क्षुद्रता अपना कर हम पाते कुछ नहीं खोते ही हैं।

June 1975

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प्रकृति एक सारगर्भित पुस्तक है, उसे खुली आँखों से देखें तो उन तथ्यों के निकट पहुँच सकते हैं जो मनुष्य के वैयक्तिक और सामाजिक जीवन के लिए अति महत्वपूर्ण और मार्गदर्शक निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं।

मनुष्य कृत पुस्तकों में भ्रान्त धारणाओं का प्रतिपादन हो सकता है किन्तु प्रकृति की पुस्तक ऐसे महान लेखक द्वारा लिखी गई है जो इस विश्व का मूल सृजेता है। वह हम जीवधारियों को जो सिखाना समझाना चाहता है वह सब कुछ उस महान ग्रन्थ में लिखकर रख दिया है जिसके पन्ने हमारे चारों ओर बिखरे पड़े हैं। आवश्यकता उन सूक्ष्मदर्शी नेत्रों की है जो उन संकेतों को देश समझ सकें और उन्हें हृदयंगम करके समुचित लाभ उठा सकें।

अनन्त अन्तरिक्ष पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो करोड़ों निहारिकाओं और उनके इर्द-गिर्द घूमने वाले अरबों तारकों का अस्तित्व देखते हैं। खुली आँखों से तो आकाश में कोई तीन हजार ही तारे दीखते हैं, पर दूरबीनों और रेडियो से उनकी संख्या सहस्रों गुनी अधिक दीखती।

अपने सौरमण्डल में जो ग्रह है उनके बारे में सहस्रों वर्षों से खोजा और जाना जा रहा है। पर कुछ ही समय पूर्व क्षूद्र ग्रहों की एक पट्टी देखने में आई है जो अपने बिलकुल समीप है ओर जिनकी संख्या आश्चर्यजनक है। उनकी जो जानकारियाँ मिली हैं वे जितनी आश्चर्यजनक हैं उतनी ही शिक्षाप्रद भी।

सूर्य के समीपवर्ती ग्रहों में बुध, शुक्र, पृथ्वी और मंगल को गिना जा सकता है। दूरवर्ती शनि, यूरेनस और नेपच्यून है। बृहस्पति मध्यवर्ती है। दूरवर्ती वर्ग के तीनों ग्रह अपेक्षाकृत समीप हैं इसी प्रकार निकटवर्ती चार ग्रहों का फासला भी आपस में कम है। इन्हें दो गुटों में बँटा हुआ कह सकते हैं। बृहस्पति बीच में अकेला पड़ता है। उसकी दूरी दोनों ही वर्गों से काफी अधिक है। बीच के सुविस्तृत अन्तरिक्ष में वह अकेला ही अपना आधिपत्य जमाये हुए है।

समीपवर्ती वर्ग के ग्रहों में अन्तिम मंगल है। उससे बृहस्पति की दूरी पैंतीस करोड़ मील है। इस सुविस्तृत क्षेत्र को पहले खाली पड़ा हुआ समझा जाता था, पर अब जान लिया गया है कि उस विशाल विस्तार वाले आकाश पर सूर्य के बीते वेदों का अधिकार है और वे वहाँ आनंदपूर्वक निवास करते हैं। सूर्य के इन बौने बेटों को क्षुद्रग्रह, लघुग्रह, अवान्तर ग्रह अथवा एस्ट्रायड कहा जाता है।

इनका पता पहले पहल सिसली की वेधशाला ने सन् 1801 में लगाया उसके अध्यक्ष प्रो.पियाज्जी ने एक छोटा तारा मंगल और बृहस्पति के बीच में घूमते देखा और उसका नाम सिसली की देवी के नाम पर ‘सैरस’ रख दिया। इसके बाद दूरबीनों से एक के बाद दूसरा लघुग्रह पहचानना आरम्भ कर दिया। हेनरिख, ओल्वेर्स, प्लास, जूनो, बेस्ता आदि नाम उन्हें दिये गये। जो पकड़ में आते गये उन्हें रोमन, ग्रीक, जर्मन, नार्वेजियन, देवी-देवताओं के नाम पर संबोधित किया जाता रहा पीछे वे इतनी बड़ी संख्या में देखे गये कि नामकरण का उत्साह ही ठंडा पड़ गया। खगोलशास्त्री रिचर्डसन के समय तक वे 44 हजार की संख्या में गिन लिये गये थे। अब रूसी वैज्ञानिकों ने उनकी संख्या एक लाख से भी अधिक सिद्ध कर दी है।

यह लघु ग्रह कौन है? क्या है? कैसे बने? आदि प्रश्नों का सही उत्तर ढूंढ़ने में खगोल शास्त्री गम्भीरता पूर्वक संलग्न है। इस शोध में संलग्न ओल्वेर्स, हाइडेवर्ग एवं ओर्ट का कथन है कि अति प्राचीन काल में मंगल और बृहस्पति के बीच दो पूर्ण ग्रह भ्रमण करते थे, वे एकबार आपस में टकरा गये और उनका चूरा छितरा कर इन लघुग्रहों के रूप में बिखर गया और एक नियत कक्षा में सूर्य की परिक्रमा करने लगा।

सहयोग-संघर्ष के भले-बुरे परिणाम हमारे सामने हैं। पारस्परिक सहयोग के बल पर सौरमण्डल के ग्रह कितने सुन्दर समुन्नत हैं और फल-फूल रहे हैं। सूर्य का सहयोग पाकर पृथ्वी कितनी सुसंपन्न है। यदि उसे सविता देवता का अनुदान न मिला होता तो ठण्डे और अँधेरे किसी अविज्ञात ग्रह पिण्ड के रूप में वह उपेक्षित जीवन जी रही होती। सूर्य भी यदि सहयोग देकर सौरमण्डल के ग्रहों को संभालने का उत्तरदायित्व वहन न करता तो उसे वह श्रेय न मिलता जो आज उपलब्ध है। तब वह अन्य किसी सूर्य की परिक्रमा में निरत एक छोटा तारक मात्र रह जाता और उसकी गरिमा का किसी को लाभ मिलना तो दूर परिचय भी प्राप्त न होता। सहयोग देकर और लेकर सूर्य ने कुछ खोया नहीं पाया ही है। स्वयं भी लाभान्वित हुआ है और दूसरों को भी लाभान्वित किया है।

दूसरी ओर वे मूर्ख दो ग्रह थे जो आवेशग्रस्त हुए, भटके और परस्पर टकरा गये। यदि वे जीवित रहे होते तो नवग्रहों की अपेक्षा ग्यारह ग्रहों वाला अधिक समृद्ध अपना सौरमंडल होता और वे स्वयं भी अपनी गरिमा से ब्रह्मांड की शोभा बढ़ाते। उनके अस्तित्व का लाभ न जाने कितने प्राणियों और ग्रह पिण्डों को किस-किस प्रकार मिलता, पर टकरा कर उन्होंने पाया कुछ नहीं खोया ही खोया। अब उनका चूरा बुरादा उपहासास्पद स्थिति में छितराया हुआ भ्रमण कर रहा है और अपने पूर्वजों की मूर्खता के इतिहास का वर्णन कर रहा है।

ये लघुग्रह बहुत छोटे-छोटे हैं। इनमें कुछ बड़े भी हैं। सीरीज का 2500 और पलास का व्यास 500 किलोमीटर है। सैरस का 427, वेस्ता का 400, जूनो का 200 और ईरोस का 15 मील व्यास है। इससे भी छोटों में आमीर 5 मील का एलवर्ट और जेवी का तीन-तीन मील है। एक-एक मील के व्यास के तो हजारों हैं। इनसे भी छोटों को ठीक तरह गिना और नापा नहीं जा सका है। जो जितना छोटा है उसकी अपनी आकर्षण शक्ति भी कम है और वह दूसरों के खिचाव से उतना ही कम बँधा होता है। अस्तु इनकी उच्छृंखलतापूर्वक किधर भी दौड़ पड़ने की आशंका सदा ही बनी रहती है अक्सर वे अपना नियत निर्धारित मार्ग छोड़कर पथ भ्रष्ट होते रहते हैं।

इन्हीं में से एक मनचला सूर्य का बौना बेटा सन् 1908 में धरती की सैर करने चल पड़ा था। बेचारा पृथ्वी के वायुमण्डल में घुसते ही बुरी तरह जल गया और उसका ढाँचा साइबेरिया के जंगल में जा गिरा। यह कंकाल एक हजार फुट व्यास के एक उल्कापिण्ड के रूप में था। वह जहां गिरा वहाँ गहरा खड्ड बना दिया और समीपवर्ती क्षेत्र में भयंकर अग्निकाण्ड खड़ा कर दिया।

इनमें से कुछ क्षुद्र ग्रहों ने अपनी विचित्र भ्रमण कक्षाएँ बना ली हैं। ईरोस पृथ्वी के पास डेढ़ करोड़ मील तक समीप आ पहुँचता है और उसकी प्रचण्ड आकर्षण शक्ति से डर कर फिर वापिस लौट जाता है। किसी दिन बढ़ने की हिमायत की तो उसकी भी वही दुर्गति होगी, किन्तु पृथ्वी को भी उस टक्कर से कम नुकसान नहीं पहुँचेगा। हाइडाल्गो को शनि का धाई छूने का शौक चर्राया है वह वहाँ तक पहुँचता तो है, पर उस महादैत्य द्वारा निगल लिये जाने की आशंका से डरकर वह भी वापिस लौट जाता है। इकारस इन सबसे ढीठ है, वह सूर्य और बुध के बीच के भयंकर गरम क्षेत्र में घुस पड़ता है। किसी दिन उसकी भी शामत आई ही रखी है। एक बार तो उसने पृथ्वी से टकराकर आत्म-हत्या करने की ही ठान ली थी सन् 1968 का मुहूर्त उसे इसके लिए अच्छा नहीं लगा और कुछ सोच-समझकर वापिस लौट गया। इससे पूर्व सन् 1937 में हर्मेय भी पृथ्वी के बिलकुल नजदीक पाँच लाख मील पर ही आ धमका था पर उसकी अकल मृत्यु भी किसी प्रकार टल गई।

क्षुद्रता उच्छृंखलता के रूप में विकसित होती है और दूसरों के लिए ही नहीं अपने लिए भी संकट उत्पन्न करती है। जो महान हैं वे इस तथ्य को समझते हैं और मर्यादा में रहकर अपनी शालीनता का परिचय देते हैं। क्षुद्रता का अनाचार बरतने और उद्धत आचरण करने में ही मजा आता है। उस स्तर की सत्ताएँ अपनी बहादुरी आतंकवादी गतिविधियों के रूप में प्रदर्शित करती हैं। उनका अहंकार इस रूप में प्रकट होता है कि सब लोग कमजोर थे इसलिए वे सीधी राह पर चले और वे अधिक साहसी थे इसलिए उच्छृंखलता, स्वेच्छाचार बरतने लगे। सोचने का यह तरीका बचकाना ही नहीं हानिकारक भी है इसे न वे शुद्र ग्रह ही समझते हैं और न उसी स्तर की मनोवृत्ति वाले हममें से अधिकाँश लोग।

चन्द्रमा पर वायुमण्डल नहीं है इसलिए वहाँ जलने का खतरा न देखकर वे क्षुद्र ग्रह उल्काओं के रूप में जा पहुँचते हैं। उनका जो हस्र होता है वह प्रत्यक्ष है। उनने टकराकर चन्द्रमा में गहरे खड्ड किये हैं उसे कुरूप बनाया है साथ ही अपना अस्तित्व भी सदा के लिए समाप्त कर लिया है।

चन्द्रमा को कुरूप उन्होंने बनाया, इतने दुस्साहस पर वे प्रसन्न भी हो सकते हैं पर बिगाड़ने में भी भला क्या कोई बड़प्पन है, इसे वे नहीं सोच पाते। दूसरे का बिगाड़ करने में उनने सफलता जरूर पाई, पर साथ ही अपना अस्तित्व भी तो खो बैठे। चन्द्र तल को कुरूप बनाने की सफलता के लिए उनकी कौन प्रशंसा करेगा। बड़े से बड़ा बिगाड़ अग्निकाण्ड तो यह छोटी दियासलाई भी कर सकती है- बड़प्पन बनाने में है। किसने क्या बनाया, इसी आधार पर महानता नापी जाती है इस तथ्य का यदि इन अभागे क्षुद्र ग्रहों को पता रहा होता तो चन्द्र तल से टकराकर आत्म हत्या करने की अपेक्षा उन्होंने कोई रचनात्मक गतिविधि अपनाई होती ओर अपनी गतिविधियों से कहीं किसी को लाभान्वित किया होता और स्वयं श्रेय पाया होता।

धरती वाले इन पर पैनी निगाह लगाये हुए हैं। जिस प्रकार चिर प्राचीन काल में मनुष्य ने पशुओं को जंगल में से पकड़ा अपना वशवर्ती बनाया और उनसे तरह-तरह के लाभ लिये। ठीक इसी प्रकार अब इन क्षुद्र ग्रहों की बारी है। इनका गुरुत्वाकर्षण बहुत क्षीण है। वे अन्य साथियों के साथ-भी मजबूती से बँधे हुए नहीं हैं। कोई बड़ा ग्रह भी उन्हें अपनी छत्रछाया में जिम्मेदारी के साथ सँभालता नहीं है। अस्तु वे एक प्रकार से अनाथ और असहाय की स्थिति में रह जाते हैं। जंगली हाथियों को जिस प्रकार मजबूत रस्सों से पकड़ कर वशवर्ती बना लिया जाता है उसी प्रकार इनमें से भी कुछ को पकड़ा घसीटा और अभीष्ट प्रयोजन के लिए जोता जा सकेगा, ऐसा वैज्ञानिकों का विश्वास है। आकाश सागर में विचरण करते इन मगरमच्छों को पकड़ने के लिए मानवी प्रयोगशालाओं में ऐसे रस्से बँटे जा रहे हैं जिनसे इनकी मुश्के बाँधी जा सकें और नाक में नकेल ढाली जा सकें।

सोचा यह गया है कि इन क्षुद्र ग्रहों को अन्तर्ग्रही मात्राओं में पड़ाव की तरह इस्तेमाल किया जा सकेगा। उन पर सराय खड़ी की जा सकेगी। कुछ पर उपयोगी प्रयोगशालाएँ बनाई जा सकेंगी। वहाँ से पृथ्वी की संचार व्यवस्था को सुलभ बनाया जा सकेगा। सौरमण्डल की परिधि में तथा उससे बाहर की सीमा में दूर-दूर तक देख सकने वाली आँखें भी इनमें फिट की जा सकेंगी, जो पृथ्वी वालों को आवश्यक जानकारियाँ प्रदान करती रहें। इनमें से कुछ को पकड़ कर धरती पर लाया जायगा और उनको चीर-फाड़कर यह पता लगाया जायगा कि वे आखिर है क्या? और किसलिए आकाश में उच्छृंखल मटरगश्ती कर रहे हैं।

धरती वाले जो सोचते हैं सो नीति युक्त ही है। क्षुद्रता को नियन्त्रण में रखने के लिए चेष्टा होती ही है। उच्छृंखलता बरतने वाले बाँधे और पकड़े जाते हैं। जिन्होंने अपनी गरिमा छोड़ दी महानता सुरक्षित नहीं रखी और क्षुद्रता को अपनाया उनकी दुर्गति होनी ही है जैसी कि निकट भविष्य में इन क्षुद्र ग्रहों की होनी सम्भव है। ऐसा न भी हो सके तो वे बौने उपहासास्पद तो बने ही रहेंगे और अपनी तथा अपने पूर्वजों की क्षुद्रता का प्रमाण ही प्रस्तुत करते रहेंगे। यही सब हेय उपलब्धियाँ वे लोग प्राप्त करते हैं जिन्होंने महानता का राजमार्ग छोड़कर क्षुद्रता की उच्छृंखलता को अपनाया।


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