एकता के तीन सूत्र

June 1975

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आर्य सभ्यता उस समय अपने विकास के चरम शिखर पर थी। भारत में कई आर्य प्रान्त थे। सब स्वाधीन, स्वतन्त्र, सर्वप्रभुत्व सम्पन्न और स्वशासित। इन्हीं आर्य प्रान्तों के बन बीहड़ों में रहती थी अनार्य जातियाँ। आर्य जनता के सुखी, सुविधा सम्पन्न और समृद्ध जीवनयापन से ईर्ष्यालु होकर अनार्य जातियों ने एक वाहिनी तैयार कर ली और लोगों को परेशान करने लगे। उनके लूट-खसोट, मार-काट और डकैती तो सामान्य कर्म थे, शासन तन्त्र और राज्य व्यवस्था को भी नष्ट-भ्रष्ट करने तक उनके हौसले बढ़े।

उनके उत्पात बढ़ने लगे और इधर आर्य-प्रान्तों की सेनायें नर्वस हो उठीं। अनार्य जातियाँ जब दूसरे राज्यों में भाग जाती तो वे हाथ मलकर देखते रह जाते और उन दस्युओं का उत्पीड़न चक्र वहाँ चलने लगता। वे भी इसी तरह परेशान हो जाते। आखिर सब हार, थककर पहुँचे ऋषि शौनक के आश्रम में। पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, ईशान आदि प्रान्तों के नरेशों ने ऋषिवर के चरणों में प्रणाम किया और अपनी समस्या सामने रखी तथा विजय का आशीर्वाद माँगा तो शौनक ने कहा- आर्यजन, विजय आशीर्वादों से नहीं शक्ति और सामर्थ्य से मिलती है। तुम शक्तिवान बनो और ‘बल प्राप्त करो।’

‘शक्ति तो हमारे पास कम नहीं। हम दस्युओं से निर्बल नहीं है। फिर भी हमें पराजय क्यों भोगनी पड़ती है।’ पूर्व देश के नरेश ने कहा।

‘शायद तुम्हारा संकेत बाहुबल की ओर है परन्तु वही पर्याप्त नहीं है इससे भी बड़ी और एक शक्ति है।’

‘तो पूज्यपाद उस बल से भी अधिक शक्ति हमारी सैनिक क्षमता में है। हमारे पास सैनिकों की कमी नहीं।’-पश्चिम प्रान्त के राजा का कहना था।

‘सैन्य शक्ति भी अपर्याप्त है उस शक्ति के अभाव में।’

‘शस्त्रों से ही सेना ही सामर्थ्य बढ़ती है। उससे भी हम प्रचुर सम्पन्न हैं।’ दक्षिण नरेश बोले।

‘शस्त्र बल से भी महान् शक्ति है एक और जो मेरा आशय है’-ऋषि शौनक ने कहा।

‘सम्भवतया आपका आशय धन, बल से है’-ईशान अधिपति ने कहा।

‘नहीं आर्य शरीर, सेना, शस्त्र और ‘धन बल’ से भी अधिक समर्थ एक और ‘शक्ति है’-उपस्थित नरेशों की मुख मुद्रा पर तैरती आतुरता को पढ़ते हुए ऋषि ने कहा- ’एकता का बल। संघ शक्ति की सामर्थ्य।’

‘यह बल किस प्रकार अर्जित किया जाय’-आर्य नरेशों ने जिज्ञासा वश पूछा तो ऋषि बोले-’इस अर्जन का पहला सूत्र है- संगच्छध्वम्-एक साथ मिलकर चलो। तुम लोग अलग-अलग दस्युओं के आक्रमण का सामना करत हो इसी से वे लोग तुम पर भारी पड़ते हैं। दूसरा सूत्र है- संबदध्वम् एक स्वर में बोलो। दस्युओं के सम्बन्ध में अलग-अलग मत व्यक्त करना उनके हौसले को बढ़ाना है इसलिए मिलकर एक निश्चय करो- संवो मनासि जानताम्- एक निर्णय लो और एक जुट होकर लड़ो तो विजय तुम्हारे हाथ है यही तीसरा और अन्तिम सूत्र है।

ऋषि की प्रसाद वाणी से अपनी त्रुटियों का बोध प्राप्त कर समस्त नरेश वहाँ से चले और उन्होंने एकमत होकर योजना बनायी, उस पर अपनी सहमति व्यक्त की, स्वीकृति दी और समर भूमि में डट गये। जब संगठित होकर आगे आये और समस्त दस्युओं, अनार्यों को उनसे लोहा लेना पड़ा तो आत्म-समर्पण करते ही बना।

मनसा, वाचा और कर्मणा, एकता-मिलकर सोचने, एक स्वर में बोलने और एक साथ चलने की विविध एकता योजना-संघ साधना ही महान लक्ष्यों को प्राप्त करने का अभियान, अनुष्ठान है। जिसे कोई भी सम्पन्न कर विजेता बन सकता है।


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