैं। कभी-कभी तो अपने भाग्य या प्रयत्न को भी वे दोष देते हैं, पर अधिकतर उनकी खोज दूसरों पर रहती है। वे सोचते हैं उनके प्रयत्न पर्याप्त थे, उनकी योग्यता कम नहीं थी, किंतु दूसरों ने उन्हें गिरा या हरा दिया। इन दूसरों की पंक्ति बहुत लम्बी होती है, इसमें ग्रह नक्षत्र, भाग्य विधान से लेकर दोस्त-दुश्मन, परिचित-अपरिचित सभी आ सकते हैं। वे किसी को भी, किन्हीं को भी, उस असफलता का कारण मान सकते हैं। यह मान्यता आरंभ में खीज, झुंझलाहट, द्वेष क्रोध आदि के रूप में प्रकट होती है, पर इससे भी जब कुछ बनता नहीं दीखता, तो वह व्यक्ति अपने को दीन-हीन असहाय और असमर्थ मानकर प्रयत्न छोड़ बैठता है, पूछताछ करने पर शिकायतें करने के अतिरिक्त और उसके पास कुछ नहीं होता। दोषारोपण के विचार मस्तिष्क को इतना आच्छादित कर लेते हैं कि कुछ और सोचने की उसमें गुंजाइश ही नहीं रहती।

अपने काम में गलती देखना और उसे बार-बार करने का प्रयत्न करना ‘आपसेसिव कम्पलसिव न्यूरोसिस’ कहलाता है। बार-बार दाढ़ी बनाना और ऐसा अनुभव करना मानो अभी भी, बाल ठीक तरह साफ नहीं हुए, बार-बार झाड़ू लगाना और सोचना अभी भी गंदगी मौजूद है, बार हाथ, कपड़े, बर्तन आदि धोना, घंटों नहाना और यह सोचते रहना कि काम पूरा नहीं हुआ, इसी रोग का लक्षण है। पवित्रता सफाई, व्यवस्था की ऐसी सनक रहती है कि उस धंधे में ही अधिक समय उलझे रहने से इच्छित स्थिति प्राप्त करना तो दूर उलटे उपहासास्पद स्थिति बन जाती है।

सरकारी मानसिक अस्पतालों में प्रायः आक्रमण कारी पागल ही पहुँचते हैं। गहरी उदासी, मानसिक तनाव, भुलक्कड़पन, आदि व्यथाओं से पीड़ित लोग भी इलाज कराने जाते हैं। इससे हलके दर्जे की विक्षिप्तता न तो उपचार योग्य समझी जाती है और न उसकी हानि का लेखा जोखा लिया जाता है। तलाश किया जाय तो जनसंख्या में से आधे आदमी ‘इन्सेनिटी’ विक्षिप्तता के नजदीक ही पहुँची स्थिति में पाई जायेंगे। कितनी ही शारीरिक समझी जाने वाली बीमारियाँ वस्तुतः मानसिक होती है। डाक्टर पैथालॉजी को तथा दूसरी जाँच पड़तालों के आधार पर निरोगता व्यक्त करते हैं, पर रोगी की व्यथाएँ ऐसी होती है जिनसे वह गलता घुलता ही चला जाता है। दवा-दारु का उपचार भी कुछ काम नहीं करता क्योंकि बीमारी शारीरिक बीमारियाँ बनकर सामने आती है और वे डाक्टरों के लिए असाध्य एवं समझ में न आने वाली ही बनी रहती है।

दूसरों की तुलना में अपने को हेय या हीन समझने की स्थिति भी कितनों को ही मानसिक रोगों का मरीज बना देती है। कुरूपता, मंद बुद्धि, गरीबी, किसी भूल के कारण स्थायी घृणा, अपमान, छूत रोग, लोक निन्दा आदि कारणों से कितने ही व्यक्ति अपने को हेय स्थिति में पाते हैं और एम्प्यूटेशन से ग्रसित होकर रुग्ण संज्ञा में गिने जाने योग्य बन जाते हैं। वे कभी विरक्ति की बात सोचते हैं, कभी आत्म-हत्या की। आत्म-हीनता की ग्रन्थि में बँधकर या तो वे घेर दब्बू हो जाते हैं या फिर ‘ऐस्जाइटी टेशन’ उन्हें तोड़-फोड़ करते रहने में लगा देते हैं।

प्रेक्टिस आफ नैचरोपैथी ग्रन्थ के लेखक डाक्टर लिड लेहर ने कितने ही प्रमाण देकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि ‘क्षय’ वस्तुतः शारीरिक नहीं मानसिक रोग है। आत्म ग्लानि की भावनाओं से पीड़ित मनुष्य ही बहुत करके यक्ष्मा के शिकार बनते हैं। उनमें से अधिकाँश ऐसे असन्तुष्ट व्यक्ति होते हैं जिन्हें जिन्दगी नीरस और भारी पड़ रही होती हैं जिन्हें जिन्दगी नीरस और भारी पड़ रही होती है उनकी अन्तःचेतना इस स्थिति से ऊबकर किसी ऐसी विपत्ति को आमन्त्रित करती हैं जो इस अवाँछनीय स्थिति से छुटकारा दिला सके। इस आमन्त्रण को पाकर क्षय जैसे मृत्यु दूत सामने आ खड़े होते हैं।

अन्तरावरोध और अंतर्द्वंद्व बढ़ते-बढ़ते ‘शिजोफ्रेनिया’ बन जाता है। बुद्धि और विवेक के सहारे उचित और अनुचित भेद करके उसमें से जो उपयुक्त है उसे लेना और जो अनुपयुक्त है उसे हटा देना साधारण नियम है। किन्तु कभी-कभी दो सर्वथा विपरीत पक्षों को मान्यता देने की स्थिति भी देखी गई है। एक आर यह विचार उठता है कि इसे करेंगे फिर विपरीत पक्ष उठता है नहीं करेंगे। विवेक कुण्ठित हो जाता है और दोनों प्रतिपक्षी मान्यताएँ समान रूप से मस्तिष्क पर हावी रहती हैं। न किसी को छोड़ते बनता है और न अपनाते। दोनों में मल्लयुद्ध होता है और उनका अखाड़ा विचार बुद्धि से आगे बढ़कर अन्तः चेतना के क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है यही अन्तरावरोध या अंतर्द्वंद्व है। इस मानसिक विषमता से घिरे मनुष्य की आन्तरिक स्थिति ऐसी हो जाती है। जैसे दो सांडों के लड़ने के क्षेत्र में उगे हुए पौधे कुचल कर चकनाचूर हो जाते हैं और ऊबड़-खाबड़ निशान बन जाते हैं।

शिजोफ्रेनिया का रोगी बात-बात में दुटप्पी बात करता है। उसकी नीति दोगली होती है और गतिविधियाँ दुरंगी। अभी वह एक बात का समर्थन कर रहा था, अभी असहमत हो गया। अभी तीव्र इच्छा प्रकट की जा रही थी अभी अनिच्छा घोषित कर दी गई। साथी लोग हैरान रहते हैं कि उसका किस प्रकार विश्वास करें और उससे क्या आशा रखें। ऐसे व्यक्तियों के दैनिक व्यवहार में भी ऐसे विचित्र परिवर्तन होते हैं कि उनका निर्वाह करने से जिनका सम्बन्ध है वे असमंजस में पड़े रहते हैं। नीतियाँ, रुचियाँ योजनाएँ बदलते रहने से वे स्वयं किसी प्रयत्न की न तो जड़ जमा पाते हैं और न किसी बात में सफल हो पाते हैं। आधे अधूरे कामों का और विपरीत विचारों का चित्र-विचित्र, लेखा-जोखा देखते हुए उन्हें अस्थिर मति एवं विचित्र व्यक्ति ही कहा जा सकता है। इस स्थिति में वे स्वयं ही लज्जा एवं ग्लानि अनुभव करते हैं, पर विवशता उन्हें उबरने नहीं देती। दूसरों की खीज और भर्त्सना से वे परिचित होते हैं, पर अंतर्द्वंद्वों में से कोई बुखार की तरह उन पर चढ़ बैठता है और वे किसी बाज के पंजों में फँसे चूहे की तरह कहीं से कहीं उड़ते चले जाते हैं।

केटाटोनिक शिजोफ्रेनिया, सिम्पल शिजोफ्रेनिया आदि इस मनोरोग के कितने ही भेद-प्रभेद हैं। जिनमें मनुष्य का प्रेम और द्वेष ज्वार-भाटे की तरह चढ़ता-उतरता है। उत्साह और अवसाद चरमसीमा पर पहुँचता है। हर्ष-शोक के झूले में झूलते हुए और विपरीत स्तर की बातें सोचते, कहते, करते उसे देखा जा सकता है। इस अस्थिरता के कारण दूसरे लोग उसे ठीक तरह समझ ही नहीं पाते कि आखिर वह क्या है- क्या करना चाहता है।

मानसिक रोग देखने में इतने कष्टकारक नहीं होते कि रोगी पीड़ा से चीत्कार करता रहे। शान्त, निष्क्रिय, मौन, उदास स्थिति में वह अपने आप में खोया, भूला रहता है। दूसरों की कुछ सहायता कर सकना तो दूर अपनी जीवन-यात्रा के लिए भी दूसरों की सहायता पर निर्भर रहता है। इस प्रकार का जीवन-भूत जीवन तब तक तो धकेला जाता रहता है जब तक रोगी को अपनी दयनीय दशा का बोध नहीं होता और वह इस स्थिति में दूसरों को ही गलत या दोषी मानता है, पर जब कभी स्थिति सामान्य हो जाती है और अपनी दुर्दशा का-दूसरों पर भार भूत होने का अनुभव करना है तो उसे मानसिक कष्ट भी बहुत होता है और उस व्यथा से उसकी बीमारी फिर बढ़ जाती है।


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