मनुष्य जन्म प्रचण्ड पुरुषार्थ का प्रतिफल

June 1975

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मनुष्य का अस्तित्व अदृश्य से दृश्य बनने की अवधि में उससे कितने प्रयत्न पुरुषार्थ की अपेक्षा करता है इसे बहुत कम लोग जानते हैं। प्रकृति उसकी इस विकास चेष्टा को सफल बनाने में सहायता करती है यह सही है, पर उससे ज्यादा सही यह है कि नन्हा-सा प्राण जो एक शुक्राणु के भीतर केन्द्रित होता है, इस दिशा में घोर प्रयत्न रत होता है। यदि उसने वैसा न किया होता तो सम्भव न था जो बाल की नोंक से भी छोटी सत्ता का मूल प्राणी गर्भास्थ भ्रूण बनता-विकसित होता-जन्म लेता और एक पूर्ण मनुष्य बन सकता। यह विकास क्रम उसकी घोर प्रयत्नशीलता का ही परिणाम है। पुरुषार्थियों को प्रकृति की ओर से-परमात्मा की ओर से पूरी सहायता मिलती है यह तथ्य तो सदा से सुनिश्चित है।

मनुष्य को अपना अस्तित्व प्रकट करते समय कितना घोर प्रयत्न करना पड़ता है इसे बहुत कम लोग जानते हैं। पिता के शरीर से निकला हुआ शुक्राणु इतना छोटा होता है कि आलपिन की नोंक पर उसके हजारों भाई बैठ सकते हैं। उसे बिना शक्तिशाली सूक्ष्म दर्शक यन्त्र के खुली आँखों से तो देखा तक नहीं जा सकता।

रतिक्रिया से उसमें अत्यन्त तीव्र विद्युत स्पन्दन आरम्भ होते हैं जिसके कारण वह शान्त पड़ा रहने वाला जीव उत्तेजित हो उठता है और अपनी स्वतन्त्र सत्ता का निर्माण करने के लिए सहयोगी की तलाश में द्रुतगति से परिभ्रमण करता है। बिना आँख, हाथ होते हुए भी वह अपनी अन्तः चेतना की आवश्यकता से प्रेरित होकर अभीष्ट साथी को तलाश करता है और जहाँ माता का डिंबाणु होता है वहाँ दौड़कर उसके चरणों में अपना मस्तक भुकाकर आत्म-समर्पण करता है।

लक्ष्य के लिए समर्पित मनुष्य महामानव बनता है साथी के प्रति समर्पण करने वाले, गृहस्थ स्वर्गीय आनन्द की अनुभूति करते हैं। आत्मा को परमात्मा में-व्यक्ति को समष्टि में घुला देने वाले जीवन का लक्ष्य प्राप्त करते हैं। जो अपने अहं को सीमित बनाये रहा, संकीर्णता की लौह शृंखला में जकड़े, रहा उसके भाग्य में तुच्छ कूप मण्डूक रहकर-जोहड़ का सड़ा पानी बनकर किसी प्रकार सांसें पूरी कर लेना ही बदा है। पर जिसने उच्च आदर्श सामने रखने का निश्चय किया उसके लिए समर्पण का ही एकमात्र मार्ग है। बीज अपनी सत्ता भूमि को समर्पित करता है और वृक्ष बनकर उगता है। शुक्राणु को मनुष्य जैसा विकसित प्राणी बनने के लिए डिम्बाणु को अपना समर्पण प्रस्तुत करना पड़ता है। उसका यह उदार साहस ही उसे विकास की अगली भूमिकाएँ प्रस्तुत कर सकने योग्य बनाता है।

इस नतमस्तक शुक्राणु की माँग पर दया करके डिम्ब उसे अपनी शरण में ले लेता है, गोदी में बिठा लेता है। इसी आत्मसात की क्रिया निषेचन कहते हैं। गर्भोत्पत्ति का यही प्रथम प्रयास है।

शुक्र और डिम्ब जब दोनों मिलते हैं तो दोनों की पूर्व सत्ता-पूर्व उन दोनों का अपना-अपना स्वरूप, कलेवर था, पर अब निषेचन के बाद उस पूर्व स्थिति का पूर्णतया समापन हो जाता है। दोनों की एक सम्मिलित स्वतन्त्र स्थिति बनती है। दो मिलकर सदा के लिए अविच्छिन्न रूप से एक हो जाते हैं। इससे पूर्व शुक्राणु को डिम्बाणु तक पहुँचने में इतनी लंबी यात्रा करनी पड़ती है जिसे एक मनुष्य द्वारा पूरी पृथ्वी की यात्रा करने जितना नापा जा सकता है। इस यात्रा पर स्खलन के समय लाखों शुक्राणु अभीष्ट मनोरथ की पूर्ति के लिए निकलते हैं, पर उनमें से सफल कोई एक ही भाग्यशाली होता है शेष तो उस लम्बी और कष्ट साध्य यात्रा को पूरा करते-करते ही अपना दम तोड़ देते हैं।

दो सहधर्मियों का, सहकर्मियों का मिलन यदि किसी महत्वपूर्ण उद्देश्य के लिए हुआ हो तो उसकी प्रगति देखते ही बनती है। शुक्र और डिम्ब दोनों का मिलकर बना हुआ कमल मुश्किल से बाल की नोंक की बराबर होता है, पर उनका प्रबल प्रयास और प्रगति क्रम तो देखिये। वह एक महीने के भीतर ही अपने प्रथम आकार की तुलना में 50 गुना और वजन में 8000 गुना बढ़ जाता है। वह चौथाई इञ्च का बुलबुला यदि परीक्षण विश्लेषण की मेज पर रखा जाय तो आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। उसके सिर, धड़ को देखा जा सकता है। पैर पूँछ की तरह होते हैं, हाथ तो साफ नहीं होते, पर हृदय धड़कता हुआ और नसों में रक्त चक्कर लगाता हुआ देखा जा सकता है। निषेचन के समय दो जीवाणु मिलकर एक जरूर हुए थे पर उनकी इस एकता ने अनेकता का उत्पादन तत्काल आरम्भ कर दिया होता है। एक से दो-दो से चार-चार से आठ का क्रम बनाती हुई लाखों कोशिकाएँ बनकर तैयार हो जाती हैं ताकि उनके सहारे शरीर के विभिन्न अवयवों का ढाँचा खड़ा हो सके।

सहकारिता की शक्ति कितनी बड़ी होती है इसका प्रथम परिचय मनुष्य को गर्भाशय में प्रवेश करते ही प्रकृति करा देती है। यदि भ्रूण में बुद्धि रहती होगी तो वह मानवी प्रगति के इतिहास पर दृष्टि डालकर इसी निष्कर्ष पर पहुँचता होगा कि बुद्धि के आधार पर नहीं, मनुष्य अपनी सहयोगी विशेषता के कारण ही उस स्थिति में पहुँचा है जिसमें आज है। बुद्धि ने सहकारिता की शिक्षा नहीं दी। वह तो अभी भी स्वार्थपरता और व्यक्तिवाद का समर्थन करती है। प्रगति का मूल सहकारिता की वृत्ति है जिसने बुद्धि समेत अनेकानेक विभूतियाँ उसे प्रदान की हैं। शुक्राणु और डिम्बाणु का परस्पर सहयोग-समर्पण उनके मिलन संगम को कितना शक्तिशाली बनाता है कि एक नई सत्ता का अवतरण प्रत्यक्ष बन जाता है।

माता के शरीर में रहने वाला रक्त, माँस काफी भारी होता है। भ्रूण उतना भारी आहार पचा नहीं सकता। इसलिये उसे अपने चारों ओर एक परत चढ़ानी पड़ती है जो गर्भाशय में उपलब्ध सामग्री में से छना हुआ पोषक पदार्थ ही भ्रूण तक जाने देती है इस भक्षणशील परत को ‘ट्रोफोब्लास्ट’ कहते हैं। माता और बालक के बीच आदान-प्रदान का यही पर्दा महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादन करता है। आक्सीजन और रसायन मिश्रित जल इसी में होकर पहुँचता है। बात इतने से ही समाप्त नहीं होती, भ्रूण मल भी बनता है। यह परत उस मल को बाहर लाती है और माता के रक्त में धकेल जाती है। उसकी सफाई माता के रक्त को अपनी निज की सफाई के साथ-साथ ही करनी पड़ती है।

संसार में बहुत कुछ है वह सभी अपने खाने, निगलने के लिये नहीं है। उसमें से उतना ही ग्रहण किया जाना चाहिए जो अपने लिये नितान्त आवश्यक हो। गर्भस्थ शिशु की चेतना इस तथ्य को जानती है। तभी वह माता के शरीर सागर में से एक स्वल्प मात्रा ही स्वीकार करती है। मानव जीवन की यही नीति होनी चाहिए, उसे उपभोग में न्यूनतम ग्रहण करना चाहिए और शेष को संसार की प्रगति समृद्धि के लिये छोड़ना चाहिए। यदि अनावश्यक को ग्रहण किया जायगा तो अपने लिये विपत्ति ही बनेगी।

आत्म-शोधन की नीति आरम्भ से ही बनती है। उत्पन्न होने वाले मल-विकारों को हटाना, शरीर के लिये ही नहीं मन के लिये भी-मन के लिये ही नहीं समग्र चेतना के लिए आवश्यक है। भ्रूण मल उत्पन्न करता है और त्यागता है। यह क्रिया यदि सदैव चलती रहे तो पेट, मस्तिष्क और भाव क्षेत्र में मलावरोध की विपत्ति उत्पन्न न हो।

लोग ऐसा सोचते हैं कि माता का रक्त ही भ्रूण की नसों में घूमता होता है। बात ऐसी बिलकुल नहीं है। बच्चे का रक्त अपना स्वतन्त्र होता है। यह बात दूसरी है कि उसके लिए निर्माण सामग्री माता के शरीर में से ली गई है।

माता के शरीर की हलचलें बच्चे को कष्ट न पहुँचाये इस प्रयोजन के लिए भ्रूण एक जलीय जाकेट पहन लेता है। चूँकि बच्चा अब पढ़ने लगा है और उस पर माता के पेट के अवयव दबाव डाल सकते हैं। चलने-फिरने, दौड़ने, उलटने-पलटने की क्रिया भ्रूण को झटका दे सकती है इसलिये यह सुरक्षात्मक जाकेट बहुत ही कारगर होती है। दूसरे महीने गर्भ को इस

कवच को धारण किये देखा जा सकता है मानो किसी बड़े युद्ध की तैयारी के लिये उसने अपने आपको भली प्रकार सुसज्जित कर लिया हो।

स्वावलंबन अपनी सतर्कता से आत्म-रक्षा की शिक्षा जन्म लेने के पश्चात् नहीं, विकास काल के आरम्भ में ही सीखनी पड़ती है। प्रकृति उसे यही सिखाती है। माता अनुदान भर दे सकती है, पर उस अनुदान से लाभ उठाना न उठाना पूर्णतया चेतन प्राणी के अपने हाथ में है। भ्रूण अपनी स्वतन्त्र क्रियाशीलता का परिचय देता है और आत्म-रक्षा के उपकरणों से सुसज्जित होता है। यदि उसे जन्म लेने के बाद भी प्रगति अभीष्ट हो तो इसी नीति का सदा ही अवलम्बन करते रहना होता है।

हृदय और मस्तिष्क यह दो अवयव मानव शरीर में अति महत्वपूर्ण हैं। तीसरे महीने इनका विकास शुरू हो जाता है। आरम्भ में वे सर्वथा अविकसित होते हैं उनके कलपुर्जे न तो स्पष्ट होते हैं और न पूर्णतया गतिशील। हाँ उनमें स्पन्दन, ऐंठन, हलचल जरूर हो रही होती है। यही है वह क्रिया जिससे इन अविकसित अवयवों को आगे चलकर अपना स्पष्ट और समर्थ रूप धारण करना है। आंतें एक अनगढ़ रस्सी की तरह होती हैं, पर उनमें हलचल उस अनुपात में हो रही होती है जो पूर्ण मनुष्य की हलचलों से हजार गुनी अधिक गतिवान कही जा सके।

गर्भस्थ शिशु चुपचाप नहीं बैठा रहता, उसे घोर प्रयत्न रत रहना पड़ता है। शरीर के भीतरी और बाहरी कलपुर्जे द्रुतगति से सचेष्ट होते हैं। यह उस अदृश्य जीव सत्ता की प्रेरणा है जो जानती है कि विकास घोर और अनवरत पुरुषार्थ पर ही टिका हुआ है। इसमें उपेक्षा करने पर वह वरदान नहीं मिल सकता जो मानवी कलेवर में अवतरित होने के लिये उसने चाहा है।

एक महीने का भ्रूण एक इञ्च के दशवाँश जितना लम्बा होता है उसका सिर धड़ और पूँछ देखी जा सकती है। इस स्थिति में ही उसके हृदय और मस्तिष्क बनने शुरू हो जाते हैं और फेफड़े तथा आँतें अपना रूप प्रकट करने लगते हैं।

गुर्दे बनने का कार्य देखते ही बनता है। भ्रूण अपनी आवश्यकतानुसार उन्हें कई बार तोड़-फोड़कर नई आकृतियों में परिवर्तित करता है। आरम्भिक गुर्दा मछली के गुर्दे जैसा-पीछे मेढ़क जैसा बनता है। मनुष्य जैसा गुर्दा बनने में उसे कई मंजिलें पार करनी पड़ती हैं और कई ढाँचे तोड़-मरोड़ करके उपयोगी यन्त्र गढ़ना पड़ता है। रेल का इंजन पहले पहल कैसा बना था और पीछे उसमें क्या-क्या सुधार होते आये और अब इन दिनों उसका कितना सुधरा हुआ रूप उपलब्ध है इसका इतिहास क्रमबद्ध रूप से सामने रखा जाय तो वह गर्भस्थ बालक के गुर्दों के विकास क्रम से अधिक आश्चर्यजनक न लगेगा।

एक महीने की आयु का भ्रूण चौथाई इञ्च लम्बा-एक छल्ले की तरह मुड़ा सिकुड़ा-ऊपर एक गोली (भावी शिर) नीचे पूँछ (भावी पैर) छोटी सी गरदन उसके दोनों ओर चार दरारें। बस यही है वह आरम्भ जिसे आगे चलकर पूर्ण मनुष्य के विकसित रूप में परिणित होना है।

दूसरे महीने में प्रवेश करने और उसे पूरा करने की अवधि में भ्रूण के प्रगति क्रम में कमी नहीं वरन् बढ़ोतरी ही होती है। उसकी लम्बाई पहले महीने की तुलना में छह गुनी और वजन 500 गुना बढ़ता है। अब उसमें हड्डियों तथा माँस पेशियों की निशानियाँ देखी जा सकती है। आँख, कान, नाक, मुँह आदि ज्ञानेन्द्रियों के निशान देखे जा सकते हैं। यद्यपि वे स्पष्ट नहीं होते तो भी यह समझा जा सकता है कि निकट भविष्य में यहाँ क्या उत्पादन और क्या निर्माण होने जा रहा है। रीढ़ की हड्डी भी इसी अवधि में बन आती है जिनके माध्यम से तन्त्रिकाओं तथा हड्डियों का ढाँचा उसके साथ जुड़ने जा रहा है।

तीसरे महीने वह भिन्नताएँ पैदा होती हैं जिनके आधार पर उसका लिंग भेद किया जा सकता है। दो महीने की अवधि में लिंग भेद पहचान कराने वाला कोई लक्षण प्रकट नहीं होता। इससे पूर्व भ्रूण में उभय लिंगी लक्षण होते हैं। तीसरे महीने जब एक दिशा विशेष में परिवर्तन होता है तो एक लिंग के लक्षण क्षीण होने लगते हैं। यद्यपि उन दोनों की पूर्ण समाप्ति कभी भी नहीं होती। नर और नारी के चिन्ह हर मनुष्य में बने रहते हैं। इनमें से जो पक्ष विकसित होने लगेगा उसी की प्रमुखता हो जायगी और दूसरा पक्ष समाप्त तो नहीं होगा, पर सुषुप्त अवस्था में जा गिरेगा। जीव तत्वतः किसी लिंग का नहीं। मनुष्य भी नहीं। जीवधारियों में अनेक प्राणी ऐसे हैं जो आवश्यकतानुसार अपना लिंग बदलते रहते हैं अथवा उभय लिंगी हैं। मनुष्य भी उन्हीं में से एक हैं। वंश परंपरा के अनुसार नर और नारी की मिश्रित विशेषताएं उसमें विद्यमान हैं। तीसरे महीने एक पक्ष का पलड़ा भारी होने लगता है और एक का ऊपर उठने लगता है। इस असन्तुलन से ही भ्रूण को नर या नारी बनने के प्रवाह में बहना पड़ता है और तद्नुरूप अपनी अनेक विशेषताओं में हेर-फेर करना पड़ता है।

जीवन के इन आरम्भिक दो महीने में जीव को इतना घोर परिश्रम और इतना अद्भुत विकास करना पड़ता है जितना वह गर्भावस्था के शेष 7 महीनों में तो क्या सारे जीवन भर में नहीं करने पाता। यद्यपि देखने में यह दो महीने किसी परख पहचान के अनुसार विशेष महत्वपूर्ण नहीं मालूम-पड़ते।

बुद्धि और विकास का क्रम अब अधिक स्पष्ट दिखाई पड़ता है। तीसरे चौथे महीने में वह सबसे अधिक वृद्धि गत पर होता है इसी अवधि में वह छह से आठ इंच तक का हो जाता है। जन्म के समय की लम्बाई का यह आधा भाग है।

प्राणी की प्रकृति उसके आरम्भिक समय में ही यह बता देती है कि पुरुषार्थ की सम्भावनाएँ असीम हैं। उस पर कोई अंकुश नहीं और कोई अनुपात नहीं। साधन स्वल्प हों तो चिन्ता की कोई बात नहीं उत्कृष्ट चेष्टा में वह जादू भरा पड़ा है कि साधन कहीं से भी इकट्ठे कर लेती है- अनुकूलताएँ, सहायताएँ कहीं से भी आकर्षित होती चली आती हैं। गर्भस्थ बालक भौतिक दृष्टि से असहाय, अपंग और अभावग्रस्त परिस्थिति में ही होता ह, पर उसके अपने प्रयत्न कितने अधिक कारगर होते हैं-उसे कितनी अदृश्य सहायता मिलती है इसका परिचय उसे तीन मास का भ्रूण होने तक भी भली प्रकार सिखा दिया जाता है। पुरुषार्थ क्रम जितना तीव्र होगा अदृश्य अनुदान की सम्भावना उतनी ही प्रशस्त होती चली जायगी।

सिर बड़ा, धड़ चौड़ा और टाँगे बहुत पतली बहुत छोटी यही है भ्रूण का स्वरूप। दो महीने में सिर सारे शरीर का आधा भाग-तीसरे से पांचवें महीने तिहाई और उससे अगले महीनों में वही चौथाई रह जाती है। विकसित मनुष्य का शिर उसके समूचे शरीर की तुलना में मात्र दसवाँ भाग होता है। विकास का प्रधान साधन मस्तिष्क है। बल की अधिकाँश सम्भावना मनःक्षेत्र में रहती है। इसलिए उसे जन्म काल से ही बड़े अनुपात का मस्तिष्क मिलता है। मानसिक विकास की उपेक्षा करके पदार्थों से खेलने में लग जाने पर जन्म लिया हुआ मनुष्य उतने लाभ नहीं उठा पाता जितना कि मस्तिष्कीय अभिवृद्धि के कारण उसे गर्भ काल में मिलते हैं।

गर्भस्थ बालक चुपचाप नहीं बैठा रहता। शुक्राणु से भ्रूण बनने में सफलता प्राप्त करने के लिए उसने जो प्रबल पुरुषार्थ किया था वह कायवृद्धि के साथ-साथ और भी प्रबल होता जाता है। वह हिलता-डुलता है, शरीर को तानता है हाथ पैर फैलाता है। इन सब हलचलों को माता इस तरह अनुभव करती है मानो कोई जीवित पक्षी उसे पेट में बैठा हुआ पंख फड़फड़ा रहा हो। नव जीवन प्राप्त करने के लिए यह उसका प्रबल प्रयास है जो उसकी सामर्थ्य को देखते हुए किसी भी प्रकार नगण्य नहीं कहा जा सकता।

जन्म देती तो माता ही है, पर उसके लिए पूर्व तैयारी बालक ही करता है। वह व्यायामशाला में अभ्यास करने वाले पहलवान की तरह उदर से बाहर निकलने के छोटे-बड़े अभ्यास करना पाँच मास का गर्भ बनने से पूर्व ही आरम्भ कर देता है।

पांचवें महीने बसी ग्रन्थियाँ स्वेद ग्रंथियां, बनती हैं-त्वचा अपने परत ठीक करती है। फुट भर लम्बा एक पौण्ड भारी होते हुए भी वह इस योग्य नहीं होता कि पेट से बाहर के वातावरण में फैले हुए विकिरण को सहन कर सके। यदि इसी स्थिति में उसका जन्म हो जाय तो कुछ ही साँस ले सकेगा दो चार बार ही हाथ पाँव हिला सकेगा, शायद एकाध हलकी चीख मुख से निकले बस इतना भर करके यह ठण्डा हो जायगा। बाह्य जगत की परिस्थितियों में जूझने की क्षमता उसमें अभी तक उत्पन्न नहीं हुई होती। छह महीने का बालक इससे सुदृढ़ हो सकता है।

सातवें महीने वह अपना विकास इस सीमा तक कर चुका हाता है कि जन्म लेने के बाद जीवित रह सके। अगले दो महीने उसके परिपक्व होने के लिए हैं। इस अवधि में वह वे सब अभ्यास कर लेता है जो उसे जन्म लेने के उपरान्त करने पड़ेंगे माँस पेशियों का सिकुड़ना, फैलना, रक्त संचार, श्वास, प्रश्वास आदि हलचलें जो जीवित रहने के लिए आवश्यक है वे इन दिनों होने लगती है और उनका अभ्यास क्रमशः परिपक्व होने लगता है। इन महीनों में उसे कभी सक्रिय कभी निष्क्रिय देखा जा सकता है। मानो वह रुक-रुक कर व्यायाम कर रहा हो।

सामान्यतया ऋतु स्राव के अन्तिम दिन 280 वें दिन जनम लेने का उपयुक्त समय होता है। यों यह कोई अनिवार्य नियम नहीं है। एक दो सप्ताह इसमें घट-बढ़ भी हो सकती है। प्रकृति उसे बन्धन मुक्त तब तक करती है जब वह अपनी परिपक्वता प्रमाणित कर देता है। 280 दिनों में उसे यही परीक्षा उत्तीर्ण करने की तैयारी करनी पड़ती है।

जन्म लेते ही बालक हाँफता है, फेफड़ों में हवा भरता और निकालता है यह क्रिया उसके चीखने, चिल्लाने के रूप में सुनाई पड़ती है। बाहरी दुनिया और भीतरी दुनिया का जो अपरिचित अन्तर है उसी की प्रतिक्रिया में बालक का हर अंग संघर्षरत दिखाई पड़ता है। हाथ पैर फैंकने, रोने चिल्लाने के साथ-साथ उसके भीतरी और बाहरी अंग सभी अत्यन्त गतिशील होते हैं मानो वे अनभ्यस्त और अपरिचित परिस्थितियों का सामना करने के लिए अपने आपको सक्षम बना रहे हों॥

अब तक बालक पराधीन था परमुखा पेक्षी थी और पराश्रित। माता से उसे सभी प्रकार का पोषण मिलता था, अब उसे स्वतन्त्र इकाई के रूप में अपने अस्तित्व की रक्षा करने के लिए अपना उत्तरदायित्व आप बहन करना है। इसकी घोषणा गर्भ रज्जु काट कर ली जाती है। अब माता और बालक का सम्बन्ध एक प्रकार से कट गया ही समझा जा सकता है। बंधन कटने पर ही स्वतन्त्र सत्ता के प्रकटीकरण का अवसर मिलता है।

जन्म लेते ही बालक अपने आपको द्रुतगति से विकसित करता है आरम्भ में उसके फेफड़े छोटे, सघन और ठोस होते हैं, पर थोड़ी सी सांसें ही उन्हें शहद की मक्खी के छत्ते की तरह फुला देती है। उनके हलके स्पंजनुमा कितने ही छोटे-छोटे वायु कोष्टक बन जाते हैं और अपना काम करने लगते हैं। यों नियमित साँस लेने के अभ्यास में कई दिन लग जाते हैं।

छोटा-सा हृदय धीरे-धीरे धड़कना आरम्भ करता है और फिर अपनी रफ्तार पकड़ लेता है। आँतों में जो मल जमा होता है वह टट्टी के रास्ते निकल जाता है, मुख में लार ग्रन्थियाँ तो होती हैं, पर स्राव रहित, आँखों में अश्रु ग्रन्थियाँ भर होती हैं, पर रोते समय आँख से नहीं टपकते। यह विकास धीरे-धीरे होता है। आंखें प्रकाश और अन्धकार का अन्तर तो समझती हैं पर उनके कोष्टक इस योग्य नहीं होते कि कोई सही फोकस बनाकर उसकी अनुभूति मस्तिष्क को करा सके।

प्रकृति इतनी समस्त क्रियाएँ हर नवजात बालक को समान रूप से सिखाती है। इन समान रूप में सीखे गये पाठों में से कौन कितने याद रखता है और कौन कितने भुला देता है यही है वह रहस्य जिसके आधार पर मनुष्य की अपनी स्वतन्त्र प्रगति करने का अथवा अवनति के गर्त में जा गिरने का अवसर मिलता है।


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