हमारी उदारता विवेक सम्मत हो

June 1975

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जो असमर्थ है उन्हें सहायता देना उचित है ताकि साधनों के अभाव में जो प्रगति रुकी पड़ी थी उसका पथ-प्रशस्त हो सके। समुन्नत व्यक्तियों का कर्तव्य है कि वे दूसरे पिछड़े हुए व्यक्तियों को ऊँचा उठाने के लिए साधन उपलब्ध करें और वह प्रकाश भरी प्रेरणा प्रदान करें जिससे निराशा और अवसाद की मनः स्थिति को साहस एवं उत्साह का जन-जीवन मिले सके। ऐसी सहायता करना किसी समर्थ व्यक्ति की उदारता का चिन्ह है, दूसरे शब्दों में इसे महानता की प्रतीत भी कह सकते हैं। यह उदार सहकारिता समाज को स्वस्थ परम्परा प्रस्तुत करती है और हर सामर्थ्यवान को यह उद्बोधन करती है कि सफलताओं का लाभ अपने तक ही सीमित न रखा जाय वरन् उससे उन्हें भी लाभान्वित होने दिया जाय जो उचित मार्ग-दर्शन एवं सहकार के अभाव में गई-गुजरी स्थिति में पड़े हुए दिन काट रहे हैं। यह उदारता की सद्भावना का उज्ज्वल पक्ष हुआ।

दान वृत्ति का एक अंधेरा पक्ष भी है। वह यह कि कोई व्यक्ति अपने पैरों पर खड़ा होने की स्थिति में रहने पर भी-श्रम और मनोयोग का उपयोग करने में आलस्य, प्रमाद बरतें, काम से जी चुरायें, मेहनत से कतरायें और दूसरों के कन्धों पर लदकर सुविधाएँ प्राप्त करते रहने का प्रयास करें। यह बुरी बात है। इसे भिक्षावृत्ति के हेय नाम से पुकारा जाता है। किसी समर्थ व्यक्ति के लिए इससे अधिक अपमान की बात दूसरी नहीं हो सकती कि वह स्वयं निर्वाह कर सकने की क्षमता सम्पन्न होते हुए भी गुजारे के लिए दूसरों के सामने हाथ पसारे, ऐसा परावलम्बन उन्हें ही स्वीकार हो सकता है जो आत्म-सम्मान खो चुके हों।

अहिर्निशि निर्वाह व्यवस्था करना विज्ञ समाज का कर्तव्य है सो किया भी जाता है। लोकसेवी साधु, ब्राह्मणों का सम्मानपूर्वक ब्रह्मभोज एवं दान दक्षिणा से कृतज्ञता सम्पन्न जनता चिरकाल से करती रही है किन्तु वह लाभ जब वैसा ही वेष बनाकर व्यक्तिवादी जीवन जीने वाले मुफ्तखोर लोग प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ते हैं तो इससे भ्रष्टाचार पनपता है। जो बिना उचित बदला चुकाये प्राप्त किया गया है वह स्पष्टतः अनाधिकार है- अग्राह्य है। मुफ्तखोरी को चारित्रिक भ्रष्टता का पापाचार माना जाना चाहिए। भले ही उसे अपनाने वाले किसी भी वेष या वंश के लोग क्यों न हों।

मुफ्तखोरी को प्रोत्साहन देना उस उद्देश्य से सर्वथा विपरीत है जो उदार दानवृत्ति के साथ जुड़ा हुआ है। सहायता इसलिए दी जानी चाहिए कि प्रगति पथ पर आगे बढ़ने के लिए उन साधनों की उपलब्धि हो सके जिसके बिना पिछड़े हुए व्यक्ति को विकास की दिशा में कदम उठा सकना शक्य नहीं हो रहा था, दान का उपयोग बीज बोने की तरह किया जाना चाहिए जिसका प्रतिफल बहुमुखी प्रगति एवं समृद्धि के रूप में देखा जा सके।

जो सर्वथा अपंग है जिनकी समस्त उपार्जन क्षमताएँ समाप्त हो गई उन्हें जीवित रहने के लिए समाज की उदारता पर निर्भर रहने का अधिकार है। उस असमर्थ व्यक्ति को करुणापूर्वक निर्वाह मिलना चाहिए। किन्तु इससे आगे बढ़ने वाली भिक्षावृत्ति को सर्वथा निरुत्साहित किया जाना चाहिए। बहुत से व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनका एकाध अंग ही असमर्थ है वे उसकी पूर्ति अन्य अंगों से कर सकते हैं और चाहें तो अपने निर्वाह का उपार्जन कर सकते हैं। अँधे लँगड़े, लूले, गूँगे, बहरे, पंगे आदि बाधित लोग अपनी अन्य इंद्रियों का उपयोग करके निर्वाह के लायक कमा सकते हैं और स्वावलम्बी जीवन जी सकते हैं। ऐसे लोगों को मुफ्तखोरी की आदत का अभ्यस्त बना देना उनके साथ अन्याय करना है। प्रकृति ने उन्हें बाधित बनाया मनुष्य का कर्तव्य है कि उस बाधा पर विजय प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ का परिचय दे। अपंगों को, अविकसितों को, पिछड़े हुओं को ऐसा सहकार मिलना चाहिए जिसके आधार पर वे काम करके उपार्जन की क्षमता, एवं सुविधा प्राप्त कर सकें। इसके लिए श्रम संस्थाएँ एवं उद्योग ग्रहों की स्थापना होनी चाहिए।

सस्ती भावुकता के साथ प्रदर्शित की गई दान शीलता कई बार पुण्य के बदले भयंकर पाप जैसा दुष्परिणाम उत्पन्न करती है। अपने को लोगों की दृष्टि में पुण्यात्मा प्रदर्शित करने के लिए कितने ही दान शीलता के पाखण्ड रचते हुए अनेक व्यक्ति देखे जाते हैं। दम, प्रदर्शन और अहंकार की पूर्ति के लिए सस्ती विज्ञापनबाजी जैसी भ्रष्ट दानशीलता का ही आज बाहुल्य है। धर्म के नाम पर ऐसी ही विडम्बनाएँ चलती रहती है। इसका परिणाम एक ही होता है अकर्मण्यता और परावलम्बन का अभिवर्धन। प्रकारान्तर से यह प्रवृत्ति समाज और व्यक्ति के लिए अभिशाप ही सिद्ध होती है। भिक्षुक ने निर्वाह के लिए कुछ प्राप्त करके जो लाभ उठाया उसकी तुलना में आत्म-गौरव खोने तथा परोपजीवी निष्क्रियता जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ ओढ़ लेने की हानि भी तो उठानी पड़ी। वस्तुतः यह हानि इतनी बड़ी है जिसकी तुलना में भिक्षा से मिला लाभ नगण्य ही समझा जाना चाहिए।

वातावरण ऐसा बनाया जाना चाहिए जिसमें भिक्षावृत्ति को प्रोत्साहन न मिले। आज के भिक्षुकों में अधिकाँश ऐसे हैं जो यदि चाहें तो प्रसन्नतापूर्वक उपार्जन कर सकते और स्वावलंबी सम्मानित जीवन जी सकते हैं उन्हें भिक्षा मँगाने की आदत इसलिए हो जाती है कि उथली भावुकता, दम्भी, अहंकारिता और धर्मध्वजी बनने की प्रदर्शन प्रियता कहीं न कहीं अपना पैसा बखेरेगी ही। उसे कोई तो लेगा ही। यह आलसी और दान वृत्ति के लिए बढ़कर आगे आ जाते हैं और हाथ पसार कर उन धर्म दम्भियों की मनोकामना पूर्ण करते हैं जो कुछ ही पैसे देकर सस्ती स्वर्ग की टिकट खरीदने के लिए आतुर फिरते रहते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि जिन्हें दान दिया जा रहा है उन्हें मुफ्तखोरी की बुरी आदत लगाने और स्वाभिमान बेचकर आत्मिक पतन के गर्त में धकेलने का कितना बड़ा उपहास उनके साथ किया जा रहा है। उथली दानशीलता यदि दूरदर्शी विवेक में रहती और इन समर्थ भिक्षुकों को निराश रहना पड़ता तो सम्भवतः इनमें तीन चौथाई लोग अपने स्वावलम्बी उपार्जन की समस्या हल कर चुके होते। ऐसा नहीं बन पड़ा इसका एक कारण जहाँ भिक्षुकों की आत्म-हीनता को कारण माना जायगा वहाँ इस सस्ते दानवीरों को भी कम दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

पूजा, उपासना करते हुए स्वर्ग मुक्ति का लाभ उठाने की प्रक्रिया विशुद्ध व्यक्तिवादी है। अपने लिए लाभ उठाने में निरत लोग अपने निर्वाह के लिए दूसरों पर निर्भर करे यह बड़ी अजीब बात है। जब किसान, दुकानदार, शिल्पी अपने उपार्जन भर निर्वाह करते हैं तो कोई भजनानन्दी ही भिक्षा पर निर्भर क्यों रहे? प्राचीन काल के साधु, ब्राह्मणों की परम्परा अलग थी वे भजन भी करते थे, पर साथ ही लोक-मंगल के लिए इतना अथक श्रम करते थे जिसका मूल्य उन्हें दी गई भिक्षा से हजारों गुना अधिक होता था पर आज तो वैसा कुछ नहीं होता। ऐसी दशा में केवल वेष या वंश के आधार पर भिक्षा माँगने या देने की बात किसी भी दृष्टि से औचित्यपूर्ण नहीं रह जाती।

उदारता की सत्प्रवृत्ति को जीवित रहना चाहिए। सेवा, सहकार और दान परम्परा को पूरा प्रोत्साहन मिलना चाहिए ताकि समर्थता को गौरवान्वित होने का अवसर मिले-पिछड़े लोग ऊँचे उठें और मानवीय सहयोग की पुण्य परम्परा का अधिकाधिक पोषण सम्भव हो सके। समाज से पिछड़ापन दूर करने के लिए भौतिक एवं आत्मिक प्रगति के विविध विध क्रिया-कलापों का अभिवर्धन होना चाहिए और उसमें धनी एवं निर्धन हर व्यक्ति को सहयोग देना चाहिए। यह सब विवेकशीलता और दूरदर्शिता के साथ होना चाहिए। दान का परिणाम मानवी सद्गुणों और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के रूप में आना चाहिए। असमर्थता को सकरुण सहयोग मिलना चाहिए। तभी यह कहा जा सकेगा कि हम अविवेकी भावुकता से ऊपर उठकर उदार दानशीलता के महत्व समझ सकने योग्य बन सके।


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