अपनों से अपनी बात - प्रत्येक परिजन सृजन सैनिक की भूमिका निवाहें

June 1975

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अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य को अपनी विशिष्ट स्थिति का मूल्याँकन करना चाहिए और अपने को विशेष उद्देश्य को लेकर अवतरित हुआ मानना चाहिए। वह अपने को जागरुक रखें और मूर्च्छा में पड़े हुए अथवा दिवा स्वप्न देखने वाले मूढ़ मति लोगों को जगाने की जिम्मेदारी संभाले। आँधी में उड़ते फिरने वाले पत्तों की तरह उसे निष्प्रयोजन इधर उधर उड़ते फिरना नहीं हैं, वरन् समुद्र में खड़े हुए प्रकाश स्तंभों के समतुल्य बनना है जो घोर अन्धकार में स्वयं चमकते रहते हैं और अपने प्रकाश से उधर से निकलने वाले जहाजों को डूबने से बचाते हैं। इस लक्ष्य को हमें अपने जीवन क्रम में दृष्टिकोण में सम्मिलित करना चाहिए और तद्नुरूप अपनी गतिविधियों का निर्धारण करना चाहिए।

जिस समय में हम पैदा हुए हैं इतिहास में वह अतीव मार्मिक है। इन दिनों मानवी संस्कृति जीवन मरण के दुराहे पर खड़ी है। लोग बुद्धि भ्रम में बेतरह उलझ गये हैं। व्यक्तिवादी अति संकीर्ण दृष्टिकोण अपना कर हर मनुष्य आपाधापी की निकृष्ट मनः स्थिति के दलदल में गरदन तक फँस गया है। जैसे बने वैसे स्वार्थ सिद्धि की ललक ने उसे अति घिनौनी अपराधियों जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाये रहने का अभ्यस्त बना दिया है। अविचार और अनाचार का बोलबाला है। इस लोक प्रवाह ने सामाजिक वातावरण को विषाक्त बनाकर रख दिया। स्नेह सौजन्य के दर्शन अब कहीं कठिनाई से ही होते हैं। सज्जनता और सहृदयता कहने सुनने भर की वस्तुएँ रह गई हैं। अविश्वास और आशंका का साम्राज्य छाया हुआ है। आज का मित्र कल शत्रु सिद्ध न होगा, इसका कोई भरोसा नहीं। मनुष्य की क्षुद्रता किस स्तर तक उतर आई है उसे देखते हुए लगता है मानवी सभ्यता क्रमशः इस धरती पर से उठती चली जा रही है।

यों शिक्षा, चिकित्सा, व्यवसाय, विज्ञान आदि की इन दिनों भारी वृद्धि हुई है। और अगणित सुख साधन उपलब्ध हुए हैं किन्तु दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों की वृद्धि ओर भी अधिक द्रुतगति से हुई है। इस दावानल में सर्वजनीय सुख-शान्ति नष्ट-भ्रष्ट होती चली जा रही है बड़े छोटों को निगल जाने के लिए आतुर बैठे हैं। विश्वयुद्ध की विभीषिकाएँ दिन-दिन सघन होती चली जा रही हैं। आशंका यही बनी रहती है कि कहीं कोई अणुबम इस सुन्दर भूलोक को भस्मसात् कर देने का निमित्त न बन जाय और मानवी सभ्यता का सदा सर्वदा के लिए अन्त न हो जाय।

व्यक्ति और समाज किस प्रकार विपन्न परिस्थितियों में घिरते चले जा रहे हैं यह देख कर भविष्य अन्धकारमय बनता जा रहा है। हम सचमुच जीवन मरण के दुराहे पर खड़े हैं। एक ओर सर्वनाश अट्टहास कर रहा है दूसरी ओर मानवता सहमी खड़ी है। मरण ने अपना सरंजाम पूरे ठाठ-बाठ के साथ खड़ा कर लिया है। जीवन इस असमंजस में घिरा खड़ा है कि हमारा क्या होना है। हमारा अस्तित्व अगले दिन भी रहना है या उसकी इतिश्री होने की घड़ी आ गई। जिस राह पर व्यक्ति और समाज ने चलने की ठान-ठानी है वह अत्यन्त भयावह है। हर क्षेत्र की हर स्थिति उलझती चली जा रही है और गतिरोध ने आगे बढ़ने का रास्ता बन्द कर दिया है। विवेक किंकर्तव्य विमूढ़ होकर हतप्रभ बना खड़ा है। सूझ नहीं पड़ता आगे क्या होना है क्या किया जाना है?

समय की इस विषम वेला में जागरुक आत्माओं का विशेष कर्तव्य है। अखण्ड-ज्योति परिवार को इस आपत्ति काल में अपनी विशेष भूमिका निभानी है। उसे सामान्य नर कीटकों की तरह पेट प्रजनन के लिए नहीं जीना है। अपनी प्रतिभा को उसी कीचड़ में नहीं सड़ाना है जिसमें कि सर्वनाश के गर्त में गिरने वाली अन्धी भेड़े दौड़ती हुई चली जा रही है। हमें अपनी विशिष्ट स्थिति का अनुभव बार-बार करना चाहिए। ऊँचा उठकर सोचना चाहिए और ऐसा कुछ करना चाहिए, जिससे ऊँचे आदर्शों का निर्वाह होता हो। युग की उलझी हुई समस्याओं को सुलझाने में हमें कुछ तो करना ही होगा, अपनी जागरुकता का परिचय दिये बिना अब काम चलेगा नहीं। प्रहरी सोते रहेंगे तो दस्युओं के आतंक वाली इस अन्धकार भरी निशा में कुछ भी हो सकता है और ऐसा हो सकता है जिसका परिमार्जन करने का समय फिर कभी आवे नहीं।

व्यक्तिगत स्वार्थी की पूर्ति ही तो चौरासी लाख योनियों में करते रहे हैं। यह क्रम तो लाखों वर्षों से चला आ रहा है और आगे भी उसी कुचक्र में घूमते हुए लाखों वर्ष सहज ही बिताने को मिल सकते हैं। हम अखण्ड-ज्योति के परिजन यदि एक जन्म युग संकट से जूझने में लगादें और उसमें व्यक्तिगत स्वार्थ साधनों में निरत रहने की बात कुछ समय के लिए पीछे छोड़ दें तो भी कोई बहुत बड़े घाटे की बात नहीं हैं। इन दिनों हम पीड़ित मानवता ने अपने परित्राण की आशा से पुकारा है और आँसू भरे नेत्रों से निहारा है। इसे विमुख इसलिए न किया जाय। इसके लिए अपने को पशु प्रयोजनों से कुछ पीछे हटना पड़े तो संकोच न किया जाय।

जन मानस का भावनात्मक परिष्कार अपने समय की सबसे बड़ी माँग है। विकृत चिन्तन से निकृष्ट कर्म बनते हैं और निकृष्ट गति विधियाँ ही अनेकानेक संकटों का सृजन करती हैं इस तथ्य को जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना ही उत्तम है। व्यक्ति और समाज की उलझी हुई अगणित समस्याओं का एक ही समाधान है- लोक मानस में गहराई तक घुस पड़ी चिन्तन विकृतियों का निराकरण। इस एक ही शस्त्र हाथ में लेकर हम असुरता की चतुरंगिणी सेना को निरस्त कर सकते हैं। हमें इसी केन्द्र पर केन्द्रित होना है। अपनी गतिविधियों को, अपनी प्रतिभाओं और साधनों को जितना संभव हो इसी महायज्ञ के लिए प्रस्तुत करना है।

अखण्ड ज्योति परिजनों को इस विषम बेला में विशेष रूप से युग निमन्त्रण मिला है उन्हें अपना सम्पूर्ण समय, श्रम, ज्ञान, प्रभाव, धन मात्र लोभ और मोह के परिपोषण में ही नहीं लगाये रहना हे वरन् उसमें से एक बड़ा अंग काटकर युग देवता के चरणों में प्रस्तुत करना है। यदि इस विषम बेला में इतना भी न बन पड़ा तो इस में हम सब का ही नहीं समूची मानव जाति का दुर्भाग्य माना जायगा। जागरुक आत्माएँ ही यदि हथियार डाल देंगी, वे भी सदुद्देश्यों के लिए कुछ साहसिक कदम बढ़ाने के लिए तैयार न होंगी तो फिर पशु प्रवृत्तियों में उलझे हुए सामान्य आमन्त्रण को हम इस आधार पर अस्वीकार करदें कि “इससे क्षुद्र स्वार्थपरता की पूर्ति में कमी पड़ जायगी” तो भी फिर यही कहना चाहिए कि आदर्शों का जमाना लद गया। धर्म, अध्यात्म, आस्तिकवाद और तत्वज्ञान जैसी बातें कहने सुनने और ढकोसले रचने भर के लिए शेष रह गई है। अब उनका अनुकरण करने वालों की पीढ़ी समाप्त हो गई।

अखण्ड ज्योति परिवार के प्रत्येक परिजन को हजार बार अपनी स्थिति पर विचार करना चाहिए और वह साहस जुटाना चाहिए जिसे अपनाने में ही उसके विशिष्ट जीवन की सार्थकता है। वर्तमान समय की सबसे बड़ी तपश्चर्या युग साधना है। इससे बढ़कर पूजा, भजन, जप, तप, ज्ञान, ध्यान और दूसरा नहीं हो सकता कि आदर्शवादिता को जीवित रखने के लिए हम अपनी सारी शक्तियों को झोंक दें। यह आपत्ति काल है नास्तिकवादी अनास्था अपने प्रत्यक्ष और प्रच्छन्न कलेवरों में पूरे जोर-शोर से मैदान में डटी हुई है। उसकी आक्रामक व्यूह रचना यदि सफल हो गई तो समझना चाहिए कि वे सारे आधार ही नष्ट हो जायेंगे, जिनके सहारे आत्म-कल्याण की, आत्म-ज्ञान की बात सोची जा सकती है।

आपत्ति काल के आपत्ति धर्म होते हैं। हमें आपत्ति धर्म के रूप में अपने जलते हुए जमाने पर पानी डालने के लिए आगे आना चाहिए और छुट-पुट प्रयोजनों को पीछे धकेलने में यदि भौतिक दृष्टि से कुछ घाटा दीखता हो तो उसके लिए भी साहस बटोरना चाहिए।

बड़ी बात सोचने, बड़ा साहस सँजोने और बड़े कदम बढ़ाने के लिए तो सुविस्तृत क्षेत्र फैला पड़ा है, उससे कितना ही आगे चला जा सकता है। समय-समय पर महामानव अपनी बड़ी आहुतियाँ देते रहें हैं उन्हीं के जीवन दीपकों ने जलकर अपने समय के अन्धकार को दूर किया है और अपने जमाने के भटकते हुए जन-मानस को रास्ता दिखाया है। छोटी सी छोटी परिस्थिति के व्यक्ति की बड़ी से बड़ी मनःस्थिति हो सकती है और वह ऐसा कुछ कर सकता है जिसे देख कर प्रचुर साधन सम्पन्न व्यक्ति आश्चर्यचकित होकर रह जाय। पर यह तो बड़े साहस की बात हुई। यहाँ तो न्यूनतम की चर्चा हो रही है। एक छोटी इकाई हमें ऐसी बना लेनी चाहिए जिसके बारे में यह कहा जाय कि अपने आदर्शवाद की प्रतिष्ठापना में अग्रसर अखण्ड ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य को अनिवार्य अनुदान मानना पड़े और उसके लिए इतना तो करना ही है यह सोचना पड़े।

बार-बार के अनुरोध आग्रहों का सिलसिला अब समाप्त होने जा रहा है। उसकी पुनरावृत्ति आखिर कब तक की जाती रहेगी। अब अन्तिम बार उसका आरम्भ और अन्त जोड़ लेना चाहिए और यदि कुछ कर सकना सम्भव हो तो उसका हाँ अथवा ना एक बारगी निश्चय कर लेना चाहिए। हमारा परामर्श, अनुरोध रहा है कि जागृत परिजनों को अपनी विशिष्ट स्थिति का मूल्याँकन करना चाहिए और एक न्यूनतम कदम तो निश्चित रूप से उठाना ही चाहिए। सर्वथा अस्वीकृत कर देना और उपेक्षा दिखाना सरल है, पर अन्ततः परिणाम और परिपाक की दृष्टि से बहुत ही अबुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय होगा। इस घाटे की पूर्ति सहज ही न हो सकेगी और चिरकाल तक पछताना पड़ेगा। इसलिए यदि सम्भव हो तो न्यूनतम प्रयास के लिए साहस समेट ही लेना चाहिए।

वह कदम यह है कि अपने समय, श्रम, और मनोयोग का एक अंश नियमित रूप से युग देवता के चरणों में भावभरी श्रद्धाञ्जलि की तरह समर्पित करते रहने की साधना को दैनिक जीवन का एक अविच्छिन्न अंग बना लेना चाहिए। पेट और परिवार के लिए 23 घण्टे लगाये जा सकते हैं तो क्या देश, धर्म, समाज, संस्कृति के लिए एक घण्टा प्रतिदिन देना भी सम्भव नहीं हो सकता? यदि चाह होगी तो राह जरूर निकल आवेगी। कितने ही लोग भजन-पूजन की विडम्बना में घंटों गुजारते रहते हैं फिर क्या हम विवेकशील लोगों के लिए यह सम्भव नहीं कि उतना समय जन-मानस का नव-निर्माण करने के लिए लगाते रहने का संकल्प कर सकें। सच पूछा जाय तो इससे बढ़कर ईश्वर की सच्ची उपासना और दूसरी तरह हो ही नहीं सकती। हमें इस समय दान को ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट पूजा के रूप में नियोजित करना चाहिए। यही न्यूनतम अनुदान है जिसकी आशा अखण्ड-ज्योति परिवार के प्राणप्रिय परिजनों से हम बहुत ही आशा भरे नेत्रों से कर रहे हैं।

यह समय दान कैसे किस रूप में प्रयुक्त होगा? वह विस्तारपूर्वक अगले अंक में पढ़ने की प्रतीक्षा की जानी चाहिए। इन पंक्तियों में तो उस पृष्ठ-भूमि को बनाने की बात कही जा रही है जिसमें उस एक घण्टे के समय को बोया जाया करेगा। खेत न हो तो बोये किसमें? बाग न हो तो माली का श्रम किसलिए, कहाँ, कैसे सम्भव होगा? आरम्भ में हम सबको खेत बनाने, उद्यान लगाने का कदम बढ़ाना चाहिए और इसके लिए कार्यारम्भ में जिस प्रकार विशेष प्रयत्न किया जाता है विशेष साधन जुटाये जाते हैं वैसा ही हमें भी विशेष आयोजन करना चाहिए।

इस पुण्य प्रतिष्ठापना का शुभ मुहूर्त गायत्री जयंती, गंगा जयन्ती ज्येष्ठ सुदी 10 तारीख 18 जून बुधवार का है। इस अनुष्ठान की पूर्णाहुति गुरु पूर्णिमा व्यास पूर्णिमा-आषाढ़ सुदी पूर्णिमा तारीख 23 जुलाई बुधवार को होनी चाहिए। इन 35 दिनों को एक विशेष पुरश्चरण का अवधि मानकर चलना चाहिए और उसमें जितना अधिक समय दिया जा सकता हो, जितना श्रम किया जा सकता हो, जितना मनोयोग लग सकता हो उसे, एकबार अपनी पूरी श्रद्धा को झकझोरते हुए लगा ही देना चाहिए।

कहना न होगा कि नव-निर्माण जैसे महान अभियान एकाकी प्रयत्नों से किसी भी प्रकार सम्भव नहीं हो सकते भले ही वे कितने ही बढ़े-चढ़े क्यों न हों। इसके लिए संघ शक्ति का जागरण अनिवार्य है। राम रीछ-वानरों द्वारा कृष्ण ग्वाल-बालों द्वारा-बुद्ध आत्मदानी भिक्षुओं द्वारा और गाँधी सत्याग्रही सैनिकों द्वारा अपने समय की विभीषिकाओं को निरस्त करने में समर्थ हुए थे। नव निर्माण के लिए कुछ कहने लायक कार्य बिना संगठन के किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। हमें इन 35 दिनों का युग संगठन खड़ा करने में लगाना चाहिए।

भीड़ जोड़ने से कुछ काम न चलेगा। जिन्हें मिशन की विचारधारा का परिचय नहीं उन्हें ऐसे ही संगठन में शामिल कर लेना और सदस्य बना लेना नितान्त उपहासास्पद है। उनसे झूठी आत्म प्रवंचना होती है। अपने संगठन में सम्मिलित होने वालों के लिए प्रथम शर्त यही है कि वे लगातार-नियमित रूप से अपनी विचारधारा को रुचिपूर्वक पढ़ते हों। इस कसौटी पर केवल वे ही लोग खरे उतरते हैं जो अखण्ड-ज्योति के नियमित पाठक हैं। अपना संगठन अभी इन्हीं लोगों तक सीमित रखा जाना चाहिए। इसके लिए यह किया जाय कि जहाँ भी अखण्ड-ज्योति पहुँचती है वहाँ के दो-तीन परिजनों की एक टोली आगे कदम बढ़ाये और अन्य सदस्यों के घरों पर मिलने जाकर संगठन का सदस्य बनने का अनुरोध करें। आशा की जानी चाहिए कि उनमें से अधिकाँश लोग उसे स्वीकार कर लेंगे। जो स्वीकार करें उनसे वही एक घण्टा समय देने का प्रस्ताव करना चाहिए। पहली बार यह समय विचार गोष्ठी में एकत्रित होते रहने के रूप में माँगा जाय। साप्ताहिक सत्संग क्रम चलाया जाय। सप्ताह का एक दिन इसके लिए नियत जाय और उपरोक्त 35 दिनों में जो 5 सप्ताह पड़ते हैं उनमें 5 विचार गोष्ठियों के लिए 5 सदस्यों के स्थान निर्धारित कर लिये जायं। जो संगठनकर्ती टोली आगे कदम बढ़ाती हुई उभरी है उसका काम है कि जिनके पास भी अखण्ड-ज्योति पहुँचती है उनके घर कई बार चक्कर लगायें और उनसे बार-बार अनुरोधपूर्वक संगठन के अंग बनने का आग्रह करो कम से कम इन पाँच सप्ताहों में पाँच दिन पाँच स्थानों पर जो विचारगोष्ठी नियत की जाय उसमें सम्मिलित होने के लिए तो रजामन्द कर ही लें। इतना काम जो टोली पूरा कर लेगी उससे यह आशा की जायगी कि अपने क्षेत्र में व्यापक प्रकाश उत्पन्न करना और समर्थ संगठन खड़ा करना उसे के लिए आवश्यक ही सम्भव हो जायेगा। इन। टोलियों का गठन यह अंक पढ़ने के दिन से ही आरम्भ हो जाना चाहिए। उनका संकल्प होना चाहिए कि इन 35 दिनों के प्रयत्न से स्थानीय संगठन निश्चित रूप से खड़ा कर दिया जायेगा।

युग-निर्माण शाखा संगठन की सदस्यता की शर्त एक घण्टा समय ज्ञान-यज्ञ के लिए नित्य देते रहना है। आवश्यक नहीं कि यह हर दिन ही दिया जाय। सप्ताह के सात घण्टे एक छुट्टी के दिन भी दिये जा सकते हैं। महीने में 30 घण्टे किसी न किसी प्रकार दे ही देने चाहिए। जिनके पास समय कम हो वे विचारगोष्ठियों में सम्मिलित होने के समय को भी इसी अनुदान में जोड़ सकते हैं। यों साधारणतया वह समय ज्ञान-यज्ञ प्रसार के लिए, जन-संपर्क के लिए नियोजित होने चाहिए। व्यस्त लोगों को विशेष छूट के रूप में विचारगोष्ठियों में उनका सम्मिलित होना भी उसी में गिन लिये जाने की बात कही गई है।

सदस्यता का कोई अलग फार्म आदि नहीं है। साधारण कागज पर एक घण्टा नित्य समय देने की प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर कराये जा सकते हैँ। संगठन की गतिविधियों को सुसंचालित रखने के लिए जायं। अपने संगठनों में प्रधान, मन्त्री आदि अनेक पदाधिकारी नहीं चुने जाने चाहिए। उससे अनावश्यक प्रतिद्वंद्विता और अहंकारिता फैलती है। कार्यवाहक के अतिरिक्त दूसरा पदाधिकारी कोषाध्यक्ष ही हो सकता है।

इन पाँच सप्ताहों की विचारगोष्ठियों में चर्चा को प्रधान विषय यह होना चाहिए कि 23 जुलाई को गुरु पूर्णिमा उत्सव उत्साहवर्धक रीति से कैसे मनाया जाय? उन दिनों वर्षों की सम्भावना रहेगी, इसलिए आयोजन छाया वाले स्थान में होना चाहिए और उतने ही व्यक्ति बुलाने चाहिए जिनके बैठने को स्थान हो। इस अवसर पर बड़ा आयोजन नहीं हों सकता यह तो परिजनों का प्रतिज्ञा पर्व है जिसमें उन्हें विधिवत् शपथ लेनी है कि मिशन का प्रकाश फैलाने के लिए वे एक घण्टा समय नियमित रूप से देते रहेंगे।

यों युग-निर्माण संगठन बहुत समय से चला आ रहा है, पर अब यह उसका नवीनीकरण है। कायाकल्प है। कुछ शाखाएँ नाम मात्र की है, कुछ ऐसे ही मूर्च्छित स्थिति में पड़ी है। अब नये उत्साह और नये साहस के साथ कदम बढ़ाने हैं। इसलिए सभी परिजनों को अपनी सदस्यता का नया कल्प करना चाहिए। श्रावणी पर्व पर हर साल नये यज्ञोपवीत बदले जाते हैं। इस वर्ष के इस प्रयास को उसी स्तर का गिन लिया जाना चाहिए और यह प्रक्रिया इन्हीं 35 दिनों की अवधि में पूरी कर लेनी चाहिए।

गुरुपूर्णिमा से आरम्भ होने वाले अगले वर्ष में व्यक्तिगत रूप से हर सदस्य को ‘एक से दस’ अभियान के अंतर्गत अपनी पत्रिकाएँ तथा पुस्तकें कम से कम दस व्यक्तियों को पढ़ाते रहने को उत्तरदायित्व सँभालना है। एक घण्टा समय उसी में लगाना है। घर, परिवार के पड़ौसी परिचय के लोगों में से कम से कम 10 ऐसे व्यक्ति प्रत्येक परिजन के प्रभाव क्षेत्र में रहने ही चाहिए जो विचार क्रान्ति अभियान के प्रकाश साहित्य को पढ़ने में उत्साह रखे रहें।

सामूहिक रूप से शाखा संगठनों को यथासम्भव उत्साही सदस्यों के जन्म दिन मनाने की व्यवस्था बनानी चाहिए। साप्ताहिक या पाक्षिक रूप से विचार गोष्ठी, सत्संग का क्रम चलाना चाहिए और सब पर्व तो सामूहिक रूप से अनिवार्य रूप से मनाते ही चाहिए। इसके लिए अतिरिक्त बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्रांति के लिए प्रचारात्मक, रचनात्मक एवं संघर्षात्मक शत सूत्री कार्यक्रमों का सुविस्तृत कार्यक्षेत्र सामने पड़ा है जहाँ जो सम्भव हो वह आरम्भ करना चाहिए। अगले वर्ष का न्यूनतम कार्यक्रम घोषित है (1)व्यक्तिगत रूप से ‘एक से दस’ का प्रसार विस्तार (2)साप्ताहिक विचारगोष्ठियों, जन्म दिनों का पर्वों का आयोजन। इससे कम की गुंजाइश नहीं-अधिक जो भी सम्भव हो किया जाय।

गुरु पूर्णिमा पर्व के आयोजन में सामूहिक गायत्री पाठ, यज्ञ, भजन-कीर्तन, प्रवचन, समय दान की प्रतिज्ञा, दीप दान, प्रभात-फेरी आदि जहाँ जो बन पड़े वहाँ उस प्रकार के आयोजन की व्यवस्था बना लेनी चाहिए। लाल मशाल को गुरु प्रतीक माना जाय और उसके चित्र के सम्मुख श्रद्धाँजलि, पुष्पाँजलि अर्पित की जाय। उस दिन से अगले वर्ष के कार्य-क्रम नियमित रूप से सुसंचालित कर दिये जायं।

यह भूलना नहीं चाहिए कि यह वर्ष अन्तर्राष्ट्रीय महिला जागरण वर्ष है। अपने हर संगठन के साथ महिला जागरण अभियान शाखाएँ निश्चित रूप से बनाली जायं। जहाँ मात्र पुरुषों का ही संगठन होगा और महिला शाखा स्थापित न हो सकेगी। वहाँ अधूरापन ही माना जायगा। जहाँ युग-निर्माण शाखाओं का नवीनीकरण करना है वहाँ समानान्तर महिला शाखाएँ भी स्थापित करनी है। इसके लिए क्या करना चाहिए इसका विस्तारपूर्वक वर्णन मार्च, अप्रैल और मई की अखण्ड-ज्योति में किया जा चुका है। संगठन टोलियाँ यह मानकर कर चलें कि जहाँ अखण्ड-ज्योति परिजनों का एक सुनियोजित संगठन खड़ा करना है वहाँ महिला शाखाओं की स्थापना भी उतनी ही आवश्यक है।

इस दिशा में जो भी प्रयास किये जायं और सफलता मिले उसके प्रकाशनार्थ समाचार युग-निर्माण योजना मथुरा के पते पर भेजे जायं। साथ ही उनकी प्रतिलिपि शान्ति-कुंज, सप्त सरोवर हरिद्वार के पते पर भी भेजी जायं। सर्वविदित है कि हम लोग अब हरिद्वार ही रहते हैं और यहीं से परिजनों को आवश्यक स्नेह, सहयोग एवं प्रकाश देते रहते हैं।


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