जीवन सम्पदा का सदुपयोग सीखा जाय

June 1975

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मोटी दृष्टि से मनुष्य हाड़-माँस का पिण्ड और सोचने, बोलने वाला पौधा मात्र समझा जाता है। स्थूल विश्लेषण करने पर अन्य प्राणियों की तुलना में अनेक प्रकार पिछड़ा हुआ प्राणी है भी वैसा ही। पर जब सूक्ष्म दृष्टि से उसका पर्यवेक्षण किया जाता है तो उसकी बौद्धिक एवं भावनात्मक क्षमता में असीम सम्भावनाएँ सन्निहित दृष्टिगोचर होती है।

कृषि, उद्योग, शिक्षा, चिकित्सा, शिल्प, कला, विज्ञान आदि क्षेत्रों में आश्चर्यजनक प्रगति करके वह सृष्टि का मुकुटमणि बना है यह उसकी बौद्धिक क्षमता का प्रमाण है। सहानुभूति की कोमल सम्वेदनाओं ने पारस्परिक सम्बन्धों को कितना मधुर बनाया है और आत्म-चिन्तन के क्षेत्र में कितना रस विभोर रह सकने का अवसर प्राप्त किया है यह उसकी भावनात्मक विकास प्रक्रिया का परिचय है। अन्य प्राणी इस दृष्टि से कितने अधिक पिछड़े हुए है उनके साथ तुलना करते हुए प्रतीत होता है कि मनुष्य को वैसा ही श्रेय सौभाग्य मिला है जैसा कि हम अपनी तुलना में देवताओं के बारे में सोचते हैं।

मनुष्य की अतीन्द्रिय चेतना तो और भी आश्चर्य जनक है। मस्तिष्क को जादुई पिटारा कहा जाता है यह उसके सामान्य चिन्तन की व्याख्या है। इससे भी गहरे अन्तराल में उतरने पर प्रतीत होता है कि उसमें वे दिव्य चेतनाएँ भी भरी हैं जिन्हें अलौकिक और अतींद्रिय कहा जा सकता है। जिनकी व्याख्या सामान्य मस्तिष्कीय गतिविधियों के आधार पर नहीं की जा सकती।

हमारे पूर्व पुरुष योग साधना के आधार पर उस दिव्य चेतना को विकसित करने में बहुत बड़ी सीमा तक सफल हुए थे। पिछले दिनों आलस्यवश वे क्षमताएं गँवा दी गई। उनके स्थान पर बाजीगरी को ठग विद्या को प्रश्रय मिल गया। तथाकथित चमत्कार धूर्त लोगों द्वारा भूखों को भ्रमग्रस्त करके स्वार्थ साधन के लिए प्रयुक्त किये जाते रहे। उससे योग विज्ञान के प्रति लोगों की अश्रद्धा बढ़ती गई।

अब विज्ञान के आधार पर मनुष्य की अतीन्द्रिय चेतना को सोचा जा रहा है। दिन-दिन अधिक उत्साह वर्धक प्रमाण सामने आ रहे हैं। लगता है- यह प्रगति हमें उस स्थान तक पहुँचा देगी जहाँ हम पूर्व पुरुष विकसित आत्म शक्ति के सहारे देव भूमिका का निर्वाह करने में सफल हुए थे।

फ्रांसीसी परामनोविज्ञान वेत्ता डा.पाल गोल्डीन अतीन्द्रिय चेतना की जानकारी सर्वसाधारण को देने और उसकी उपयोगिता समझाने के लिए संसार भर में दौरा कर चुके है। वे भारत भी आये थे। यहाँ उनने प्रबुद्धजनों की गोष्ठी में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा था-पाँच ज्ञानेन्द्रियों को सुनने, बोलने, देखने, सूँघने तथा स्पर्शानुभूति क्षमता से हम सभी परिचित है, पर इनसे भी महत्वपूर्ण एक और शक्ति है परा चेतना शक्ति जिसे छठी इन्द्रिय कहा जा सकता है। आश्चर्य है कि हम लोग इस बलवती सामर्थ्य के बारे में बहुत कम जानते हैं। किन्हीं-किन्हीं में यह संयोगवश प्रकट होती है और देखने वालों को आश्चर्यचकित करती है किन्तु वह आकस्मिक नहीं है। प्रयत्नपूर्वक उसे बढ़ाया जा सकता है और उससे अधिक लाभ उठाया जा सकता है जो पाँच ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से प्राप्त किया जाता है।

सुकरात कहते थे मेरे भीतर एक ‘डेमन’ रहता है। उसी के सहारे वे दूरानुभूति के आश्चर्यजनक प्रमाण प्रस्तुत करते थे। गेटे को भी ऐसी ही अदृश्य अनुभूतियाँ होती थीं जिनका कोई प्रत्यक्ष आधार तो नहीं था, पर वे प्रायः सत्य ही सिद्ध होती थीं।

यह ‘डेमन’ क्या हो सकता है इसके उत्तर में उनने स्वयं ही कहा था यह सुविकसित अन्तःकरण का ही दूसरा नाम है, किसी प्रेत वेताल का नहीं।

अध्यात्म सिद्धान्तों को विज्ञान ने आरम्भ में निराधार भावुक मान्यताओं की सजा दी थी और कहा था उनका कोई प्रमाणिक आधार नहीं है, पर अब वैसी बात नहीं रही। चेतना के क्षेत्र में जो खोजें हुई है उनने यह तथ्य सामने खड़ा कर दिया है कि मस्तिष्क मात्र चिन्तन का एवं शरीर संचालन का ही उत्तरदायित्व निभाने तक सीमित नहीं है। उसकी परिधि इतनी व्यापक है कि अतीन्द्रिय अनुभूतियों को भी तथ्य स्वीकार कर लिया जाय।

पूरा मनोविज्ञान को आरम्भ के दिनों में भूत विद्या जैसी जादुई चर्चा कहा गया था। पीछे तथ्यों ने उसकी गम्भीरता और वास्तविकता मानने के लिए विवश कर दिया। अमेरिका की विज्ञान संस्था (ए.ए.ए.एस.) ने सन् 1969 में परामनोविज्ञान संस्था को अपना पूर्ण सदस्य माना और उसके प्रतिनिधि प्रथम बार सन् 1970 से अन्य वैज्ञानिकों के साथ बैठे। परामनोविज्ञान का क्षेत्र बहुत विस्तृत है उसमें मस्तिष्क को प्रभावित करने वाले और मस्तिष्क द्वारा प्रभावित होने वाले सभी आधारों को सम्मिलित रखा गया है। उसकी एक शाखा अतीन्द्रिय विज्ञान की है जिसे पी.एस.आई. कहा जाता है। इसमें टेलीपैथी, पूर्व ज्ञान-अतीन्द्रिय दृष्टि, भविष्य आभास स्वप्नदोष, साइकोकाइनेसिस आदि धाराएँ सम्मिलित है।

विचार संचालन, टेलीपैथी के अंतर्गत बिना यन्त्रों संकेतों या इन्द्रियों की सहायता के दूरस्थ व्यक्तियों द्वारा परस्पर विचार विनिमय की प्रक्रिया आती है। अतींद्रिय दृष्टि में बिना आँखों की सहायता के दृश्यों को देखा जाना सम्मिलित है। पूर्व ज्ञान से बीती हुई घटनाओं को जानना और भविष्य ज्ञान में भावी सम्भावनाओं का परिचय प्राप्त करने की बात है। स्वप्न बोध में, स्वप्नों में व्यक्ति की स्थिति अथवा अविज्ञात घटना क्रमों के भूतकालीन अथवा भावी संकेत समझे जाते हैं। साइकोकाइनेसिस के अंतर्गत मस्तिष्क का वस्तुओं पर पड़ने वाला प्रभाव आँका जाता है। लूथर वरबेन्क ने पौधे, फूल, कीड़े, पक्षी और पशुओं पर अपनी भाव सम्वेदनाओं के भिन्न-भिन्न प्रभाव डालने में जो सफलता प्राप्त की है उससे शोधकर्ताओं का उत्साह बहुत बढ़ा और वे न केवल प्राणियों पर वरन् पदार्थों पर भी विचार शक्ति के आश्चर्यजनक प्रभावों को प्रमाणित कर सकने में सफल हुए।

मनोविज्ञान शास्त्र के जन्मदाताओं में अग्रणी फ्रायड ने अपने अनुसंधान प्रकरण में ‘अब चेतना’ का वर्णन किया है। फ्रेडरिक मायर्स ने उसे ‘सुप्रालिमिनल सेल्फ’ की संज्ञा दी थी। इसी संदर्भ में ‘मत लिमिनल सेल्फ’ को भी गिना जा सकता है। इसे हम उपचेतना कह सकते हैं।

मायर्स ने उपचेतना की अतींद्रिय शक्ति का विस्तृत विवेचन किया है और उसकी सम्भावनाओं पर ब्यौरे बार प्रकाश डाला है। उनका कथन है कि बिना इंद्रियों की अथवा उपकरणों की सहायता के भी मानवी मस्तिष्क इतना कुछ जान सकता है जिसे सामान्य नहीं असामान्य कहा जा सके। विशेष व्यक्ति विशेष अवसरों पर भविष्य में घटने वाली घटनाओं का पूर्व परिचय देते देखे गये हैं। अथवा तत्काल उसका विवरण बता देते हैं। अशरीरी प्रेतात्माओं द्वारा ऐसे प्रमाण प्रस्तुत करा सकना जिनसे उनके अस्तित्व की प्रामाणिकता सिद्ध होती हो इसी रहस्य ज्ञान के अंतर्गत आता है। किन्हीं व्यक्तियों को अनायास ही प्रेरणा मिलती देखी गई है जिसे अपनाकर उन्होंने प्रगति के नये सोपान उपलब्ध किये हैं।

मायर्स यों वैज्ञानिक थे और उनकी प्रतिपादन प्रणाली पूर्णतया वैज्ञानिक थी फिर भी उसका स्वयं का जीवन बड़ा रहस्यवादी रहा। उसे निज के जीवन में ऐसी अनुभूतियाँ होती रहीं जो रहस्यमय जगत के अस्तित्व को प्रमाणित करती थीं। अन्ततः उसने इस सम्बन्ध में विधिवत् शोधकार्य आरम्भ किया। पीछे हेनरी सिजविक नामक एक दूसरे वैज्ञानिक का सहयोग उसे प्राप्त हुआ। उन लोगों ने मिलकर ऐसे तथ्यों का संकलन किया जिनसे अदृश्य जगत और अतीन्द्रिय चेतना को चुनौती देकर सिद्ध किया जा सकता था। पीछे इन लोगों ने सुप्रसिद्ध साइकिकल रिसर्च सोसाइटी की स्थापना की उसके प्रामाणिक शोध कार्य से प्रभावित होकर ब्रिटेन के दो प्रख्यात प्रधान मन्त्री बालफूर और ग्लेडस्टर भी उस संस्था के सदस्य बने और एल फ्रेडवालेस, आलिवरलाज, विलियम क्रुक्स, डबल्यू.एफ. वैरेट जैसे सम्भ्रान्त व्यक्तियों ने उस कार्य में उत्साहपूर्वक योगदान दिया।

विचार संचार विद्या का टेलीपैथी नाम मायर्स का ही दिया हुआ है। टेली अर्थात् दूरवर्ती पैथी अर्थात् अनुभूति। रेडियो संचार से भी अधिक द्रुतगति से विचारों की तरंगें बहती हैं और वह देशकाल की समस्त मर्यादाओं को लाँघती हुई क्षण भर में ब्रह्मांड के किसी भी कोने में जा पहुँचती है। इसी प्रकार उसने अतीन्द्रिय विद्या के अन्य पक्षों पर बहुत कुछ खोजा जाना, संग्रह किया और पुस्तक रूप में प्रकाशित किया, यह सामग्री इस योग्य थी कि उसके पीछे भी उत्साह पूर्वक उस दिशा में प्रयास जारी रखे जा सकते थे। रखे भी गये।

अदृश्य लोक पर मायर्स की अटूट विश्वास था। जनवरी सन् 1901 में उनकी मृत्यु हुई। मरते समय उन्होंने बहुत ही प्रसन्न मुद्रा में अपने मित्रों से कहा- ”एक अनदेखे और अनजाने देश में छुट्टियाँ बिताने भर के लिए जा रहा हूँ।

दूरानुभूति क्रमशः एक अकाट्य तथ्य सिद्ध होती चली गई। परामनोविज्ञान को विश्व विद्यालयों के पाठ्य-क्रम में सम्मिलित किया गया। इस दिशा में पहला कदम उत्तरी केरोलिना के ड्यूक विश्व विद्यालय ने उठाया डा.राइन के नेतृत्व में परीक्षण का जो सिलसिला चला उससे प्रामाणिकता परिपुष्ट ही हुई। पीछे अन्य विश्व विद्यालयों ने उसका अनुगमन किया। क्वीनमेरी कालेज के गणित प्राध्यापक डा.एस.जी. सोल, कैंब्रिज विश्व विद्यालय के डा. हृटले कैरिगटन की खोजों से अतीन्द्रिय विज्ञान की एक नई धारा प्रकाश में आई जिसे ‘प्रीमानिशन’ नाम दिया गया। घटनाएँ घटित होने से पूर्व उनका आभास मिलना इस विद्या का शोध विषय है।

सम्मोहन विद्या का वशीकरण मूर्छा प्रयोग दैवी आवेश आदि के रूप में प्रचलन तो पहले भी था, पर उसे व्यवस्थित रूप अठारहवीं शताब्दी के आरम्भ में आस्ट्रिया निवासी डाक्टर फ्रान्ज मेम्मर ने दिया। उन्होंने मानवी विद्युत का अस्तित्व, स्वरूप और उपयोग सिद्ध करने में घोर परिश्रम किया और उसके आधार पर कठिन रोगों के उपचार में बहुत ख्याति कमाई। वे अपने शरीर की बिजली का रोगियों पर आघात करते साथ ही लौह चुम्बक भी आवश्यकतानुसार प्रयोग में लाते। इस दुहने प्रभाव से न केवल शारीरिक वरन् मानसिक रोगों के उपचार में भी उनने आशातीत सफलता प्राप्त की।

मेस्मर के शिष्य प्युइसेग्यूर ने प्रयोग को अधिक तत्परतापूर्वक आगे बढ़ाया और उन्होंने चुम्बकीय शक्ति द्वारा तन्द्रा उत्पन्न करने में नई सफलताएँ पाइ। यह तन्द्रा मानसिक तनाव को विश्राम द्वारा शान्त करने और अब चेतना के रहस्यमय परतों को खोलने में बहुत कारगर सिद्ध हुई। इस प्रकार बिना चिकित्सक की सहायता के भी कोई व्यक्ति स्वनिर्देशन विधि का उपयोग करके अपनी शारीरिक एवं मानसिक चिकित्सा आप कर सकता है।

सम्मोहन प्रयोग से गहरी निद्रा लाकर गहरे आपरेशन करने में समग्र सफलता सबसे पहले डा. ऐसडेल को मिली। उन्होंने लगभग 300 ऐसे आपरेशन किये। उनके दावे विवादास्पद माने गये अस्तु सरकारी जाँच कमीशन बिठाया गया कमीशन ने अपनी उपस्थिति में ऐसे आपरेशन कराये और ऐसडेल के प्रयोगों को यथार्थ घोषित किया। यह प्रक्रिया संसार भर में फैली। फ्रांस के डा. सार्क को इस विधि से हिस्टीरिया को अच्छा करने में कारगर सफलता मिली। मनोविश्लेषण विज्ञान को मूर्त रूप देने वाले डा.फ्रायड ने अपने प्रतिपादनों में डा.सार्का के प्रयोगों से विशेष प्रेरणा ली थी।

इंग्लैंड की रायल मेडिकल सोसाइटी के अध्यक्ष तथा लन्दन विश्व-विद्यालय में चिकित्सा विज्ञान के प्राध्यापक डा. जान एलियट सन ने सम्मोहन विज्ञान में सन्निहित तथ्यों को बहुत उपयोगी पाया और वे इस प्रयत्न में जुट पड़े कि रोगी को पीड़ा की अनुभूति से बचाकर आपरेशन करने में इस विद्या का उपयोग किया जा सकता है उन दिनों बेहोश करने की दवाओं का आविष्कार नहीं हुआ था। आपरेशन के समय रोगी कष्ट पाते थे। इस कठिनाई को हल करने में सम्मोहन विज्ञान बड़ी सहायता कर सकता है। इसी दृष्टि से उनका अनुसन्धान एवं प्रयोग कार्य चलता रहा इसमें उन्हें आरम्भिक सफलता भी मिली।

इसी शोध संदर्भ में इंग्लैंड के एक दूसरे डाक्टर जेम्स ब्रेड ने यह सिद्ध किया कि दूसरे के प्रयोग से ही नहीं वरन् आत्म निर्देशों से एवं ध्यान की एकाग्रता से भी सम्मोहन निद्रा की स्थिति बुला लेना सम्भव है। दूसरों के दिये सुझाव को बिना किसी तर्क-वितर्क के स्वीकार कर लेना एक अद्भुत बात है। इसमें तर्क शक्ति लगभग प्रसुप्त स्थिति में चली जाती है और आदेश अनुशासन पालन करने वाली श्रद्धा का आधिपत्य मस्तिष्क पर छाया रहता है। इस स्थिति में लाभ उठाकर उपचारकर्ता मन में जमी हुई अवाँछनीय परतों को उखाड़ कर उस जगह नई स्थापनाएँ करता है। यह शारीरिक सर्जन जैसी क्रिया है। सड़े अंग काट कर फेंक देना और उस स्थान पर ई चमड़ी, नया माँस जोड़ देना सर्जरी के अंतर्गत सरल ह। इसी प्रकार सम्मोहन विद्या-हिप्नोटिज्म के प्रयोगों से मन की विकृतियों के झाड़-झंखाड़ उखाड़ना और उनके स्थान पर नई पौध जमाना सम्भव होता है। उपचारकर्ता यही करते हैं। यों इन प्रयोगों का एक हानिकारक पक्ष भी है जिसे भूतकाल में तान्त्रिक लोग किन्हीं को क्षति पहुँचाने के लिए मरण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि रूपों में करते रहे हैं।

अपोलो 14 अन्तरिक्षयान के तीन सदस्यों में से एक थे एडगर मिचेल। उन्होंने अपनी यात्रा के साथ-साथ एक व्यक्तिगत परीक्षण भी सम्मिलित रखा। क्या पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के बाहर भी विचार संचालन का क्रम चल सकता है? क्या टेलीपैथी अंतर्ग्रही ही आदान-प्रदान का माध्यम बन सकती है? क्या लोक लोकान्तरों के निवासी परस्पर विचार विनिमय कर सकते हैं। यदि ऐसा सम्भव हो सके तो इसे चेतना के क्षेत्र में एक बहुत बड़ी उपलब्धि कहा जायगा।

मिचेल ने चन्द्र यात्रा की लम्बी उड़ान में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बाहर निकलने के बाद अपने कुछ मित्रों के साथ टेलीपैथी के आधार पर दिचार विनिमय किया। कुछ सन्देश भेजने और कुछ पाने के लिए समय निर्धारित रखा जो उन्होंने भेजा उसे उनके मित्रों ने और जो मित्रों ने भेजा उसे उन्होंने ग्रहण किया। लौटने पर लेखा-जोखा लिया गया तो उसमें शत-प्रतिशत तो नहीं, पर बड़ी मात्रा में यथार्थता पाई। श्री मिचेल ने इस संदर्भ में अपना अभिमत व्यक्त करते हुए कहा- ’यह स्थापना हो चुकी है कि टेलीपैथी एक यथार्थता है। उसकी शोध उसी प्रकार होनी चाहिए जिस प्रकार अन्य वैज्ञानिक तथ्यों की होती है।

अब वे दिन लद गये जिनमें यह कहा जाता था कि-’मस्तिष्क में इन्द्रिय छिद्रों के अतिरिक्त अन्य किसी माध्यम से ज्ञान का प्रवेश नहीं हो सकता।’ प्लेटो की मान्यताएँ ऐसी ही थी। पर अब वैसा कोई नहीं कहता- ई.सी.पी. के विद्युताग्र मस्तिष्क को असाधारण रूप से प्रभावित करते हैं। उस सफलता के आधार पर यह वायदा किया जाने लगा है कि बिना सर्जरी के ही अमुक विचार प्रवाह से किसी के या किन्हीं के मस्तिष्क की स्थिति बदली जा सकेगी। उसे अपनी मान्यताएँ बदलने, चिन्तन की धारा बदलने और नये किस्म का कुछ भी सोचने के लिए विवश किया जा सकेगा। अब मस्तिष्क व्यक्तिगत सम्पत्ति न रहकर सार्वजनिक प्रयोग परीक्षण का-क्रीड़ा विनोद का क्षेत्र बनता जा रहा है। पार्क में सैर करने की तरह किसी के मस्तिष्क में भी अनिच्छित विचार प्रवेश कर सकते हैं और उन्हें स्थान देने के लिए किसी भी व्यक्ति को बाध्य किया जा सकता है।

यह कुछ थोड़ी सी उपलब्धियां हैं जो सम्मोहन विज्ञान, दूर-दर्शन, दूरश्रवण, दूरानुभूति, विचार संचालन आदि के क्षेत्र में प्राप्त हुई हैं। अगले दिनों इस दिशा में बहुत कुछ प्राप्त होने की आशा की जा रही है और माना जा रहा है कि मनुष्य अतीन्द्रिय चेतना के क्षेत्र में भी प्रगति करके सिद्ध पुरुषों और योगियों की स्थिति तक पहुंच सकेगा।


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