विकास की सोचें पर विनाश को न भूलें

June 1975

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मनुष्य अधिक उन्नति की-अधिक उपलब्धि की बातें सोचता किन्तु यह भूल जाता है कि जो उपलब्ध है उसका श्रेष्ठतम उपयोग करके भविष्य की लम्बी-चौड़ी आशाएँ बाँधे रहने और लालसाओं में उलझे रहने की अपेक्षा अधिक लाभान्वित हुआ जा सकता है।

भविष्य आशाजनक भी है और निराशाजनक भी। यह ठीक है कि अधिक पुरुषार्थ करके भविष्य में अबकी अपेक्षा अधिक सुख साधन प्राप्त किये जा सकते हैं, पर साथ ही यह भी समझने योग्य बात है कि आयु बर्फ की तरह गलती चली जा रही है और विनाश का दिन क्रमशः निकट आता चला जा रहा है। भविष्य की आशा रखी जानी चाहिए, पर साथ ही उसके साथ द्रुतगति से कदम बढ़ाकर चलते आ रहे महाविनाश को भी देखना चाहिए और यह सोचना चाहिए कि समस्त आशाओं पर पानी फेर देने वाली मृत्यु द्वारा गरदन मरोड़ दिये जाने से पूर्व कुछ ऐसा कर लिया जाय तो सन्तोषजनक हो। यह तभी सम्भव है जब मनुष्य भविष्य चिन्तन की बालक्रीड़ा में ही न उलझा रहे वरन् वर्तमान के श्रेष्ठतम सदुपयोग की प्रौढ़ बुद्धिमत्ता का परिचय देना स्वीकार करे।

भविष्य की आशा रखी जानी चाहिए, पर विनाश के अवश्यम्भावी तथ्य को पूर्णतया विस्मृत नहीं कर दिया जाना चाहिए। अधिक प्रगति करने की योजनाएं बनाते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मरण अवश्यम्भावी और वह निर्धारित आशाएँ पूर्ण होने से पहले भी आ धमक सकता है। इसलिए जो उपलब्ध है उसके सदुपयोग की बात को प्रधानता दी जाय, अत्यधिक आशान्वित कल्पनाएँ करते रहने से, वर्तमान आँखों से ओझल हो जाता है और दुहरी मार पड़ती है। ध्यान दूर देश पर अटका रहने से इन क्षणों में जो किया जा सकता था वह भी बन नहीं पता और भविष्य की सम्भावनाएँ तो दिवास्वप्न हैं उनमें से कौन कितनी पूरी होती हैं यह पुरुषार्थ के साथ-साथ परिस्थितियों पर भी निर्भर होने के कारण सर्वथा अनिश्चित रहता है।

विनाश की कल्पना डरावनी है और वह आवेशग्रस्त हो तो शिथिलता और निराशा भी लाती है किन्तु यदि तथ्यों का अनिवार्यता को ध्यान में रखते हुए यथार्थता को समझा जाय और वस्तुस्थिति को ध्यान में रखकर जीवन नीति का निर्धारण किया जाय तो यह दूरदर्शी विवेकशीलता ही कही जायगी।

अन्त हर चीज का होना है। हमारी पृथ्वी का भी और उसके जन्मदाता सूर्य का भी जन्म के साथ ही मरण का विधान चल पड़ता है और जैसे-जैसे दिन गुजरते आते हैं वह भयावह घड़ी सामने आ खड़ी होती है जिसके सामने अनिच्छा रहते हुए भी सिर झुकाना पड़ता है। क्या परम तेजस्वी, शक्तिशाली और लोक पालक सूर्य का भी अन्त हो जायगा? इस प्रश्न के उत्तर में इस सम्भावना को भी वैज्ञानिक दृष्टि रखकर निश्चित रूप से सामने खड़ा देखा जा सकता है। बड़ी सत्ता विकसित होने में और नष्ट होने में अपने आकार विस्तार के अनुसार अधिक समय ले सकती हैं। मनुष्य जैसी तुच्छ सत्ताएँ स्वल्प काल में समाप्त हो सकती है और अन्तर रहते हुए भी भरण तो ऐसा सुनिश्चित तथ्य हैं जिसे कोई टाल नहीं सकता।

वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार सूर्य की हाइड्रोजन का एक ओर से जलना दूसरी ओर हिलियम की मजबूत परतें जमा कर रहा है। इसकी मोटी परतें फुटबाल पर चढ़े हुए चमड़े की खोल की तरह उसकी भीतरी स्थिति की एक दायरे में रोकथाम करती है। इस आवरण से गामा किरणें उसके भीतर बड़ी मात्रा में कैद होती चली जा रही हैं। कभी-कभी गामा किरणें हिलियम के आवरण को छेदकर ऊपर निकल आती हैं तब सूर्य से भयंकर चुम्बकीय तूफान उठते दिखाई पड़ते हैं, पर यह खोल जब अधिक मजबूत हो जायेगा तो उनका बाहर निकल सकना भी रुक जायगा।

अन्ततः सूर्य को किस स्थिति का सामना करना पड़ेगा इसके सम्बन्ध में दो मत हैं एक तो यह है कि हाइड्रोजन समाप्त हो जाने पर वह तेल चुकने वाले दीपक की तरह बुझकर शान्त हो जायगा। दूसरा मत यह है कि हिलियम परतों के भीतर गामा किरणें एक अत्यन्त भयंकर विस्फोट करेंगी उसके टुकड़े-टुकड़े होकर अनन्त आकाश में छितरा जायेंगे। भूतकाल में महासूर्य एक विस्फोट कर चुका है। वर्तमान सौरमण्डल के ग्रह-उपग्रह उसी से बने हैं। अब रहा बचा वर्तमान सूर्य फिर विस्फोट करेगा तो उससे भी छोटे-छोटे ग्रह पिण्ड बन जायेंगे, पर मूल सूर्य की शक्ति समाप्त हो जाने पर अब के तथा उस समय के ग्रह पिण्ड किस केन्द्र सूर्य की परिक्रमा करेंगे यह नहीं कहा जा सकता, सम्भव है कोई बहुत दूर का महासूर्य इन अनाथों को अपनी ओर खींच ले और अपने बाड़े में जकड़ कर कैद कर लें।

सूर्य ही नहीं अन्यान्य ग्रह-नक्षत्र भी प्रगति विस्तार के साथ-साथ मरण विनाश की दिशा में भी द्रुतगति से भागे चले जा रहे हैं। ब्रह्मांड रूप महादैत्य-शरीर में अपनी पृथ्वी एक कोशिका की बराबर है जिनका जन्म और मरण स्वल्पकालीन ही होता है। विशाल पिण्डों की तुलना में अपनी पृथ्वी छोटी होने के कारण वह और भी जल्दी मरेगी। महाविनाश का पूर्णाभ्यास खण्ड प्रलयों के रूप में खेल-खेल के साथ करती भी रहती है जैसा कि मनुष्य मृत्यु का पूर्वाभ्यास कठिन रोगों से ग्रसित होकर करता रहता है।

पृथ्वी अब तक कई बार खण्ड प्रलय के कुचक्र में पिसते-पिसते बच चुकी है। आगे कब तक वह अपनी सुरक्षा स्थिर रखे रह सकेगी कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।

पिछली खण्ड प्रलयों का विश्लेषण करते हुए भू-गर्भ वेत्ता बताते हैं कि धरती एक विशाल चुम्बक है। उसके गर्भ में दो तरल द्रव भरा हुआ है वही उसे आकर्षण शक्ति का विपुल भण्डार प्रदान करता है। पृथ्वी की सतह पर जो बल कार्य कर रहे हैं उनसे न केवल पदार्थों की वरन् प्राणियों की भी वर्तमान स्थिति बनी हुई है।

जिस प्रकार सभी चुम्बकों के दो ‘पोल’ होते हैं उसी प्रकार पृथ्वी के भी हैं। मोटेतौर से उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों को पृथ्वी के ‘पोल’ कहा जाता है, पर वे भौगोलिक ध्रुव मात्र है- चुम्बकीय ध्रुव उनसे हटकर है और वे क्रमशः एक दूसरे का स्थान ग्रहण करने के लिए आगे बढ़ रहे हैं। भौगोलिक ध्रुव बहुत धीमी गति से बदलते हैं, पर चुम्बकीय ध्रुवों के बारे में ऐसी बात नहीं है वे तेजी से अपना स्थान परिवर्तन कर सकते हैं और एक स्थान दूसरा ग्रहण कर सकता है। जब ऐसा पूर्ण परिवर्तन सम्पन्न होता है तो बीच का कुछ समय ऐसा आता है जिसमें एक प्रकार से चुम्बकीय रिक्तता उत्पन्न हो जाती है। यह बहुत ही संकट एवं उथल-पुथल का समय होता है।

भूगोल शास्त्री उस खण्ड प्रलय की बात जानते हैं जब स्थिर हुई पृथ्वी और व्यवस्थित रीति से चल रही प्राणि सृष्टि में अचानक व्यवधान उत्पन्न हुआ था। अन्धाधुन्ध बादल बरसे थे और थल ने जल का- जल ने थल का स्थान ग्रहण कर लिया था। जब वह खण्ड प्रलय रुकी तो पहले के प्राणी अधिकतर नष्ट हो गये थे और जो बचे थे उनने अपनी आकृति-प्रकृति में भारी अन्तर कर लिया था। तब ‘रेडियो लारिया’ नामक समुद्री एक सेल वाले जीव की नई जातियाँ प्रकाश में आई थीं और पुरानी जातियाँ सर्वथा लुप्त हो गई अथवा आमूल-चूल बदल गई थी। यह ध्रुवीय परिवर्तन की सान्ध्यवेला का चमत्कार था।

बढ़ते-बढ़ते जब चुम्बकीय ध्रुव उत्तर से दक्षिण में और दक्षिण से उत्तर में जा पहुँचते हैं तो कुछ समय के लिए चुम्बकीय शून्यता आती है और उससे एक प्रकार से अंतर्ग्रही ही अराजकता फैला जाती है। पृथ्वी ने अपने चारों ओर एक चुम्बकीय घेरा बनाया हुआ है। उस ढाल पर अन्तरिक्ष से बरसने वाली कास्मिक किरणें टकराकर इधर-उधर छितरा जाती हैं। यदि वे सीधी धरती तक आने लगें तो उनका भौतिक प्रभाव तो होगा ही जीवधारियों की आनुवांशिक परिस्थितियाँ भी उलट जायेंगी। प्राणियों को उत्पन्न करने वाले ‘जीन’ अपनी परम्परागत विशेषताएँ खो बैठेंगे और उनमें ऐसे हेर-फेर हो जायेंगे जिससे नई पीढ़ियाँ आपने पूर्वजों की अपेक्षा सर्वथा बदली हुई आकृति एवं प्रकृति की बन जायें। जीव सेलों के मध्य में रहने वाला ‘क्रोमोटीन’ नामक पदार्थ कास्मिक किरणों से अत्यधिक प्रभावित होता है।

चुम्बकीय ध्रुव परिवर्तन की वह घड़ी जिसमें चुम्बकीय शून्यता उत्पन्न होगी सबसे अति निकट संकट सामने आ खड़ा होगा। तब कास्मिक रेडियेशन का सामना पृथ्वी वालोँ को करना पड़ेगा। उसका वर्षा, बर्फ, गर्मी, तूफान आदि के रूप में क्या ऋतु प्रभाव पड़ेगा इसका सही अनुमान तो नहीं लगाया जा सका है, पर आनुवांशिक उत्परिवर्तन, जेनेटिक म्यूटेशन की आशंका निश्चित रूप से की जा रही है। उस परिवर्तन से मनुष्यों एवं अन्य प्राणियों की शरीर रचना-रोग स्थिति एवं उपचार पद्धति का नये सिरे से ककहरा पढ़ते। प्राणियों की आकृति ही नहीं कार्य क्षमता, रुचि एवं आवश्यकता भी बदल सकती है तदनुसार नये किस्म के भौतिक शास्त्र का श्रीगणेश हो सकता है।

प्रायः 15 करोड़ वर्ष बाद यह ध्रुवीय परिवर्तन आते हैं। पिछले परिवर्तन से पृथ्वी के दो महाद्वीप उलट-पुलट करके पाँच बन गये थे। भविष्य में स्थिति क्या और कैसी बनेगी-इस सम्बन्ध में अभी केवल आशंका भरी अटकलें ही लगाई जा सकी हैं।

बीच-बीच में हिमयुग आते हैं और धरती को अस्त-व्यस्त करके रख जाते हैं। प्राणियों का तो महाविनाश ही होता है उनके लिए तो वह भी महाप्रलय ही होती है। जहाँ-तहाँ जो जीवधारी बचते हैं वे ही नई परिस्थितियों में अपना वंश चलाते और नई परिस्थितियों के अनुरूप अपने को ढालते हैं।

पृथ्वी पर अब तक कितने ही हिमयुग आ चुके हैं। उनमें से आरम्भिक काल में वे बहुत लम्बे समय तक टिकने वाले भी रहे हैं। पीछे कुछ स्वल्पकालीन भी रहे हैं। सम्भवतः वे उष्ण युग के मध्यान्तर थे जो ज्वार-भाटों की तरह पाक्षिक रूप से ही नहीं हर दिन भी हलके-हलके आते रहते हैं।

संसार के मौसम विज्ञानी इन दिनों यह बता रहे हैं कि एक छोटे हिमयुग का आरम्भ हो चुका है और वह तेजी से निकट आ रहा है। सर्दी बढ़ने से संसार के सामने जो समस्याएँ उत्पन्न होंगी उनमें बड़ी समस्या खाद्यान्न उत्पादन में भारी-कमी होने की भी है। ठण्ड अधिक पड़ने का बुरा प्रभाव पौधों पर पड़ता है, उनका उगना बढ़ना रुक जाता है और फूलने-फलने में भारी कमी पड़ती है। यह तथ्य सर्वविदित है।

इंग्लैंड के मौसम विज्ञानी ह्यूर्वट लैम्ब ने हिसाब लगाकर बताया है कि अब हर वर्ष ठण्ड बढ़ती जायगी इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में अर्थात् अब से तीस-चालीस वर्ष बाद ठण्ड इतनी अधिक बढ़ जायगी कि उससे शारीरिक और आर्थिक प्रभाव का सामना करने की तैयारी अभी से करदी जानी चाहिए।

अपने प्रतिपादन की पुष्टि में अनेक अन्य प्रमाण प्रस्तुत करते हुए डा. ह्यूवर्ट ने एक प्रमाण यह भी दिया है कि आर्मडिलो जाति के प्राणी जो गर्म मौसम पसन्द करते हैं कुछ समय पूर्व उत्तरी देशों में बस गये थे अब वे उस क्षेत्र को खाली करके दक्षिणी गर्म भागों में उत्तर रहें हैं। कहना न होगा कि इन प्राणियों का भविष्य ज्ञान असंदिग्ध ही होता है।

वैज्ञानिक अनुमान है कि इक्कीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में बढ़ी हुई ठण्ड के कारण भारत के कई भाग बर्फ से ढक जायेंगे। न केवल भारत वरन् संसार के कितने ही अन्य क्षेत्र भी हिमाच्छादित दिखाई पड़ेंगे।

प्रागैतिहासिक काल में कितने ही हिमयुग आये हैं। प्रथम हिमयुग अब से 60 करोड़ वर्ष पहले आया था जिसने भारत समेत, यूरोप, चीन, दक्षिणी अफ्रीका, आस्ट्रेलिया के अधिकाँश भागों को हिमाच्छादित कर दिया था। दूसरा हिमयुग जिसे परमोकार्वा निफेरस’ काल कहते हैं दक्षिणी अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका, आस्ट्रेलिया में लम्बे समय तक रहा उसमें भारत भी प्रभावित हुआ था। अब से 25 लाख वर्ष पूर्व तीसरा हिमयुग आया था, उस समय को ‘प्लीस्टीसीन’ कहते हैं। इसका प्रभाव उत्तरी अमेरिका, इंग्लैंड, रूस, चीन, आस्ट्रेलिया आदि पर पड़ा था एक तिहाई धरती बर्फ से ढंक गई थी। इसके बाद मौसम गर्म हुआ और मोटी बर्फ सिर्फ उत्तरी दक्षिणी ध्रुवों पर जमी रह गई। बढ़ती हुई गर्मी का अधिकतम तापमान ईसा से 5000 वर्ष पूर्व से लेकर 3000 वर्ष पूर्व तक रहा। उस दो हजार वर्ष की अवधि को अब तक के उपलब्ध प्रमाणों में सबसे अधिक गरम कह सकते हैं। इसके बाद ठंड गर्मी के छोटे-छोटे उतार-चढ़ाव आते रहे हैं, कोई बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ। ईसा से 200 वर्ष पूर्व से ठण्ड बढ़ी सन् 1000 से गर्मी का उभार आया जो 200 वर्ष चला। फिर गर्मी फिर सर्दी की लहरों में सत्रहवीं सदी में यूरोप के कितने ही देश ठंड से बहुत प्रभावित हुए। 1690 का यूरोप का अकाल जिसमें इंग्लैंड सबसे अधिक प्रभावित हुआ, ठण्ड के कारण ही पड़ा था। फसल बुरी तरह नष्ट हो गई थी और जानवर मर गये थे। टेम्स नदी उन्हीं दिनों सबसे अधिक समय तक जमी रही थी।

अब 1940 के बाद फिर शीत की लहर आई है और तापमान बराबर घटता जा रहा है। यह अभी गिरता ही जायगा। इक्कीसवीं सदी इससे अत्यधिक प्रभावित होगी। इससे मनुष्य पर शारीरिक, मानसिक प्रभाव पड़ेंगे। वृद्धि रुकेगी। क्या जानवर क्या पौधे सभी को विकसित होने में कठिनाई पड़ेगी। वे सिकुड़ते गिरते चले जायेंगे। हिम त्रास से बचने के लिए अधिक ईंधन की जरूरत पड़ेगी। सबसे बड़ी बात होगी खाद्यान्नों की कमी। ठंड पौधों के विकास में बाधा पहुँचाती है, उपयुक्त सिंचाई के साधन न मिलने पर उन्हें ठंड का शिकार होकर नष्ट होना पड़ता है। ऊर्जा की कमी पड़ने से कल कारखाने ठप्प हो जाते हैं, मशीनें गरम रखने के लिए अधिक ईंधन की जरूरत पड़ती है। शीत वृद्धि के साथ-साथ कितने ही रोग पनपते हैं और कमजोरों की जान पर आ बनती है।

हिमयुग क्यों आते हैं? इसके उत्तर में कई बातें कही जा सकती है। पृथ्वी पर जो गर्मी आती है वर विशुद्ध रूप से सूर्य का अनुदान है। यदि सूर्य अपना हाथ सिकोड़ ले तो अपनी धरती देखते-देखते बर्फ का गोला बन जायगी और जीवन के समस्त चिन्ह समाप्त हो जायेंगे और। सूर्य की किरणें जहाँ भी जब सीधी पड़ती हैं तब वहाँ तापमान बढ़ जाता है। जब किरणें तिरछी पड़ती हैं तो ठंड बढ़ने लगती है। सर्दी और गर्मी के मौसम सूर्य किरणों के तिरछी या सीधी होने के कारण ही आते हैं। सूर्य के चारों ओर पृथ्वी परिक्रमा करती है, उसकी कक्षा में अंतर आना भी तापमान घटने-बढ़ने का कारण होता है। सौर-मण्डल के अन्य ग्रहों का गुरुत्वाकर्षण भी घटता-बढ़ता रहता है और वह सर्दी-गर्मी को घटाता-बढ़ाता है।

जंगलों का कटना, कल कारखानों का बढ़ना जैसे कारणों से भी आकाश का सन्तुलन बिगड़ता है। हवा से बढ़ी हुई कार्बनडाइ आक्साइड तथा धुँआ और धूलि कणों से छाने वाली धुँध सूर्य और पृथ्वी के बीच एक मोटा आवरण खड़ा करती हैं और आदान प्रदान रोकती हैं। धरती अपनी अनावश्यक गर्मी ऊँचे आकाश में उड़ा नहीं पाती दूसरी ओर सूर्य ऊर्जा भी उस छतरी से रुक जाती है। इस असंतुलन में जो पलड़ा भारी पड़ता है उसी के अनुसार सर्दी या गर्मी के ज्वार-भाट उठते हैं और नया परिवर्तन होने तक उसी ढर्रे पर लुढ़कते रहते हैं।

इन बड़े तथ्यों को हम देखें तो स्पष्ट दिखाई देगा कि सूर्य और पृथ्वी सहित समस्त विश्व ब्रह्मांड विकास और विनाश के झूले में झूल रहा है। मनुष्य जैसा तुच्छ प्राणी भी इसका अपवाद नहीं है। वह बढ़ता तो है पर मरता भी निश्चित रूप से है। केवल विकास ही विकास के रंगीन सपने देखना और विनाश की विभीषिका से आँखें मूँद लेना गलत है। बुद्धिमत्ता यही है कि दोनों को संतुलित दृष्टि से देखें और ऐसी नीति निर्धारित करें जो जीवन और मरण की उभय पक्षीय संभावनाओं को संतुलित बनाये और एकाँगी चिन्तन को भूल से सतर्कता पूर्वक बचायें।


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