नर से नारायण (kavita)

June 1975

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फूलों की शय्या को तजकर, जो काँटों का नथ अपनाता। वह मानव ही इस वसुधा पर, नर से नारायण बन जाता॥

तप-त्याग भरा जिसका जीवन, परहित में अर्पित तन-मन-धन। जिसके सुख से पुलकित जन-जन जो है शोषित का संजीवन॥

जो दीपक-सा तिल-तिल जलकर, पथ आदर्शों का दिखलाता। वह मानव ही इस वसुधा पर, नर से नारायण बन जाता॥

जो सूरज-सा बरसों तपकर, चमका हीरे-सा विमल प्रखर। सब ऋद्धि-सिद्धियाँ भी पाकर, चलता-फिरता सेवक बनकर॥

हर प्राणी जिसका सम्बन्धी, परनारी है जिसकी माता। वह मानव ही इस वसुधा पर, नर से नारायण बन जाता॥

जो बात धर्म की नित्य कहे, पर रूढ़िवाद में नहीं बहे। हँस-हँसकर जो आघात सहे, संघर्षों में भी सौम्य रहे॥

जो जीवन का विष पी-पीकर, पीयूष धरा पर बरसाता। वह मानव ही इस वसुधा पर, नर से नारायण बन जाता।

मिल जाते जो भी दीन कहीं बन जाता उनका बन्धु वहीं। निज वैभव में आसक्ति नहीं, खोजे अपनी ही मुक्ति नहीं॥

जग का सन्ताप मिटाने को, जो सुख समाधि को ठुकराता। वह मानव इस वसुधा पर, नर से नारायण बन जाता॥

-डा. हरगोविन्द सिंह

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*समाप्त*


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