छोटे कीड़े मकोड़ों की दुनिया हम से कम रोचक नहीं

June 1975

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कीड़े-मकोड़े हमें अपनी तुलना में दयनीय स्थिति में पड़े हुए दिखाई पड़ते, पर वस्तुस्थिति वैसी हैं नहीं। हमारी अपनी दुनिया है और कीट-पतंगों की अपनी। हमें अपनी चेतना के अनुरूप जिस दुनिया का ज्ञान एवं अनुभव है वह हमारे लिए विभिन्न प्रकार की अनुभूतियाँ और परिस्थितियाँ प्रस्तुत करती रहती हैं। हम अपनी दुनिया को जानते और समझते हैं उसे परिपूर्ण मानते हैं, जो उसमें लाभ-हानि है उन्हें ही सर्वांगीण मानते हैं, पर यह मान्यता मिथ्या हैं। वस्तुतः भगवान ने हर प्राणी का एक संसार बनाया है वह उसमें खोया रहता है और अनुभव करता है कि न केवल उसका कार्यक्षेत्र पूर्ण है वरन् उसकी चेतना भी उसके लिए पर्याप्त सुखद है। उसे जो ज्ञान मिला है वह उसके अपने संसार के साथ मनोरंजक सम्बन्ध बनाये रहने के लिए पर्याप्त है।

शरीर में अगणित जीवाणु काम करते हैं। वे जड़ नहीं है, चेतन सत्ता उनमें काम करती है। उस चेतना के द्वारा वे जीव कोष अपने निर्धारित कर्तव्यों को भली प्रकार पूरा कर लेते हैं। उपयोगी से लाभ उठाना और अनुपयोगी को मार, पछाड़ कर दूर कर देना उनका दैनिक कृत्य है। पारस्परिक सहयोग के विधान से वे पूर्ण परिचित है और उसका समुचित व्यवहार करते हैं। जन्मने, प्रौढ़ होने, मरने, पुरुषार्थ करने, सन्तानोत्पादन करने, उत्तराधिकारियों को प्रशिक्षित करने आदि का कैसा सुन्दर क्रम जीवाणु जगत में चल रहा है उसे देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। यदि हम जीवाणु होते और किसी शरीर के एक घटक बनकर रह रहे होते तो अनुभव करते कि अपना कार्य क्षेत्र इतना ही सुखद, सुन्दर एवं सुविधाजनक है जितना कि मनुष्य अपने कार्य क्षेत्र को अनुभव करता है। शक्ति और अनुभूति मनुष्य को अपने ढंग का काम चलाने के लिए मिली है और जीवाणुओं को अपने ढंग की। दोनों का निर्माण पृथक-पृथक ढंग से और पृथक-पृथक कार्यों के लिए हुआ है। अस्तु उन्हें शरीर और अनुभूतियाँ भी उसी स्तर का निर्वाह करने के योग्य मिली हैं। यदि हम जीवाणु होते तो मनुष्यों से कोई शिकायत न करते कि आप इतने सुविकसित है और हम इतने पिछड़े। हमें भी हाथी से कहाँ कुछ शिकायत है कि आपको इतना बड़ा शरीर, इतना बल मिला है, आप इतना अधिक भोजन खाते रहने में समर्थ हैं जबकि हम मुट्ठी भर अनाज भी ठीक से नहीं पचा पाते।

कीड़े-मकोड़ों की दुनिया दयनीय नहीं है। उन्हें बेचारे समझना गलत हैं। अपनी दुनिया में वे अपने ढंग का पूरा-पूरा कोशल दिखाते होंगे और उस स्थिति में सम्भवतः उतने ही रुष्ट-तुष्ट रहते होंगे जितने कि हम मनुष्य अपने कार्य क्षेत्र में उपलब्ध शरीर और मन के सहारे सुखी-दुखी रहते हैं।

मकड़ी छोटा-सा घिनौना जीव है पर उसके सम्बन्ध में उपलब्ध तथ्य काम मनोरंजक नहीं है। ब्रिटिश कीट विज्ञानी जोसेफ आरेल्ड ने हिसाब लगाया है कि उस देश के चरागाहों में प्रति एकड़ पीछे 22 लाख मकड़ियाँ रहती हैं। इनकी छोटी-बड़ी 550 किसमें गिनी जा चुकी है। उनका आधा समय शिकार पकड़ने और खाने में लगता है। वे बहुत खाती और बहुत पचाती हैं। इंग्लैंड की मकड़ियाँ जितने कीड़े खाती हैं उनका वजन उससे भी अधिक बैठेगा जितना कि उस देश में मनुष्यों का वजन है।

तपते हुए रेगिस्तानों में, हिमाच्छादित पर्वत शिखरों पर, कोयले की गहरी खदानों में, मरुस्थलों और दलदलों में, अँधेरी गुफाओं में सर्वत्र मकड़ी को अपने सुरक्षित जाल में विराजमान पाया जा सकता है।

संसार भर में 50 हजार जाति की मकड़ियाँ गिनी गई हैं, इनमें पिन की नोंक के बराबर छोटी से लेकर ‘माइगेल’ जैसी दैत्याकार सम्मिलित है। दक्षिणी अमेरिका में पाई जाने वाली माइगेल चिड़ियों, छिपकलियों, गिरगिटों, गिलहरियों और चूहे, मेंढ़कों को सहज ही उदरस्थ कर लेती है। ब्लैक विडो, शूवेटन, आवर ग्लेस जैसी मकड़ियाँ जहरीले साँपों से भी कहीं अधिक विषैली होती है।

मकड़ी के पिछले भाग में छह रस स्रावी ग्रन्थियाँ होती हैं, उसी से वे रस निकालती हैं जो सूखते-सूखते रेशम जैसा धागा बन जाता है इसी को कुशलता पूर्वक घुमा फिरा कर वे जाला बुनती हैं, जिससे वे अपने निवास, विश्राम की और शिकार पकड़ने की आवश्यकता पूरी करती हैं। नदी, नाले पार करने के लिए वे तार के पुल बनाती हैं। इसके लिए वे किसी ऊँचे पेड़ पर चढ़ जाती हैं और अनुकूल हवा की प्रतीक्षा करती हैं। अवसर मिलते ही वे तार बुनना शुरू कर देती हैं और उसी से अपने को बाँध कर पतंग की तरह उड़ती हुई इस पार से उस पार जा पहुँचती है। कुछ तो तालाबों की सतह पर अपना जाल बिछाती और भुनगे पकड़ती देखी गई है।

मादा मकड़ियाँ नर से मजबूत, बड़ी और खूँखार होती है। उनका ऋतु काल आने पर मादक गन्ध से आकर्षित होकर मकड़े निकट आते तो हैं पर अपनी जान की खैर मनाते हुए ही फूँक-फूँक कर कदम धरते हैं। दूर रहकर वे नाचते-कूदते हैं और प्रणय प्रस्ताव करते हैं। मकड़ी को प्रस्ताव स्वीकार हुआ तो उसे समीप बुलाती है और अपना काम बनाकर उस अभागे को तत्काल उदरस्थ कर लेती है। यदि प्रस्ताव स्वीकार न हुआ तो तुरन्त उसका झटका कर देती है। चतुर मकड़े छोटी मकड़ियों को पाल कर उनके युवा होने की प्रतीक्षा करते हैं इस स्नेह, सान्निध्य के सहारे वे अपनी जान बचा लेते हैं और गृहस्थ भी भोग लेते हैं।

मकड़ी का जाला संसार का सबसे मजबूत किस्म का धागा है। अमेरिका में आँखों के आपरेशन में सिलाई के लिए, इसी प्रकार से अर्जियोपे जाति की मकड़ी के जाले से बना धागा काम में लाया जाता है। आस्ट्रेलिया के आदिवासी एक बड़ी जाति की मकड़ी के जाले के मछलियाँ और चिड़ियाँ पकड़ने के कई तरह के मजबूत जाल बुनते हैं वे मुद्दतों चलते हैं और सहज ही नहीं टूटते। इस धागे की मोटाई एक इंच का लाखवाँ भाग होती है, साधारणतया जो एक धागा हमें दिखाई पड़ता है उसमें दर्जनों पतले धागे होते हैं उनसे मिलकर एक इकाई बनती है। वे परस्पर किस कुशलता के साथ काते और ऐंठे गये होते हैं यह देख कर स्तब्ध रह जाना पड़ता है। यह धागे लचकदार होते हैं और अपने आकार से सवाये खिंच कर बढ़ सकते हैं। जब कोई धागा टूट जाता है तो मकड़ी उसमें नया लस लगाकर मरम्मत कर देती है। इस प्रकार वे टूट-फूट के कारण नष्ट होने से बचे रहते हैं।

घरेलू झींगुर रात को जब अपना आरचेस्ट्रा सजाता है तो लगता है स्वर ताल का समग्र ज्ञान रखने वाला कोई कुशल कलावन्त सधे हुए हाथ से वायलिन के स्वर झंकृत कर रहा है और साथ ही उसके सहायक अन्य बाजे बज रहे है। उसकी ध्वनि इतनी तीव्र होती है मानो वाद्य यन्त्र के साथ किसी ने शक्तिशाली लाउडस्पीकर फिट कर दिया हो। यह ध्वनि-विस्तार-यन्त्र सहित वायलिन उसकी पीठ पर लदा होता है।

झींगुर की पीठ पर दो चौड़े भूरे रंग के पंख होते हैं। इन्हीं के सहारे वह कुलाचें भरता है। इन पंखों में कुछ धारियाँ होती हैं, इन्हीं को परस्पर घिस कर वह अपना संगीत प्रवाह निसृत करता है। यही वह उपकरण है जिससे कई प्रकार की स्वर धारायें निकलतीं हैं। मोटे रूप से एक जैसी ध्वनि सुनाई पड़ती है, पर ध्यान देने पर प्रतीत होता है कि इसमें एक नहीं कितने ही उतार-चढ़ाव भरे स्वर हैं। उनमें मुख्यतया तीन और विशेषतया सत्रह स्वर सुने जा सकते हैं। कभी धीमी कभी तीव्र आवाजें उनमें से निकलती हैं और वे सदा एक जैसी नहीं होती वरन् राग-रागनियों की तरह अपने द्वारा प्रवाह में हेर-फेर उत्पन्न करती हैं।

भारतीय संगीत शास्त्र ऋतु एवं समय के अनुरूप राग-रागनियाँ गाये बजाये जाने का अनुशासन है। अब वह परम्परा संगीतज्ञों ने छोड़ना शुरू कर दिया है पर झींगुर अपने लिए प्रकृति द्वारा निर्धारित संगीत परम्परा का पूरी तरह पालन करते हैं। उनके गीत वातावरण के तापमान का प्रतिनिधित्व करते हैं। 55 अंश फारेनहाइट से कम तापमान पर झींगुर मौन साधे रहते हैं। 100 से ऊपर यह गर्मी निकल जाय तो भी वे चुप हो जाते हैं। 55 और 100 डिग्री के बीच का तापक्रम रहेगा तो ही वे अपना वायलिन बजायेंगे। उनका संगीत न निरुद्देश्य होता है और न स्वर, ताल में रहित। इस गायन में उनकी प्रसन्नता, कठिनाई, क्षुधा, भय, आक्रोश, प्रणय निमन्त्रण आदि के भाव भरे रहते हैं। स्वर, ताव में ऐसी क्रम बद्धता रहती है कि वे संगीत शास्त्र की परीक्षा में शत-प्रतिशत नम्बरों से उत्तीर्ण हो सकते हैं। उनकी झंकार एक मील की दूरी तक टेप की गई है।

मादा और बच्चों को यह कला नहीं आती केवल प्रौढ़ झींगुर ही अपना राग अलापते हैं। विभिन्न देशों के वातावरण के अनुरूप उनकी आवाज में अन्तर आ जाता है। न केवल उनका रंग, रूप वरन् ध्वनि प्रवाह भी बदल जाता है। प्रकृति-विज्ञानी झींगुरों के स्वर का अध्ययन करके वातावरण का तापमान सही-सही बता देते हैं। इतना ही नहीं निकट भविष्य में वर्षा होने न होने, मौसम में उतार-चढ़ाव आने, आँधी तूफान की सम्भावना, शकुन-अपशकुन आदि का निष्कर्ष निकालते हैं मानो झींगुर, मात्र कीटक न होकर कोई निष्णात भविष्य वक्ता हो।

कीट-पतंग हमें गूँगे, बहरे दिखाई पड़ते हैं पर वस्तुतः वैसा ही नहीं वे आपस में घुल-घुल कर बातें करते हैं एक दूसरे के साथ विचार विनियम करते हैं और पारस्परिक सहयोग जुटाने मेँ उस संभाषण का प्रयोग करते हैं। यह अलग बात है कि उनके सम्भाषण उपकरण मनुष्यों से भिन्न है और उनका शब्द कोष हमारे उच्चारण विधान से मेल नहीं खाता।

मिशिगन विश्वविद्यालय के कीट विज्ञानी डा.चाडाँक के अनुसार कीड़े-मकोड़े भी परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करते हैं यदि उनमें यह क्षमता न रही होती तो उनका जीवित रहना ही असम्भव हो जाता, पक्षी निरर्थक चहचहाते मालूम पड़ते हैं पर वस्तुतः वे अपनी प्रसन्नता, व्यथा, योजना, जानकारी आदि की सूचनायें अपने साथियों को देते हैं। ध्वनि के साथ-साथ उनकी मन-स्थिति घुली होती है जिसकी

जानकारी उस वर्ग के अन्य पक्षी प्राप्त करते हैं और उससे लाभ उठाते हैं। खतरा किसी एक को मालूम पड़ जाय तो वह अपनी भाषा में अपने साथियों को सूचित कर देता है, फिर सब मिलकर उसी का उच्चारण करते हैं ताकि न केवल साथियों को आगाही हो जाय वरन् शिकारी शत्रु को उनकी सतर्कता एवं आक्रामक सम्भावना के कारण आक्रमण करने का इरादा ही बदलना पड़े।

छोटे-कीड़ों की भाषा नहीं होती वे अंग स्पर्श से विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। यह स्पर्श ऐसे ही निरर्थक नहीं होता वरन् उसकी एक व्यवस्थित संकेत शृंखला होती है जिससे उस वर्ग के कीड़े भली प्रकार परिचित होते हैं। एक दूसरे के किस अंग को किस पकड़ के साथ छुए और क्या हलचल करे इस प्रक्रिया से वे साथियों को अपने मन की बात बता देते हैं। ध्वनि, स्पर्श, दृष्टि और हलचल के माध्यम से छोटे जीवों का आदान-प्रदान चलता है। हम अपने स्तर पर उन्हें मूक कह सकते हैं पर वस्तुतः बोलते वे भी हैं। उनका उच्चारण इतना मन्द होता है कि हमारे कान उन्हें सुन, समझ नहीं सकते फिर भी वे जिह्वा से न सही शरीर के विभिन्न अंगों की हलचलों या रगड़ से ऐसी क्रमबद्ध ध्वनि उत्पन्न करते हैं जिसे उनकी भाषा कहा जा सकता है।

बरसात में मेंढ़कों की टर्र-टर्र अकारण नहीं होती इसमें वे अपनी मानसिक स्थिति का परिचय देते हैं। टिड्डे अपने पंखों को पिछले पैरों से रगड़ कर ध्वनि उत्पन्न करते हैं झींगुर की टाँगें मनुष्यों द्वारा बजाये जाने वाले किसी वाद्य यन्त्र की तुलना का ध्वनि प्रवाह निसृत करती हैं। जर्मन कीट विज्ञानी फेवर ने टिड्डों की भाषा खोजने के लिए योरोप भर के जंगलों की खाक छानी है उनने टिड्डों के लगभग 400 ध्वनि संकेत और चौदह स्तर के प्रणय निवेदन टेप किये हैं। इन ध्वनियों को टेप पर सुनकर भी अन्य कीड़े उस जानकारी के अनुरूप ही अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। योरोप के ग्राइलस, कम्पेस्टस, ग्रावाइमैकुलेटस आदि झींगुर जातियाँ अपने अन्य साथियों की तुलना में अधिक मुखर होती हैं। मादा और नर के स्वरों में अन्तर होता है इससे वे लिंग भेद को आसानी से पहचान लेते हैं और तद्नुरूप शिष्टाचार बरतते हैं।

मधुमक्खी विशेषज्ञ मार्टिन लिण्डेयर ने मधुमक्खियों के आदान-प्रदान के माध्यम को नृत्य माना है। वे अनेक तरह की कलाबाजियों के नृत्य करती हैं और संग्रहित सूचनाओं की जानकारी छत्ते के अन्य साथियों को देती हैं। इसी आधार पर उनका झुण्ड मकरंद प्राप्त करने के लिए उपयुक्त दिशा की जानकारी पाता है और कूच करता है। कुछ मक्खियाँ इस खोज कला में और सूचना-संवाद देने की कुशलता में बहुत प्रवीण होती हैं, वे प्रायः इसी कार्य को रुचि पूर्वक करती रहती हैं।

प्रो.राबर्ट हिण्डे के अनुसार पक्षी ही नहीं कीड़े भी आँखों के इशारे से अपने बहुत से मनोभाव साथियों को बता देते हैं। यों आँखों की हलचल और चितवन में भी थोड़ा बहुत अन्तर पड़ता है पर पुतलियों की संवेदनशीलता में वैसा बहुत कुछ रहता है। जिससे एक दूसरे की भावनाओं का आदान-प्रदान हो सके। इस दृष्टि से छोटे प्राणी मनुष्यों से पीछे नहीं हैं। यों मनुष्य भी आँखों और पुतलियों के सहारे अपनी गुह्य मनः स्थिति को जाने अनजाने साथियों पर प्रकट करते रहते हैं।

कार्लबाल फ्रिच ने मधुमक्खी नृत्य की अनेक मुद्राओं के फिल्म लिये हैं और बताया है कि उनकी क्या हलचल-कितनी दूर, किस दिशा में, किस स्तर की, क्या स्थिति है इसकी सूचना ठीक प्रकार देती है। मधुमक्खियों की इस संकेत भाषा के आधार पर उनने परीक्षा की तो उनका प्रतिपादन शत-प्रतिशत सही निकला।

जुगनू की तरह और भी कई कीड़े अपने शरीर से प्रकाश निकालते हैं। कैल कीड कीड़ा तो रेलवे सिगनलों की तरह लाल, हरी रोशनी जलाता बुझाता रहता है। यह प्रकाश सदा एक जैसा नहीं चमकता उसके जलने बुझने, मन्द एवं तीव्र होने में जो बारीक अन्तर रहते हैं उससे वे अपनी जाति वालों से आपसी वार्तालाप करते रहते हैं।

कितने ही जीवों का कात उनकी घ्राण शक्ति से ही चलता है। जीवनोपयोगी कितनी ही जानकारियाँ वे वस्तुओं एवं जीवों के शरीरों से निकलने वाली गन्ध के आधार पर ही प्राप्त करते हैं। इतना ही नहीं उनकी विभिन्न शारीरिक, मानसिक परिस्थितियों से विभिन्न प्रकार की गन्धें निकलती हैं, उस वर्ग के प्राणी इन्हें सूँघ कर एक दूसरे की स्थिति का परिचय प्राप्त करते रहते हैं। रति प्रयोजन के लिए उनके शरीरों से विशेष रूप से तीव्र गन्ध निकलती है, यही वह सूत्र है जो उनकी वंश रक्षा की व्यवस्था जुटाये रहता ह। बहुत छोटे अदृश्य कीड़े तो इस गन्ध के आदान-प्रदान से ही गर्भ धारण कर लेते हैं। ई.ए.विल्सन के अनुसार चींटियां अपने शरीर से एक रस निकालती और टपकाती चलती हैं ताकि अन्य चींटियां उनके आह्वान पर विशेषज्ञ प्रयोजन के लिए उसी रास्ते को सूँघती हुई बढ़ती चली आवें। चींटियों का पंक्तिबद्ध चलना इसी गन्ध के आधार पर होता है।

जिस दुनिया में हम रहते हैं वह केवल मनुष्यों तक ही सीमित है। अन्य जाति के प्राणियों की- कीट-पतंग और पशु-पक्षियों की अपनी-अपनी दुनिया है और उसमें उन्हें निर्वाह करने, प्रसन्न रहने, पुरुषार्थ दिखाने के सुविस्तृत कार्य क्षेत्र मौजूद है। हम पृथ्वी पर रहते हैं यह एक छोटा क्षेत्र है, हमारी जानकारी तथा संपर्क की सीमा इसी छोटे क्षेत्र तक सीमित है। समस्त ब्रह्मांड में न जाने कितने स्तर के अणु परमाणु होंगे और न जाने कितनी भिन्नता वहाँ की परिस्थितियों में होगी। इसी प्रकार यदि वहाँ प्राणी रहते होंगे तो न जाने उनका स्तर क्या होगा? हम समस्त ब्रह्मांड की जड़ चेतन स्थिति का क्या अनुमान लगा सकते हैं। वे दुनियाएँ अलग और अनोखी होंगी। ठीक इसी प्रकार छोटे प्राणी अपनी दुनिया में मस्त और सन्तुष्ट होंगे। सम्भवतः वे हम मनुष्यों के संसार से परिचित न हों। हम भी कहाँ कीट-पतंगों की और ब्रह्मांड वासी अन्यान्य प्राणियों की दुनियाओं से परिचित हैं। भगवान ने कितने संसार रचे हैं यह देखकर बुद्धि थकित और चकित होकर रह जाती है।


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