उत्पादक संघर्ष नहीं सहयोग ही है

June 1975

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

संघर्ष और दुर्घटना मात्र है। जो अनावश्यक विकृतियाँ अथवा अवाँछनीय, असावधानियाँ एकत्रित होने के फलस्वरूप ही प्रस्तुत होती हैं। अनौचित्य की प्रतिक्रिया को संघर्ष कहा जा सकता है। यह प्रकृति नहीं विकृति है। सृष्टि संचालन प्रकृति करती है, विकृतियाँ तो केवल अवरोध उत्पन्न करती हैं। इसलिये उन्हें हटाने के लिए संघर्ष की आवश्यकता पड़ती है। इन्हें अपवाद कह सकते हैं। अवरोध सामान्य प्रवाह में व्यतिरेक उत्पन्न होने का काम है। व्यतिरेक सृजनात्मक उद्देश्य पूरा नहीं करते, उनसे सतर्कता की तीक्ष्णता भर पैदा होती है। शान चढ़ाने वाला पत्थर तलवार का प्रयोजन पूरा नहीं करता। तलवार तो मजबूत लोहे से बनती है। पत्थर तो धार तेज करने के काम भर आता है। संघर्ष को अधिक से अधिक धार तेज करने वाले पत्थर की संज्ञा दी जा सकती है।

सहयोग वह तथ्य है जिस पर प्रगति की समस्त सम्भावनाएँ आधारित हैं। मानव जाति की प्रगति का इतिहास यदि एक शब्द में कहना हो तो उसे पारस्परिक सहयोग ही कह सकते हैं। दुर्बलकाय एक बन्दर-वंशीय नगण्य से प्राणी को सृष्टि का मुकुट-मणि बना देने का श्रेय उसकी सहकारी मनोवृत्ति को ही दिया जा सकता है। यों लोगों को यह कहते भी सुना जाता है कि मनुष्य की बुद्धिमत्ता, मननशीलता ने उसे प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाया है पर यह बात सही नहीं है। तथ्य यह है कि सहयोग के आधार पर एक दूसरे के साथ घनिष्ठता स्थापित करते हुए पारस्परिक आदान प्रदान का क्रम चला और उससे मस्तिष्कीय विकास का द्वार खुला।

बोलना, सोचना, पढ़ना, लिखना, कृषि, पशुपालन, अग्नि उपयोग, उपकरण निर्माण, वस्त्राच्छादन आदि उपलब्धियों को प्रगति का आरम्भिक चरण माना जाता है, इन्हीं सीढ़ियों पर चढ़ते हुए मनुष्य ने आगे बढ़ने और ऊँचे उठने की राह पाई है। यह सब किसी एक मनुष्य के प्रयास का फल नहीं है। इसमें सहस्रों वर्ष लगे हैं और एक के अनुभव का दूसरे ने लाभ उठाया है। एक की उपलब्धियाँ दूसरे ने सीखी हैं और जो मार्ग मिला उस पर क्रमशः आगे कदम बढ़ाया है। आज हम जहाँ हैं वहाँ तक पहुँचने की लम्बी मंजिल इसी प्रकार पार हुई हैं।

परिवार निर्माण की सारी आधार शिला पारस्परिक सहयोग पर रखी हुई है। पति-पत्नि के बीच सन्तान-अभिभावक के बीच, भाई-बहिन के बीच जो घनिष्ठता पाई जाती है, उसमें स्वार्थ साधन की मात्रा स्वल्प और एक दूसरे के साथ उदार सहयोग करने की मात्रा अधिक रहती है। यदि ऐसा न होता स्वार्थ सिद्धि की ही प्रधानता रहती तो वे सम्बन्ध क्षणिक रहते और तात्कालिक स्वार्थ सिद्ध होते ही बिखर जाते। निम्नकोटि के प्राणियों में ऐसा ही होता है। उनका पारिवारिक सहयोग अत्यन्त स्वल्प रहता है। कामोन्माद के कारण नर मादा कुछ ही क्षणों के लिए पति-पत्नी बनते हैं और वह आवेश उतरते ही दोनों अपरिचित बन जाते हैं। तनिक-सा स्वार्थ व्यवधान पड़ने पर इस क्षण के पति-पत्नि अगले ही क्षण एक दूसरे पर प्राण घातक आक्रमण करने में नहीं चूकते। सन्तान को मादा सम्भालती है और वह भी तब जब तक वह अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो जाता है। इसके बाद जब बच्चा स्वावलम्बी हो जाता है तो न माता को सन्तान से स्नेह रहता है और न सन्तान माता से कोई रिश्ता रखती है। बाप सन्तान पालन में यत्किंचित् ही सहयोग देता है। माता को प्रकृति ने यह क्षणिक वात्सल्य इसलिए दिया है कि उस प्राणी का वंश नष्ट न होने पावे। विवेकपूर्ण सहयोग के आधार पर इन प्राणियों का परिवार नहीं बनता यदि बना होता तो उसमें स्थिरता और सघनता का क्रम आगे ही चलता रहता। पर वैसा प्रायः देखने में नहीं आता। प्रायः इसलिये कहा गया है कि कुछ प्राणी सहयोग भावना से युक्त भी पाये जाते हैं और उससे अपनी सुरक्षा का लाभ लेते हैं। किन्तु इन्हें अपवाद ही करना चाहिए।

मनुष्य की विशेषता उसकी सहयोग परक सत्प्रवृत्ति ही है। उसी ने परिवार बसाये। उनमें सरसता और उदारता का समावेश किया। इससे कुटुम्ब का छोटा बड़ा हर सदस्य लाभान्वित हुआ। यह प्रवृत्ति आगे चलकर सामाजिकता के रूप में विकसित हुई। समाज व्यवस्था-शासन व्यवस्था की संरचना परिवार पद्धति की आचार संहिता के आधार पर ही बन सकी है। अर्थ तन्त्र का पूरा ढाँचा सहकारिता ही है। वस्तुओं का उत्पादन और विनिमय वितरण क्रम ही धीरे-धीरे वर्तमान अर्थव्यवस्था तक बढ़ता आया है। शिल्प, चिकित्सा, शिक्षा, कला-कौशल और विज्ञान के लम्बे चरण यकायक नहीं उठे हैं। अमुक आविष्कार का श्रेय अमुक व्यक्ति को मिला यह दूसरी बात है पर वस्तुतः सफल आविष्कार की पृष्ठभूमि बहुत पहले से ही बनने लगी थी और उसमें अनेकों का चिन्तन एवं प्रयास जुड़ते हुए वह आधार बन सका था जिसके सहारे उसे अन्तिम रूप से उद्घोषित किया गया। धर्म, दर्शन, अध्यात्म जैसी उच्चस्तरीय भावनात्मक चेतनाएँ किसी एक व्यक्ति की कृति नहीं है। इनके क्रमिक विकास में अनेकानेक पीढ़ियों की सहस्राब्दियां नियोजित हुई है। यह सब सहयोग का ही परिणाम है।

एकाकी मनुष्य को आज की परिस्थितियों में ठीक तरह जीवित रह सकना तक कठिन है। भोजन वस्त्र, निवास, शिक्षा, चिकित्सा जैसी प्राथमिक आवश्यकताओं के लिए उसे दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। इस माने में पशु-पक्षी भाग्यवान हैं जो अपने आहार-बिहार के साधन अभी भी प्रकृति से सीधी तरह प्राप्त कर लेते हैं। मनुष्य के लिए अब यह भी सम्भव नहीं रहा। कोई अपने लिए अन्न उपार्जित करना भी चाहे तो उसे कृषि उपकरणों के लिए दूसरों पर निर्भर रहना होगा। वस्त्रों के लिये कपास उगाना, कातना, बुनना, सीना किसी एक आदमी के लिए सम्भव नहीं। इसके लिए जिन साधनों एवं अनुभवों की आवश्यकता है उन्हें कोई अकेला व्यक्ति किस तरह जुआ सकेगा। बिना पढ़ाये कोई किस तरह अपने आप पढ़ सकता है? जो बहरे होते हैं उन्हें गूँगा भी रहना पड़ता है क्योंकि वाणी हमारी उपलब्धि नहीं है। भाषा ज्ञान तो दूसरों से सुनकर नकल करने के रूप में ही उपलब्ध किया जाता है। उसका अवसर न रहे तो पशु-पक्षियों की तरह एकाकी मनुष्य के लिए भी वार्तालाप कर सकना सम्भव न होगा।

दैनिक जीवन में कितनी ही आवश्यकताएँ ऐसी पड़ती हैं जो सरलतापूर्वक पूरी होती रहने से तुच्छ प्रतीत होती हैं, पर वे हैं अत्यन्त महत्वपूर्ण। यातायात के वाहन और मार्ग पारस्परिक सहयोग से ही बने हैं। औषधियाँ, पुस्तकें हमारे आपने अन्वेषण अथवा निर्माण से नहीं बनी हैं। बटन से लेकर माचिस तक सहस्रों वस्तुएँ हैं जो रोज ही प्रयोग में आती हैं। यदि पिछली पीढ़ियों से पारस्परिक सहयोग द्वारा निर्माण एवं अन्वेषण प्रक्रिया अनवरत रूप से न चली आती तो हमें इन छोटी किन्तु आवश्यक वस्तुओं से वंचित रहना पड़ता। तब निश्चय ही हम अब की अपेक्षा कहीं अधिक असुविधाओं और कठिनाइयों में पड़े हुए पिछड़ा हुआ अनगढ़ जीवन जी रहे होते।

आज की हमारी प्रायः सभी आवश्यकताएँ आकाँक्षाएं यह अपेक्षा करती हैं कि दूसरों का समुचित सहयोग प्राप्त हो। यदि वह उपलब्ध न होगा तो कोई कितना ही बुद्धिमान या साधन सम्पन्न क्यों न हो एक कोने में पड़ा सड़ता रहेगा। व्यापार द्वारा धन उपार्जन तभी सम्भव है जब ग्राहकों का उदार सहयोग व्यापारी को मिलता रहे। वकील, डाक्टर, कलाकार, शिल्पी एकाकी बैठे-बैठे मक्खियाँ ही मारते रहेंगे। उनके गुणों से लाभ लेने वालों की शृंखला जितनी बड़ी होगी उतनी ही सफलता उन्हें मिलेगी। संघ शक्ति को इस युग की सबसे बड़ी शक्ति माना गया है। पारस्परिक सहयोग के आधार पर मिल-जुलकर किये गये काम चाहे वैयक्तिक लाभ के हों अथवा सामूहिक लाभ के क्रमशः सफल ही होते चले जायेंगे। सहकारिता की कड़ी जहाँ जितनी शिथिल होगी वहाँ का चरखा निश्चित रूप से लड़खड़ा रहा होगा।

अपने चारों ओर घिरी समस्याओं के सुलझाने के लिये हमें सहयोग का अधिकाधिक सम्पादन करना चाहिए। अपनी शक्तियों के बिखराव को समेट कर एक केन्द्र पर इकट्ठा करना चाहिये और उन्हें अभीष्ट प्रयोजन में नियोजित करना चाहिए। श्रम और मनोयोग में समुचित सहयोग बनता चले तो प्रगति की ओर दूनी चौगुनी गति से बढ़ चलना सम्भव हो सकता है। अधूरा श्रम अर्थात् आलस्य अधूरा मनोयोग अर्थात् प्रमाद। यही दो प्रधान व्यवधान हैं जो असफलताओं और विपन्नताओं के लिए प्रधान रूप से उत्तरदायी है।

दाम्पत्य-जीवन की सफलता पति-पत्नि के सहयोग अनुपात पर टिकी हुई है। परिवार के सदस्यों में जितना घनिष्ठ सहयोग और ताल-मेल रहेगा, उतना ही उन सबको सुखी रहने और समुन्नत बनने का अवसर मिलेगा। मजूर और मालिक जहाँ जितने अधिक सहयोग से काम कर, रहे होंगे वहाँ उतना ही अधिक लाभ मिल रहा होगा। सरकारी समितियों के माध्यम से यदि उत्पादन एवं उपभोक्ता दोनों ही लाभान्वित होंगे। संस्था संगठनों के माध्यम से वर्ग विशेष के अधिकारों की रक्षा जैसी अच्छी तरह हो सकती है वैसी अलग-अलग रहने और अपनी ढपली अपना राग अलापने से सम्भव नहीं। वाद्य-यन्त्रों का साज जब एक ताल ध्वनि में बजता है तो उसे सुमधुर संगीत कहा जाता है। यदि हर बाजा अपना-अपना अलग-अलग स्वर निकाले तो उससे कर्ण कदु कोलाहल ही उत्पन्न होगा। बुहारी में बँधी हुई सींकें ही घर, आँगन साफ करती हैं। एक-एक सींक अलग रहे तो उनसे कुछ काम बनता तो दूर उलटे अस्तित्व ही संकट में पड़ा रहेगा। धागे मिलकर वस्त्र बनते हैं अलग रहकर तो वे टूटते ही रहेंगे। सूत्र में बँधे हुए मन के ही माला के रूप में सम्मानास्पद होते हैं बिखर जाने पर तो उनकी स्थिति दयनीय ही हो जायेगी।

हमें अपने में उस प्रतिभा एवं कोमलता का विकास करना चाहिए जिसके आधार पर दूसरों का हृदय जीतना और उन्हें अपना घनिष्ठ सहयोगी बना सकने सम्भव हो सके। कोई किसी को न तो अनायास ही सहयोग देता है और न अकारण द्वेष करता है। अपनी प्रकृति एवं प्रवृत्ति ही दूसरों पर भली-बुरी छाप छोड़ते हैं। उस प्रतिक्रिया से प्रेरित होकर ही लोगों का व्यवहार, मित्रता एवं शत्रुता का बनता है। अपना स्तर जिस प्रकार का होगा उसी स्तर के लोग संपर्क में आवेंगे-घनिष्ठ बनेंगे और उस परिकर के द्वारा जिस प्रकार का वातावरण बन सकता है, उसी प्रकार का अपने इर्द-गिर्द बनेगा। कहना न होगा कि यह संपर्क मण्डल ही हर व्यक्ति के जीवन में भली-बुरी भूमिकाएँ प्रस्तुत करता है। अपने विकास की बात सोचते हुए हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि अभीष्ट सहयोग का संचार कर सकने योग्य विशेषताएँ अपने व्यक्तित्व में समाहित करनी ही होगी। प्रगति का प्रथम प्रयास यही आरम्भ किया जाना चाहिये।

संघर्ष को इन दिनों बहुत महत्व दिया जाता है लड़-झगड़ कर अपना अभीष्ट लाभ प्राप्त करने की बात सोची जाती है। गुण्डागर्दी और आतंकवाद के आधार पर जल्दी अधिक लाभ मिलने की बात सूझती है और लड़ाकूपन का परिचय देकर शूर वीर कहलाने की इच्छा रहती है। वहाँ ध्यान रखने की बात इतनी है कि लड़ाई अपवाद है आवश्यकता नहीं। उसी उपयोगिता उतनी ही है जितनी आटे में नमक। अवाँछनीय परिस्थितियों से निपटने के लिए उसे कभी-कभी हो काम में लाने की आवश्यकता पड़ती है और पड़नी चाहिए। यदि यह मात्रा बढ़ेगी तो यह संघर्षशील सामने वाले की अपेक्षा आक्रमणकर्ता का ही अधिक अहित करेगी।

हमें अवसर आने पर लड़ने के लिये आवश्यक शौर्य, साहस भी सँजोना चाहिए और अवाँछनीयता से निपटने के लिये जितना संघर्ष आवश्यक है उसके लिए तत्पर भी रहना चाहिये किन्तु ऐसा न हो कि हम स्वभाव ही लड़ाकू, झगड़ालू बन जाय और उसी गर्व गौरव अनुभव करने की लत पड़ जाय। यह आज अपने लिये ही घातक सिद्ध होगी। प्रतिभा की इस झंझट में बर्बादी होती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118