भारतीय धर्म नारी के प्रति अनुदार नहीं

June 1975

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भारतीय धर्म नारी के प्रति निष्ठुर नहीं वरन् परम उदार है। मध्य-कालीन सामन्त वादी आतंक में नारी को बाधित करने की परम्परा चल पड़ी थी। उसकी छाया धर्म पुस्तकों में भी कहीं-कहीं झलकती है और लगती है कि भारतीय-धर्म, पुरुष को अधिक सुविधाएँ देता है नारी को अनुचित रीति से प्रतिबंधित करता है। ऐसे पक्षपात पूर्ण प्रसंगों को निन्दनीय और हेय ठहराया जाना उचित ही है। पर उन थोड़े से प्रक्षिप्त प्रसंग या प्रमाणों से ऐसा नहीं मान लेना चाहिए कि भारतीय धर्म नारी के प्रति अनुदार है।

भारतीय परम्परा नर से नारी को श्रेष्ठ मानने की है। उसको अधिक सम्मान दिया गया है और अधिक सद्व्यवहार करने के लिए निर्देश किया गया है। जहाँ भूलों का, बंधनों का प्रश्न है वहाँ नारी के साथ उदारता ही बरती गई है। नारी की गरिमा निस्संदेह पुरुष से अधिक है। नर को उसका अनुदान महान है। ऐसी स्थिति में उसे अधिक कृतज्ञता पूर्ण भाव भरा सम्मान और सद्व्यवहार मिलना ही चाहिए। आवश्यकतानुसार आपत्ति काल में उसके साथ सामाजिक नियमों से भी उदार सुविधाएँ भी मिलनी चाहिए। शास्त्रों में ऐसा ही उल्लेख है-

यो धर्म एकपत्नीमा काक्षन्ती तमनुत्तमम्। 12। मन 2/12

पुरुषों के लिए एक पत्नी व्रत ही उत्तम है।

स्त्रीषु प्रीतिविशेषण स्त्रीष्वपत्यं प्रतिष्ठितम्। धर्माथौं स्त्रीयु लक्ष्मीश्च स्त्रीयु लोकाः प्रतिष्ठिताः॥ चरक चि.स्थान भ्रं 2

स्त्रियों में स्नेह की मात्रा विशेष रूप से अधिक रहती है, धर्म की मात्रा उनमें अधिक रहती है। इसलिए उन्हें धर्मपत्नी का पद दिया जाता है। उनमें अर्थ तत्व भी है इसलिए उन्हें गृहलक्ष्मी कहते हैं। काम रूप होने से संतान को जन्म देती है। शक्ति रूप से लोक में प्रतिष्ठित होकर मोक्ष देती है।

तारः पतिः श्रुतिर्नारी क्षमा सा स स्वयं तपः। फलम्पतिः सत्क्रिया सा धन्यौ तो दम्पती शिवे। शिव पुराण

यदि पति ओंकार है तो स्त्री वेदश्रुति है। यदि स्त्री क्षमारूपिणी है तो पुरुष तपोरूप है। यदि पति फल है तो स्त्री सत्क्रिया है। हे पार्वती! जो ऐसे हैं वे दोनों ही स्त्री पुरुष महा धन्य हैं।

पोषितामनवमानेन प्रकृतेश्च पराभवः। देवी भगवन

नारी का अपमान उस पराशक्ति का अपमान है। इससे मनुष्य का पतन पराभव होता है।

जननी जन्य काले च स्नेह काले च कन्यका। भार्या भोगाय सम्पृक्ता अन्तकाले च कालिका। एकैव कालिका देवी विहरन्ती जगत्त्रये॥ महाभारत

वही महाशक्ति जननी के रूप में जन्म देती है, पुत्री के रूप में स्नेह पात्र बनती है। पत्नी के रूप में भाग प्रदान करती है। अन्त में कालिका चिता के रूप में अपनी गोदी में चिरनिद्रा में सुला देती है। वही तीनों लोकों में संव्याप्त है।

या काविद्गना लोके सा मातृ कुलसम्भवा। कुप्यन्ति कुलयोगिन्यों बनिताना ध्यतिक्रमात॥

स्त्रियं शतापराधञ्वेत पुष्पेणापि न ताडयेत्। दोषान्त गणयेत् स्त्रीणा गुणानैव प्रकाशयेत्॥ स्कंद पुराण

संसार की समस्त नारियाँ माता तुल्य हैं। उनका तिरस्कार होने से कुल देवी रुष्ट हो जाती है। स्त्रियों में सौ अपराध होने पर भी भूल से भी ताड़ना न करे। उनके दोषों पर ध्यान न दें। गुणों का ही बखान करें।

मोहादनादिगहनादनन्तगहनादपि। पतितं व्यवसायिन्यस्तारयन्ति कुलस्त्रिमः॥

शास्त्रार्थगुरुमत्रादि तथा नोत्तरणक्षमम्। यथैताः स्नेहशालिन्यो भतृणाँ कुलयोषितः॥

सखा भ्राता सुहद् भृत्यों गुरुमित्रं धनं सुखम। शास्त्रामायतनं दासः सर्व भर्तुः कुलाँगना॥

समग्रानन्दवृन्दानामेंतदेवोपरि स्थितम्। यत्समानमनोवृतित्तसंगमास्बादने सुखम्॥ -योगवशिष्ठ

सुशील स्त्रियाँ मनुष्य को मोह अन्धकार से पार कर देती है। शास्त्र, गुरु और मंत्र से भी वे संसार सागर से पार होने में अधिक सहायक सिद्ध होती है। स्नेह भरी स्त्रियाँ अपने पति के लिए सखा, बन्धु, सुहृद, सेवक, गुरु, मित्र, धन, सुख, शास्त्र, मंदिर आदि सभी कुछ होती हैं।

संसार के सब सुखों से बड़ा सुख समान गुण स्वभाव के पति-पत्नी को एक-दूसरे के साथ रहने में प्राप्त होता है।

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥

शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत् कुलम्। न शोचन्ति तु यत्रैता बर्द्धते तद्धि सर्वदा॥ -मनु.

जिस घर में नारी का सम्मान होता है वहाँ देवता निवास करते हैं। जहाँ नारी का तिरस्कार होता है वहाँ पग-पग पर असफलता मिलती है। जहाँ स्त्रियों को दुख रहता है, उत्पीड़न सहती है, वह कुल नष्ट हो जाता है। उन्नति वहाँ होती है जहाँ स्त्रियाँ प्रसन्न रहती है।

समझा जाता है कि पुरुष को कितने ही विवाह कर लेने, व्यभिचार करने आदि की छूट है और सारे बंधन नारी के मत्थे ही मढ़े गये हैं। बात ऐसी नहीं हैं। दोनों को ही सदाचारी होना चाहिए पर आपत्ति काल प्रस्तुत होने पर नारी को भी वैसी ही छूट प्राप्त करने का अधिकार दिया गया है। जैसी कि पुरुष प्राप्त करते चले आ रहे हैं। अचार-संहिता, नीति, धर्म, में किसी के साथ पक्षपात नहीं किया गया है। आपत्ति-कालीन सुविधाएँ स्त्रियों को भी प्राप्त हैं।

न स्त्री दुव्यति जारेण न विप्रो वेदकर्मणा। बलात्कारापभुक्ता चेद्वैरिहस्तगताअपि वा॥ -अग्नि पुराण

यदि अज्ञान वश स्त्री से व्यभिचार बन पड़ा हो, किसी ने अपहरण कर लिया हो या बलात्कार किया हो तो उस स्त्री को अशुद्ध नहीं समझना चाहिए।

असवर्णेस्तु यों गर्भः स्त्रीणाँ योनी निषिच्यते। अशुद्धा सा भवेन्नारी यावर्द्गभ न मुञ्चति॥

विमुक्ते तु ततः शल्ये रजश्रापि प्रदृश्यते। तदा सा शुद्धयते नारी विमलं काञ्चनं यथा॥

स्वयं विप्रतिपन्ना या यदि वा विप्रतारिता॥ बलान्नारी प्रभुक्ता वा चौरभुक्ता तथाअपि वा। न त्याज्या दूषिता नारी न कामोअस्या विधीयते॥ -अत्रि स्मृति

कदाचित कोई स्त्री अन्य व्यक्ति से गर्भ धारण करले तो उसे तभी तक अशुद्ध मानना चाहिए जब तक कि उदर में गर्भ है। प्रसव के पश्चात् प्रथम मासिक धर्म होने पर वह पूर्ववत् पुनः शुद्ध हो जाती है।

यदि किसी ने स्त्री को बहका लिया हो, छल से बल से उसका सतीत्व भंग किया हो। तो भी स्त्री का त्यागना उचित नहीं। क्योंकि वह उसने इच्छा तथा विवेक से नहीं किया है।

सोमः शौचं तासाँ गन्धर्वाश्च शुभाँ गिरम्। पावकः सर्वभक्षयत्वं नेध्या वै यौषितो ह्यतः॥ -याज्ञवल्क्य स्मृति 15

विवाह से पूर्व व्यभिचार आदि अपराध यदि स्त्री से बन पड़े हों तो फिर उन पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए। सोम, गंधर्व और अग्नि का स्त्रियों में जो निवास रहता है, उससे वे सर्वदा शुद्ध ही रहती है।

व्यभिचारादृतौ शुद्धिर्गर्भे त्यागो विधीयते। गर्भभतृवधादौ च तथा महति पातके॥ -याज्ञवल्क्य स्मृति

अप्रकाशित व्यभिचार के पाप की शुद्धि स्त्रियों को रजोदर्शन के साथ स्वतः हो जाती है।

पूर्व स्त्रियः सुरैर्मुक्ताः सोमगर्न्धववन्हिभि। भुञ्जते मानुषा पश्चान्नैता दुष्यन्ति केनचित्॥

असर्वेणेन यो गर्भः स्त्रीणा योनौ निपिच्यते। अशुद्धा तु भवेन्नारी यावच्छल्य न मुञ्चति॥ निः सृते तु ततः शल्ये रजसा शुध्यते ततः। -अग्नि पुराण

स्त्रियाँ सोम, गंधर्व और अग्नि इन तीन देवताओं द्वारा सेविता हैं। सो मनुष्य द्वारा उपभोग कर लेने पर भी वे अशुद्ध नहीं होतीं।

यदि उनके पेट में अवाँछनीय गर्भ आ जाता है तो वे गर्भ रहने तक ही अशुद्ध रहती है। प्रसव के उपरान्त उनकी पवित्रता फिर पूर्ववत् हो जाती है। मासिक धर्म स्त्रियों को हर महीने शुद्ध करता रहता है।

अदुष्टापतिताँ भायर्या यौवने यः परित्यजेत्। स्रपजन्म भवेत् स्त्रीत्व वैधव्यञ्च पुनः पुनः॥ -पाराशर स्मृति

जो निर्दोष पत्नी को युवावस्था में त्याग देता है। वह उस पाप से सात जन्मों तक स्त्री जन्म लेकर बार बार विधवा होता है।

नष्टे मृते प्रव्रजिते क्लीवे च पतिते पतौ। पञ्चस्वापत्सु नारीणा पतिरन्यौ न विद्यते॥ -पाराशर स्मृति

पति के मर जाने पर, नष्ट हो जाने पर, संन्यास ले लेने पर, नपुंसक होने पर स्त्री अन्य पति वरण कर सकती है।

अपुत्राँ गुर्वनुज्ञातो देवरः पुत्रकाम्यया। सपिण्डो वा सगोत्रो वा घृताभ्यक्त ऋतावियात़॥ -याज्ञवल्क्य स्मृति

जिसे पुत्र की कामना है। पर वह अपने पति से नहीं होती हो, तो वह गुरुजनों की आज्ञा प्राप्त कर देवर अथवा सपिण्ड व्यक्ति से गर्भोत्पत्ति करे।

मातृवत् परदारंश्च परद्रव्यणि लोष्ट्रवत़। आत्मवत़ सर्वभूतानि यः यश्यति स पश्यति॥ -आयस्तम्ब स्मृति

जो पराई स्त्रियों को माता के समान, पराया धन धूलि समान और सब प्राणियों को अपने समान मानता है। वही सच्चा आँखों वाला है।

अनुकूलकलत्रोय स्तस्य स्वर्ग इहैव हि। प्रतिकूलकत्रस्य नरको नात्र संशयः॥ स्वर्गेअपि दुर्लभं ह्योतदनुरागः परस्परम्। -दक्ष स्मृति

जहाँ पति-पत्नी प्रेम पूर्वक रहते हों, वहाँ स्वर्ग ही है। जहाँ प्रतिकूलता रहती हो वहाँ प्रत्यक्ष नरक ही है। सच्चा प्यार तो स्वर्ग में भी दुर्लभ है।


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