आहार के सम्बन्ध में समुचित सतर्कता बरती जाय

June 1975

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आहार मात्र पेट भरने के लिए नहीं है और न जिह्वा का स्वाद तृप्ति करने के लिए। उसे शरीर को उचित पोषण प्रदान करने की दृष्टि से ग्रहण किया जाना चाहिए। गन्ध, स्वरूप और स्वाद की दृष्टि से नहीं वरन् उसे इस दृष्टि से परखा जाना चाहिए कि उपयुक्त पोषण प्रदान कर सकने के तत्व उसमें हैं या नहीं। उपयुक्त भोजन के सम्बन्ध में सतर्कता बरतने पर ही हम नीरोग और दीर्घजीवी बन सकते हैं। इस दिशा में बरती गई उपेक्षा एवं भूल का दुष्परिणाम हर किसी के लिए बहुत महँगा पड़ता है।

डाक्टर लोग अपने बीमारों को जीवनी शक्ति बढ़ाने के लिए विटामिन ‘बी’ प्रयोग करने की सलाह देते हैं और दवाओं से उसे सम्मिलित करते हैं। रक्त की कभी, अपच, थकान, स्नायु, दुर्बलता जैसी कठिनाइयों में तो उसका उपयोग एक तरह से आवश्यक ही माना जाता है। लोग उसे खरीदते और खाते भी हैं। वह लाभ स्थायी रूप से मिलता नहीं जो विटामिनों के शरीर में समाविष्ट होने पर मिलना चाहिए।

कारण एक ही हे कि उनकी स्वाभाविक स्थिति और स्वाभाविक मात्रा सामान्य खाद्य पदार्थों के माध्यम से पेट में जाकर जब पचती है और रक्त में सम्मिलित होती है तभी उसे शरीर अंगीकार करता है। ऊपर की ठूँस-ठाँस को वह स्वीकार ही नहीं करता और उस बोझ को उतार कर फेंक देता है। अक्सर विटामिन बी की गोलियाँ खाने पर पेशाब पीला हो जाता है। यह पीलापन मुंह से खाये विटामिनों का मूत्र मार्ग से बहिर्गमन ही है।

दवाओं के माध्यम से दिये हुए पोषक पदार्थ यदि शरीर में घुले गये होते तो फिर किसी धनी को कमजोर या बीमार रहने की कठिनाई न सहनी पड़ती। सभी चीजें खरीदी और खाई जा कसती थी अथवा उनके इन्जेक्शन लेकर काम चलाया जा सकता था। पर ऐसा होता नहीं क्योंकि पाचन तन्त्र की स्वाभाविक प्रक्रिया में होकर गुजरे हुए-स्वाभाविक खाद्य पदार्थ ही जितना कुछ उपयोगी तत्व शरीर में पहुँचा पाते हैं उसी को स्थायित्व मिलता है।

विटामिन ‘सी’ के अभाव में रीढ़ की हड्डियों के जोड़ ढीले हो जाते हैं वे अपनी जगह से हिलने और हटने लगते हैं, जिससे कमर का दर्द शुरू हो जाता ह। कई बार रीढ़ की मणिकाओं में आवश्यक लोच और चिकनाई की कमी के कारण आपस में घिसावट होने लगती है। जोड़ तन्तु कोमलास्थि, माँस पेशियाँ तथा रक्त नलिकाएँ विटामिन सी के अभाव में कठोर हो जाता है और शरीर के सामान्य क्रिया-कलाप में विशेषतया अंग संचालन में अकड़न एवं भारीपन अनुभव होता है।

अमेरिका मेडिकल ऐसोसिएशन के सदस्यों ने जन साधारण को ताजे रसदार फलों और प्रायः सभी खट्टे फलों का सेवन करते रहने की सलाह दी है ताकि विटामिन ‘सी’ के अभाव में जो जीवनी शक्ति की कमी पड़ती है उसकी पूर्ति होती रहे मसूड़े और दाँत के रोगों का प्रधान कारण विटामिन ‘सी’ की कमी को ही बताया गया है। आँवला, नीबू टमाटर जैसे खट्टे फलों में विटामिन ‘सी’ प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।

उत्तम और पर्याप्त रक्त शरीर में बना रहे इसके लिए रोटी, आलू, घी, चीनी, माँस जैसे प्रचलित आहार की इतनी आवश्यकता नहीं जितनी कि क्षार लवण और खनिजों की। आयरन, कैल्शियम, पोटेशियम, फास्फोरस आदि जिनमें आधिक हों वे ही रक्त का स्तर एवं बाहुल्य बनाये रह सकते हैं। ऐसे पदार्थों में शाकों और फलों की ही गणना हो सकती है।

शरीर संचालन की क्रिया को ठीक तरह सम्पन्न करने में कैल्शियम की अत्यधिक आवश्यकता पड़ती है। रक्त में उसका बहुत बड़ा अंश रहता है जिसे बड़ी मात्रा में ‘सीरम’ में घुला हुआ देखा जा सकता है। सीरम रक्त का वह लसदार भाग है जो उसके कणों का ठीक प्रकार संचालन करने में सहायता करता है। रक्त में अम्ल का संतुलन बनाये रहने की उसकी भूमिका अति महत्वपूर्ण रहती है, कोई अंग कट जाने पर रक्त निकलने लगता है। उसे बन्द करने में कटे हुए स्थान पर जो पपड़ी सी जमा होती है, उसमें कैल्शियम की ही प्रधानता रहती है। यदि उसका उपयुक्त अंश न रहा होगा तो बहते हुए रक्त का रुकना कठिन हो जायगा। वह जम ही नहीं सकेगा।

कैल्शियम, विटामिन बी-1 के सहयोग से स्नायु तन्तुओं की संवेदना शक्ति को बल देता है। हाइड्रो कारबोरेट के सहयोग से स्नायु तंतु उसी के द्वारा अपना संतुलन बनाये रहते हैं। माँस-पेशियों का लचीलापन उनका सिकुड़ना-फैलना कैल्शियम की सहायता से ही संभव होता है यदि उसकी कमी पड़ जाय तो सारे शरीर में अकड़न अनुभव होगी यहाँ तक कि हृदय की रक्त संचालन क्रिया में भी व्यवधान उत्पन्न होने लगेगा।

शरीर में हड्डियों की आवश्यकता इसलिए है कि वह सुदृढ़ और खड़ा रह सके। इसके अतिरिक्त उन्हें कैल्शियम का सुरक्षित भण्डार भी समझा जा सकता है। जब कभी उसकी कमी पड़ती है तो उस आवश्यकता की पूर्ति हड्डियों के कोष में लेकर शरीर पूरी करता है।

शरीर में कैल्शियम की कमी पड़ने पर दाँत सड़ने उखड़ने और टूटने लगते हैं। शिर के बाल झड़ते हैं। उंगलियों के नाखूनों की लाली घट कर सफेदी आ जाती है। कटे हुए स्थान से रक्त देर तक बहता है और घाव जल्दी नहीं भरते। चमड़ी की चिकनाई घट जाती है और उस पर मुर्दनी तथा रूखापन छा जाता है। चोट लगने पर नीले दाग पड़ जाते हैं। पैरों में भड़कन और माँस-पेशियों तथा जोड़ों में अकड़न उत्पन्न होती है। कमर में दर्द रहता है और जल्दी थकावट आती है। हड्डियाँ टेड़ी होने लगती हैं और जरा से आघात में उनके टूटने का डर रहता है। रोगों से लड़ने की सामान्य क्षमता घट जाती है।चिकित्सक कैल्शियम की कमी को उसके इंजेक्शन लगाकर तथा गोलियाँ खिलाकर पूरा करना चाहते हैं, पर कठिनाई यह है कि शरीर इस प्रकार के अनुदान को लेने से इनका करता रहता है। खाई हुई गोलियों का प्रभाव मल मार्ग से बाहर निकल जाता है। इंजेक्शनों से उसे पहुँचाने पर वह प्रायः हड्डियों की ऊपरी परत पर चिपक कर रह जाता है इस रक्त नालियों की दीवारों पर भी बाहर से लिया हुआ कैल्शियम चिपका हुआ पाया गया है। इससे अभीष्ट लाभ मिलना तो दूर उलटे नाड़ियों में कठोरता जन्य अवरोध उत्पन्न होने का नया संकट सामने आ खड़ा होता है।

एक अभाव पूर्ति के लिए किये गये वे प्रयत्न निरर्थक बन कर रह जाते हैं शरीर प्रायः उन्हीं तत्वों को स्वीकार करता है जो सामान्य आहार के साथ अपने प्राकृतिक रूप में, संतुलित मात्रा में भीतर आते हैं और पाचन की स्वाभाविक प्रक्रिया में भ्रमण करते हुए रक्त में सम्मिलित होते हैं।

जिन पदार्थों में कैल्शियम की अधिक मात्रा पाई जाती है उनमें छेना, मलाई, दूध, चुकन्दर, गोभी, खजूर, अंजीर, नीबू, संतरा, नासपाती, रसभरी, पालक, शलजम, मूली, प्याज, गाजर आदि प्रमुख हैं। दूध को आग पर अधिक उबाला जाय तो उसका स्वाभाविक कैल्शियम नष्ट हो जायगा यह बात भी ध्यान रखने की है। चीनी मिला दूध पियें तो भी वह मिठास उस विशेषता को अपने पचाने के लिए चूस लेता है और उसकी विशेषता नष्ट कर देता है।

पूर्वी योरोप में एक करोड़ की आबादी का एक छोटा-सा देश है हंगरी। उसे बहुत समय तक राजनैतिक पराधीनता के बंधनों में जकड़ा रहना पड़ा। तब वह गरीबों और बीमारों का वेश बना हुआ था। स्वतंत्रता के बाद उसने नये सिरे से अपना निर्माण और उत्थान शुरू किया। इन आयोजनों से खाद्य समस्या का हल निकालना मुख्य है। शाक और फलों के उत्पादन पर उस देश में बहुत अधिक ध्यान दिया गया दूध की डेरियाँ खोलने के लिए विशेष प्रबंध किया गया है। फलस्वरूप आटे की खपत घट गई है। भारत की 40 प्रतिशत आजादी वह है जिसकी आयु 15 वर्ष से कम है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के भूत पूर्व निर्देशक डा.स्वामी नाथन ने चेतावनी दी थी कि यदि देश में निम्न मानसिक स्तर के लोगों की भरमार नहीं करनी है तो बालकों के लिए पोषक आहार की व्यवस्था करनी पड़ेगी। तथ्य यह है कि मस्तिष्क का वजन और विकास 10 वर्ष की आयु तक जड़ें जमा लेता है पीछे तो उसका परिपक्व होना मात्र शेष रह जाता है। यदि छोटी आयु के बालकों को उपयुक्त पोषण न मिलेगा उनके आहार में प्रोटीन तथा दूसरे तत्व न रहेंगे तो वे शारीरिक ही नहीं मानसिक दृष्टि से भी अविकसित रह जायेंगे। तब पूरे देश और समाज में भरी हुई व्यापक दुर्बलता आवेगी और उसका दुष्परिणाम हम सब को भोगना पड़ेगा।

इजराइल के दक्षिण भाग के नेगेव रेगिस्तानी क्षेत्र में एक धुकक्लड़ जाति रहती है- विदोइन। इसके वंशजों में से कभी किसी को हृदय रोग नहीं होते। तीस वर्ष की आयु के बाद जब कि सामान्य लोगों का रक्त गाढ़ा होने लगता है और हृदय रोग उत्पन्न होने का प्रधान हेतु बनता है वहाँ इन लोगों का रक्त बुढ़ापे तक पतला ही बना रहता है। तदनुसार उन्हें हृदय रोग ही नहीं अन्य रोग भी बहुत कम होते हैं। उनमें से कदाचित ही कोई मोटा होता है। इसलिए रेगिस्तानी कड़ी गर्मी को भी वे आसानी से सह लेते हैं। उनकी सहन शक्ति बढ़ी-चढ़ी होती है।

इजराइल के स्वास्थ्य विशेषज्ञ गंभीरता पूर्वक यह खोज कर रहे हैं- आखिर क्या कारण है जिससे इन लोगों को यह असाधारण प्रकृति-वरदान प्राप्त है। इस शोध कार्य के लिए वहाँ के वैज्ञानिकों की एक समिति काम कर रही है। जिसके अध्यक्ष होवरो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर फ्रिट्ज डेलफस है। वे आहार विशेषज्ञ भी हैं। इस समिति में जीव रसायन विशेषज्ञ डा.ई. यरवन,आहार शास्त्री डा.मिरियम क्लोक, नृतत्व विज्ञानी मिनी लैबी जैसे मूर्धन्य लोगों को लिया गया है।

समिति के विदोइन लोगों के आहार के बारे में यह जाना है कि वे जौ, गेहूँ जैसे अनाजों की मोटी रोटियाँ पकाते हैं और अपनी भेड़ बकरियों के दूध को नहीं पीते वरन् दही जमाकर खाते हैं। दही और रोटी ही उनका प्रमुख भोजन है। मछली वे बिल्कुल नहीं खाते। माँस सिर्फ त्यौहारों पर यदा-कदा पकता है। अण्डा भी वे नहीं खाते। फल सब्जी वे पसंद तो करते हैं पर उस रेगिस्तानी इलाके में वे उगते ही नहीं इसलिए दही रोटी पर ही उन्हें गुजर करनी पड़ती है।

(1) कड़ाके की भूख लगने पर ही खाना, (2) पेट को ठूँस-ठूँस कर न भरना उसमें आधी जगह हवा पानी के लिए रहने देना, (3) मुँह में भली प्रकार दांतों से पिस जाने के बाद ही ग्रास को गले से नीचे उतारना (4) भुने, तले, मिर्च मसाले वाले जायके दार पदार्थों की अपेक्षा ताजे हरे फल शाकों की प्रमुखता देना, (5) दूध, दही, छाछ को यथा संभव संतुलित मात्रा में लेने का प्रयत्न करना, (6) अन्न चिकनाई और शकर की मात्रा कम से कम लेना यह छह नियम ऐसे हैं जिनका ध्यान रखने पर हमारा आहार समुचित पोषण दे सकता है। और हम निरोग दीर्घ जीवी रह सकते हैं।


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