मनुष्य जीवन मोटी दृष्टि से देखने पर समुद्र जैसा स्थिर और सीमित दीखता है। कमाने, खाने और सोने, जागने का उसका एक निश्चित निर्धारित ढर्रा है, उसी पर उसकी जीवनचर्या लुढ़कती प्रतीत होती है, पर गम्भीरतापूर्वक देखने से उसकी गहराई और विस्तीर्णता समुद्र जैसी ही विशाल है जो मोटी बुद्धि से समझ में नहीं आती उसके लिए गम्भीर चिन्तन और तात्विक सर्वेक्षण की आवश्यकता पड़ती है।
पृथ्वी के अन्तराल में कितनी आग और कितनी सम्पदा भरी पड़ी है इसे बिना गहराई में उतरे ऐसे ही मोटी बुद्धि से नहीं जाना जा सकता। इसी प्रकार समुद्र एक स्थिर तालाब जैसी लगता है उसमें ज्वार भाटे ही थोड़ी हलचल उत्पन्न करते हैं, पर वास्तविकता इससे कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी है। समुद्र का अन्वेषण करने पर लगता है उसमें निर्जीव स्थिरता नहीं घोर सक्रियता काम कर रही है। उसकी सम्पदा की विस्तीर्णता का क्षेत्र उससे कहीं अधिक है जितना कि चर्मचक्षुओं और मोटी बुद्धि से देखा, समझा जा सकता है। जीवन की स्थिति भी ऐसी है। हम सामान्य रीति से खाते, सोते हैं वह स्थूल परिचय है। वस्तुतः इतनी अधिक विभूतियाँ और सम्भावनाएँ मनुष्य में भरी पड़ी हैं जिन्हें पृथ्वी और समुद्र के अन्तराल में सन्निहित क्षमता एवं सम्पदा से किसी भी प्रकार कम नहीं आँका जा सकता।
समुद्र पृथ्वी पर भरा हुआ एक तालाब जैसा प्रतीत होता है, पर वस्तुतः थल की तुलना में जल कहीं अधिक है। मनुष्य जीवन में स्थूलता जड़ता की अपेक्षा सरस सम्भावनाओं से भरा पूरा जलीय अंश ही अधिक है।
पृथ्वी का क्षेत्रफल 1,96,94,0000 वर्ग मील है। इस क्षेत्रफल का 136, 715 000 वर्ग मील भाग में समुद्र जल भरा है। इसका अर्थ यह हुआ कि 71 प्रतिशत भू-भाग समुद्र में डूबा पड़ा है। संसार के सब छोटे-बड़े समुद्रों में 33 करोड़ धन मील यही खारा पानी भरा है। गहराई का औसत इतना है जितने में थल भाग ऊँचे से ऊँचे पर्वतों समेत पूरी तरह डूब जाय। थल भाग यदि किसी कारण समुद्र में डूब जाय तो वह 12000 फुट गहराई में डूबा हुआ दिखाई पड़ेगा। विशालता को दृष्टि में रखकर यदि किसी ने पृथ्वी का नामकरण किया होता तो उसे महासमुद्र कहना पड़ता। थल भाव तो बीच-बीच में उठे हुए छोटे-बड़े टापुओं की तरह है।
मानवी जीवन को जड़ सम्पत्ति के आधार पर विकसित-अविकसित माना जाता है, पर वस्तुतः उसकी चेतनात्मक सरस सम्वेदनाओं का क्षेत्र ही बड़ा है। उसकी सम्वेदनाओं का मूल्य महत्व ही अधिक है।
अनादि काल से मनुष्य समुद्र को देखता तो रहा है, पर उसकी स्थिति को सही रूप से इतनी लम्बी अवधि में कभी भी नहीं जाना जा सका। जानकारियों का विस्तार अन्वेषण के बिना हो ही नहीं सकता। वस्तुओं का जितना मूल्य है उससे कहीं अधिक महत्व अन्वेषण प्रक्रिया का है। किसी समय एक ही समुद्र समझा जाता था, पर जब उसके विस्तार क्षेत्र चार गुना हो गया है, एक नहीं चार महासागर हैं।
स्थूल दृष्टि से मनुष्य चलता-फिरता पेड़-पौधा है पर सूक्ष्म दृष्टि से उसे सत, रज, तम के तीन गुणों में-सत्य शिवं सुंदरम् भी तीन महानताओं में- सत् चित आनन्द के तीन वर्षों में-स्थूल, सूक्ष्म और कारण के तीन स्तरों में विभक्त किया जा सकता है।
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की चतुर्विधि विभूतियाँ प्राप्त कर सकना उसके लिए पूर्णतया सम्भव है। आकाश की ही चार दिशाएँ नहीं है मनुष्य जीवन की भी चार स्थितियाँ हैं-पिशाच, पशु, मनुष्य और देव। इन पर चारों वेदों में विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। जीवन विकास के लिए भारतीय धर्म में चार वर्ण और चार आश्रमों का विधि-विधान किया गया है। एक ही जीवन का तीन या चार भागों में विभाजन करना उसी तत्वान्वेषी दृष्टी को अपनाने से सम्भव हो सका। जिसके आधार पर एक समझा जाने वाला समुद्र अब चार महासागरों की जानकारी के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत है।
समुद्रों का वर्गीकरण चार महासागरों और अनेकों सागरों के रूप में किया गया है। महासागर चार है- (1) हिन्द महासागर (2) प्रशान्त महासागर (3) अटलांटिक महासागर (4) आर्कटिक महासागर।
समुद्र में मनुष्य की दिलचस्पी यों सदा से ही रही है, पर कुछ समय से उस ओर अधिक ध्यान दिया जाने लगा है। इस संदर्भ में सबसे पहली और खोजपूर्ण पुस्तक अँग्रेज रसायन शास्त्री राबर्ट वायल ने लिखी यह सन् 1670 में प्रकाशित हुई। बेंजामिन फ्रेंकलिन ने भी कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले। मेथ्यूमोरी ने सारे संसार के समुद्रों का चक्कर लगाया और समुद्र विज्ञान पर प्रामाणिक पुस्तक लिखी। लुइस अगेसिज, अलेक्जेण्डर, एडवर्ड, फारब्स ने इन खोजों को और आगे बढ़ाया। चार्ल्स डार्विन ने और भी अधिक प्रकाश डाला। सर्वांगपूर्ण समुद्र विज्ञान के अन्वेषण का कार्य केष्टिन सी.डबल्यू. थामसन ने किया। उसे ब्रिटेन की नौ सेना का एक जलयान ‘चैलेन्जर’ मिल गया। उसके सहारे उसने 68890 मील की यात्रा साढ़े तीन वर्ष में पूरी की। इस बीच जो शोध सामग्री उसने एकत्रित की उसका विश्लेषण करने में पूरे बीस वर्ष लगे। वे सब निष्कर्ष पचास मोटी जिल्दों में प्रकाशित हुए हैं। समुद्र विज्ञान का इसे प्रथम विश्व कोष कह सकते हैं।
इसके बाद संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में हिन्द महासागर की खोज सन् 1962 में की गई। जिसमें 13 देशों के जलयानों ने योगदान दिया।
समुद्र की आन्तरिक सक्रियता ही उसे महत्वपूर्ण बनाये हुए हैं। यदि उसमें निष्क्रियता होती तो अब तक कब का गन्दा तालाब बनकर गड़ गया होता और इस सारी धरती पर दम घोंटने वाली विष भरी सडांद के अतिरिक्त और कुछ दिखाई न देता। सक्रियता ही चेतना प्रदान करती है और उसी के आधार पर अपनी गरिमा बनाये रहना तथा संपर्क क्षेत्र को महत्वपूर्ण अनुदान दे सकना सम्भव होता है। समुद्र की भी यही स्थिति है और यही मनुष्य जीवन की भी।
धरती घूमती है और अपनी हलचल से हर जड़ चेतन को प्रभावित करती है। समुद्र भी अपवाद नहीं हो सकता। उसमें भी क्रिया विश्रान्ति की अनवरत हलचलें होती है। मनुष्य को विश्राम की, सुखोपभोग की इच्छा तो होती है, पर यह भी स्पष्ट है कि सक्रिय श्रमशीलता का ही दूसरा पक्ष प्रगतिशीलता है। ठण्ड और गर्मी का सन्तुलन इस धरती पर समुद्र की गहराई में अनेकानेक हलचलों का और सुखद सम्भावनाओं का सृजन कर रहा है।
धरती सूर्य के इर्द-गिर्द चक्कर लगाती है और अपनी धुरी पर भी घूमती है। भूमध्य रेखा के आसपास वाले भाग में पृथ्वी पर सूर्य का प्रकाश अधिक पड़ता है। अस्तु वह क्षेत्र अधिक गरम रहता है। समुद्री पानी भी वहाँ काफी गर्म हो जाता है और गर्म जल के हलके होने के कारण उसका प्रवाह उत्तर एवं दक्षिण ध्रुवों की ओर चल पड़ता है।
ध्रुव प्रदेशों के पानी की स्थिति इसके विपरीत है। वहाँ ठण्डक अधिक रहने से पानी भारी हो जाता है। अधिक ठण्डा अधिक भारी पानी तली में बैठ जाता है। यह तली में बैठा पानी भूमध्य रेखा पर गरम पानी बहने के कारण खाली हुई जगह को भरने के लिए दौड़ता है। इस प्रकार तालाब की तरह बन्द दिखाई पड़ने वाले समुद्र में भी नदियों जैसा प्रवाह बना रहता है और उसमें सड़न उत्पन्न नहीं होने पाती।
अन्तः प्रवृत्तियाँ बाह्य जीवन में सक्रियता उत्पन्न करती है। भीतर की हलचलें दृश्यमान नहीं होती-भीतरी गतिशीलता का परिचय भी नहीं मिलता। लगता है मनुष्य बाहर से ही सक्रिय है, भीतर स्थिरता रहती होगी, पर वस्तुतः ऐसा नहीं है वे मन्द समझी जाने वाली आकांक्षाएं और प्रेरणाएँ ही हमें सक्रिय सुयोग्य एवं सफल बनाती है। भीतर का भारीपन ही ऊपर के हलके-फुलके जीवन में स्फूर्ति भरे रहता है।
समुद्र की ऊपरी सतह में अधिक हलचल रहती है क्योंकि ऊपर खारापन कम और नीचे अधिक है। यों यह भारी जल भी रेंगता है, पर उसकी गति ऊपरी सतह की अपेक्षा कहीं कम होती है।
बेंजामिन, फ्रेंकलिन के जमाने में ही इन समुद्री जलधाराओं का कुछ-कुछ पता चल गया था। ब्रिटेन से अमेरिका जाने वाले जहाजों को दो सप्ताह अधिक लगते थे जब कि अमेरिका जहाज दो सप्ताह पहले ब्रिटेन जा पहुँचते थे। चाल को घटाने और बढ़ाने में समुद्री जल धाराओं का सीधा या उल्टा प्रवाह ही इस अन्तर का मुख्य कारण था। कुशल नाविकों ने इन जलधाराओं का नाम ‘गल्फ स्ट्रीम’ रखा था और उनके नक्शे बनाये थे। जलधाराएँ उथली गहरी, चौड़ी, संकरी पाई जाती है। उनकी चाल का अनुपात प्रति घण्टा 6080 फुट आँका गया है। मोटेतौर पर सतही प्रवाह द्रुतगामी और गहराई में प्रवाह मन्दगति वाला होता है।
इस प्रवाह के तीन कारण माने जाते हैं-(1) ज्वार-भाटा से उत्पन्न (2) समुद्री हवाओं से धकेले जाने के कारण (3) खारे पानी के घनत्व में अन्तर आते रहने से यह जलधाराएँ प्रवाहित होती हैं। उनकी गति में मन्दी एवं तीव्रता भी इन्हीं कारणों से घट बढ़ होते रहने से उत्पन्न होती है। यह जलधाराएँ अपने समीपवर्ती क्षेत्रों को बहुत तरह प्रभावित करती हैं। मानसून की कमीवेशी, दौड़ने की गति तथा दिशा का निर्धारण, तूफानों की उत्पत्ति, जलयानों की यात्रा में सरलता एवं रुकावट।
लहरों का सम्बन्ध विशेषतया हवा से है। वे प्रायः 100 फुट से कम ही ऊँची रहती है। यों मनीला से सेनडिगो जाते हुए “रैमेयो” जलयान के कप्तान ने 7 फरवरी 1933 की रात में प्रशान्त महासागर में उठती हुई लहरों की ऊंचाई 112 फुट तक आँकी थी पर ऐसा कभी-कभी ही होता है। लहरें तट से सीधी नहीं टकराती वे कोण-बनाकर भूतल का स्पर्श करती हैं।
बाह्य परिस्थितियों का प्रभाव यदि कभी आन्तरिक स्थिति को उद्विग्न करदे तो उसके परिणाम बड़े घातक होते हैं, यह विपत्ति समुद्रों पर भी जाती है कभी-कभी सूर्य, चन्द्र आदि के प्रभावों का सामना वे नहीं कर पाते फलतः अपने को तूफानी परिस्थितियों में फँसा लेते हैं और विनाशकारी घटनाएँ उत्पन्न करते हैं। असन्तुलित ओर उद्विग्न मनः स्थिति वाले मनुष्य भी यही करते हैं।
ज्वार-भाटे, सूर्य और चन्द्र की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से उत्पन्न होते हैं। उनके कारण समुद्र का समूचा पानी ऊपर उठ आता है। इतना ही नहीं पृथ्वी का थल भाग भी फैलता, सिकुड़ता है। धरती के चारों ओर भरा हुआ वायुमण्डल भी मीलों ऊपर उठता है, नीचे आता है। इतना ही नहीं हमारे शरीर का भार विस्तार भी इनसे प्रभावित होता रहता है। सन 1912 की वह दुर्घटना समुद्री इतिहास में कभी भुलाई नहीं जा सकती जिसमें अमेरिकी जहाज टाइटैनिक समुद्र में तैरते हुए एक हिमि पर्वत से जा टकराया था और हजारों यात्रियों समेत डूब गया था। ग्रीनलैण्ड के समुद्र में अभी भी ऐसे दर्जनों हिम खण्ड तैरते रहते हैं। उधर से निकलने वाले जहाजों को इस टकराव से बचने के लिए बहुत सतर्कता बरतनी पड़ती है।
एशिया का पूर्वी तट इन कवन्ध तूफानों का देश है। जापान को यह दैत्य तरह-तरह से धमकाते, झकझोरते रहते हैं और भी कितने ही द्वीप समूह उनसे प्रभावित होते हैं। अमेरिकी तटों से टकराने वाले तूफान ‘हरीकेन’ कहलाते हैं। भारत पर हमला करने वाले तूफान चीनी सागर में उठने वाले टायफ्रन्स के चेले चपाटे हैं वे इधर चले आते हैं और बंगाल की खाड़ी के इलाके में बहुत हानि पहुँचाते हैं।
कभी-कभी समुद्री सतह पर छाया रहने वाला हवा का दबाव अचानक घट-बढ़ जाता है इससे पानी में हलचल मचती है और हवा में उथल-पुथल पैदा होती है। तूफान इन्हीं परिस्थितियों में पैदा होते हैं। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है तो उससे एक विशेष शक्ति उत्पन्न होती है जिसे ‘कोरिओली’ कहते हैं।’ तूफानों को इस ‘कोरिओली’ की दिशा और सहायता मिल गई तब तो वे और भी भयंकर हो उठते हैं।
समुद्री तूफान कई बार तटवर्ती लोगों के लिए भारी विपत्ति सिर पर लादकर लाते हैं। पिछले दिनों उड़ीसा में जो तूफान आया था उसने दस लाख व्यक्तियों का सर्वस्व अपहरण करके उन्हें असहाय बना दिया। कटक तथा वालासोर जिलों की 1200 वर्ग मील जमीन भी पूरी तरह बर्बाद हो गई। एक हजार से ऊपर मनुष्य उसमें भरे थे।
दक्षिण रामेश्वरम् के तूफान ने और भी अधिक कहर ढाया था। सौ फुट ऊँची लहरें एक सवारी रेलगाड़ी को ही बहा ले गई उसमें सवार यात्रियों में से एक भी जीवित न बच सका। रामेश्वरम् द्वीप को मुख्य भूमि से जोड़ने वाले 6700 फुट लम्बे पुल को उखाड़ कर समुद्र में बहुत दूर फेंक दिया।
अक्सर बंगाल की खाड़ी में तीन-चार बड़े तूफान हर साल आ ही जाते हैं। इनकी चाल 150 से 500 मील तक प्रतिदिन की होती है। इन समुद्री तूफानों को कबन्ध भी कहा जाता है।
कबन्ध उस क्षेत्र में पैदा होते हैं जिनका तापमान 26-27 डिग्री सेन्टीग्रेड से ऊपर हो-ठण्डे समुद्रों तक पहुँचते-पहुँचते वे स्वतः समाप्त हो जाते हैं। सामान्यतया कवन्ध की जिन्दगी 6 दिन से 10 दिन तक की होती है।
यह विनाशकारी उथल-पुथल, हवा, सूर्य आदि के प्रभावों का सामना न कर सकने की असंतुलित स्थिति से ही उत्पन्न होती है। सामान्य तथा समुद्र अपनी स्थिरता को बनाये रहता है तभी तो संसार की क्रम व्यवस्था चलती है। मनुष्य भी जब तक अपनी आँतरिक दृढ़ता विवेकपूर्वक बनाये रहते हैं, तब तक वे शालीन, सज्जन और महापुरुषों के स्तर पर बने रहते हैं। आकर्षणों और उत्तेजनाओं से ग्रसित होकर जब वे असंतुलित होते हैं तभी विनाशकारी विभीषिकाएँ उपस्थित होती हैं। यह समुद्र की भी हेय स्थिति है और मनुष्य की भी।
आर्कटिक और अंटार्टिका समुद्र पर जमी हुई तर्क की मोटाई औसतन 7500 फुट है। कहीं-कहीं वह मोटाई 13000 फुट तक पहुँच गई है। एक जगह तो यह मोटाई तीन मील से भी अधिक है। यह सारा बर्फ यदि पिघल जाय तो संसार भर के समुद्रों का पानी सैकड़ों फुट ऊँचा उठ आवेगा। हर साल बादल जितना पानी बरसाते हैं यदि इस बर्फ से वह काम लिया जाय तो 50 साल तक वर्षा कराने के लिए यही बर्फ काफी है।
मनुष्य की महानता ध्रुव प्रदेश में जमी हुई बर्फ की तरह है वह जब तक स्थिर है तभी तक यह संसार स्थिरता प्रगति एवं सुख-शान्ति से लाभान्वित हो सकता है। यदि वह मानवी गरिमा और शालीनता अपनी शीतलता छोड़कर उद्दण्ड उत्तेजना अपनाने और पतन की दिशा में वह चले तो समझना चाहिए कि अब सर्वनाश की घड़ी आ पहुँची उसमें वह स्वयं भी नष्ट होगा और इस सुन्दर संसार को भी नष्ट भ्रष्ट करके रहेगा।