ईश्वर−भक्ति हमें ईश्वर तुल्य बनाती है

June 1974

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भक्ति का अर्थ है प्रेम। इसका श्रीगणेश—शुभारम्भ ईश्वर भक्ति से किया जाता है क्योंकि वही इस संसार में सबसे अधिक प्रेम करने योग्य है। उसी की पात्रता ऐसी है जिस पर पूरी तरह आसक्त होकर अन्तःकरण का समस्त प्रेम रस पूरी तरह उँडेला जा सकता है। अन्य प्राणी या पदार्थ भी सत्, रज, तम की विविध प्रकृति से बने हैं। उनकी स्थूल संरचना मिट्टी, पानी, हवा, आग से हुई है। वे सभी बदलते और मरते हैं।ऐसी स्थिति में उनके साथ चिरस्थायी शाश्वत प्रेम सम्बन्ध नहीं निभ सकता है। उनकी बदलती रहने वाली परिस्थिति और मनःस्थिति ऐसे कारण उत्पन्न कर देती है जिससे अपनी प्रेम−निष्ठा भी उलट−पुलट जाय। अस्तु प्रेम का शुभारम्भ ऐसे आधार पर करना पड़ता है जहाँ फेर बदल करने की विवशता कभी भी उत्पन्न न हो।

अमृत नाम के एक तत्व की कल्पना की जाती रही है जिसकी रसास्वादन अद्भुत है। उसे पीते समय ही आनन्द रहता हो सो बात नहीं पर उसकी कुछ बूंदें चखलेने के बाद मस्ती की प्रतिक्रिया चिरस्थायी जैसी हो जाती है।

इन्द्रियों के स्वाद ऐसे हैं जो एकबार चख लेने पर बार−बार मन को उसी चेष्टा के लिए खींचते रहते हैं। पद, सम्मान, संग्रह वर्चस्व के स्वाद भी ऐसे है जो एकबार तृप्त ऐसे से ही समाप्त नहीं होते पर दिन−दिन अधिकाधिक तीव्र होते चले जाते हैं। उनकी माँग—भूख और भी अधिक उग्र बनती हैं। ठीक इसी प्रकार आत्मा की आकाँक्षा एक ही रहती है—प्रेम। वासना,तृष्णा और अहंता की पूर्ति के लिए सामान्य मनुष्य की समस्त बौद्धिक और शारीरिक गतिविधियाँ सक्रिय रहती हैं।

आहार निद्रा की प्रारम्भिक आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए तो कृमि−कीटक भी सक्रिय रहते हैं। मनुष्य का भौतिक जीवन वासना, तृष्णा और अहंता जैसी मनोगत सरसताओं की आकाँक्षा में तत्पर रहता है और उसकी पूर्ति में निरत रहता है।

ठीक इसी प्रकार उच्चस्तर पर उठा हुआ अन्तःकरण प्रेम का अमृत पीने के लिए आतुर पाया जाता है। कामुक अथवा मद्यपी अपने विषयों के लिए जितना व्यग्र रहता है; आत्मिक भूमिका के विकसित मनुष्य उससे कहीं अधिक उद्विग्न− व्याकुल प्रेम रस के रसास्वादन के लिए पाया जाता है।

प्रेम की विशेषता है दो आत्माओं को एक में जोड़ देना। पति−पत्नी में प्रणय प्रेम जब अधिक घनिष्ट होता जाता है तो वे दो शरीर एक प्राण कहे जाने लगते हैं। वस्तुतः भावना क्षेत्र में दोनों का अनुभव भी ऐसा ही होता है कि उनका एक ही व्यक्तित्व दो शरीर धारण करके विचरण कर रहा हे।

प्यार वस्तुतः अपनेपन की प्रतिक्रिया मात्र है। जिस वस्तु या व्यक्ति को हम जितना अधिक अपना समझते हैं उसी अनुपात से उसे प्यार करते हैं। यह प्रेमानुभूति इतनी सघन होती चली जाती है कि प्रेमी के सुख−दुख अपने लगने लगते हैं। उसकी इच्छा कामना की पूर्ति भी ऐसी लगती है मानों अपनी ही इच्छा पूर्ति हो रही है। स्वयं कष्ट उठा कर प्रेमी की इच्छा पूर्ति के लिए इसी प्रयत्न किया जाता है कि उसका सन्तोष अपने निज के सन्तोष का अविछिन्न अंग बन जाता हैं। प्रेमिका का रंग−रूप, वचन, व्यवहार सब कुछ इसलिए अनुपम लगता है कि उसके साथ आत्मीयता की मात्रा अधिक गहराई तक जुड़ गई। यदि यह घनिष्टता नष्ट हो जाय तो वह प्रेयसी कुरूप ही नहीं शत्रु भी लगने लगेगी। कुछ समय पहले जिसे क्षण−क्षण में देखने को जी करता था मन में विद्वेष परायापन उत्पन्न होने पर उसकी सूरत देखने और समीप आने पर घृणा उत्पन्न होती है।

अपनी प्रेयसी से भी अधिक सुन्दर और सुयोग्य महिलाएँ संपर्क में आती हैं पर उनकी और ध्यान भी नहीं जाता और न उनकी ओर किसी प्रकार का आकर्षण होता हैं। इससे स्पष्ट हैं कि किसी की शारीरिक, मानसिक विशेषताएँ नहीं वरन् उसके साथ आरोपित की गई आत्मीयता ही उसे सुन्दर आकर्षक, अनुकूल एवं परमप्रिय बना देती है। यह आत्मीयता हटते ही क्या पदार्थ सभी नीरस और निरर्थक लगने लगते हैं। इस संसार में जहाँ भी—जितनी भी कुछ सरसता अनुभव में आती है वस्तुतः वह अपनी आत्मीयता के आरोपण की ही प्रतिक्रिया होती है। इस आरोपण के अनुपात से ही प्रिय−अप्रिय का स्तर बनता, बढ़ता और बदलता है।

प्रेम का एक गुण है दूसरों को प्रिय बना देना उन्हें सरस एवं सुन्दर अनुभव हो सकने की स्थिति में ला देना। उसका दूसरा गुण है। दूसरों को अपना बनाकर उनके साथ आदान−प्रदान का द्वार खोल देना। पति−पत्नी सघन स्नेह सम्बन्ध में बँधने पर एक दूसरे को केवल सुखद एवं सरस अनुभूतियाँ ही प्रदान नहीं करते वरन् उनकी विशेषताओं और क्षमताओं को परस्पर आदान−प्रदान भी सम्भव हो जाता है। जो कुछ उनके पास होता है वे उसका लाभ प्रेम पात्र को उन्मुक्त भाव से—सहज रूप से देना आरम्भ कर देते हैं। पति कमाता है और पत्नी के हाथ पर रखता है। पत्नी पाक विद्या, गृह−व्यवस्था—शृंगार सज्जा आदि जिन विशेषताओं से युक्त होती है उसका लाभ पति को पहुँचाती है। यह आदान−प्रदान की शर्त या समझौते के आधार पर नहीं वरन् सहज स्वभाव ही होता रहता है। अपने लिए अपनी उपलब्धियों का लाभ जिस प्रकार लिया जाता हे, अपने वैभव का जिस प्रकार स्वयं उपयोग किया जाता है ठीक वैसा ही साथी भी कर सके इसके लिए प्रयत्न किया जाता है। सच तो यह है कि अपनी उपलब्धियों को प्रेम पात्र के लिए समर्पित करना—उस समर्पण से प्रेमी का प्रसन्न, संतुष्ट होना और उस सन्तोष भरी प्रसन्नता की प्रतिक्रिया अपने आनन्द के रूप में अनुभव करना, इस प्रकार तीन चक्र वाली चरखी चलती है। अपने वैभव का स्वयं उपयोग करने पर जितना सुख मिलता था उसकी अपेक्षा साथी को उसका लाभ देने पर दूना आनन्द होता है। प्रेम पात्र को प्रसन्न देखकर अपने को जो आनन्द मिलता है वह चक्रवृद्धि दर से चौगुना हो जाता है। खाने की अपेक्षा खिलाने का आनन्द अत्यधिक होने के बात कही जाती है वह निरर्थक नहीं है। उसमें पूरा−पूरा सत्य और तथ्य भरा हुआ है।

प्रेम को अमृत इसलिए कहा गया है कि वह जितने क्षेत्र में आरोपित होता है उतनी परिधि को हर वस्तु बड़ी सुन्दर बन जाती है। उसकी समीपता से अपने आनन्द की मात्रा बढ़ती है। प्रेम−पात्रों का अस्तित्व और वैभव अपनी निज की सम्पदा जैसा लगता है। उसी अनुपात से अपना गर्व गौरव और सन्तोष बढ़ता है। अपना निज का परिवार छोटा ही हो सकता हे।—अपनी निज की कमाई स्वल्प ही रह सकती है किन्तु यदि प्रेम भरी आत्मीयता का विस्तार व्यापक बना लिया जाय तो प्रतीत होगा कि अपनापन विस्तृत होने के कारण जितने क्षेत्र में फैला हुआ था उतने क्षेत्र पर अपना आधिपत्य हो गया। भावनात्मक क्षेत्र में आरम्भ हुआ यह आधिपत्य स्वसंचालित आदान−प्रदान की पृष्ठभूमि बनाता है और अनायास ही सहयोग का अनुदान उपलब्ध होने लगता है।

यही है कि जैसे देव शक्ति में अथवा समर्थ व्यक्ति में अपनी सघन श्रद्धा एवं आत्मीयता आरोपित करते हैं वह चेतना के स्तर पर अपना घनिष्ट—घनिष्टतर—घनिष्टतम बनता जाता है और उसकी विशेषताओं का प्रवाह अपनी ओर सहज ही बहनें लगता हैं। समुद्र अपनी गहराई के कारण समस्त नदियों का जल अपनी ओर आकर्षित करता है और उनके अनुदान से अपना भण्डार निरन्तर भरता रहता है। यह बात प्रेम साधक के सम्बन्ध में लागू होती है उसकी प्रेम भावना उसे गहरा बनाती चली जाती है और इस स्थिति की पात्रता विकसित कर देती है कि दिव्यलोक के अजस्र अनुदान उसे अनायास ही मिलते चले जाँय। चुम्बक जितना शक्ति शाली होता है उतने ही अधिक लौह कण उस क्षेत्र में से सिमट कर उसके साथ चिपकते चले जाते हैं। अध्यात्म क्षेत्र की चमत्कारी उपलब्धियाँ, ऋद्धि सिद्धियाँ और कुछ नहीं अपनी ही प्रबल भाव भूमिका द्वारा अनन्त अन्तरिक्ष से खींची हुई उपलब्धियाँ मात्र हैं।

व्यावहारिक जीवन में हम नित्य ही देखते हैं पारस्परिक प्रेम केवल एक दूसरे को परमप्रिय ही नहीं बनाता वरन् सहयोग के अनेकानेक द्वार भी खोलता है। प्रेमी लोग एक दूसरे की इतनी अधिक सेवा, सहायता करते हैं जितना कि कोई स्वयं अपने आपकी सहायता कर सकता है। इससे दोनों ही पक्ष लाभान्वित होते हैं। एक दूसरे की कमी को पूरा करते हैं और अपूर्णता को पूर्णता में—दुर्बलता को समर्थता में—अतृप्ति को तृप्ति में बदलने की दिशा में एक दूसरे के लिए वरदान जैसे सिद्ध होते हैं। पर यह सब संभव तभी होता है जब प्रेम भावना में सघन आत्मीयता का गहरा पुट लगा हो।

यदि यह प्रेम बाजारू हुआ—कुछ लेने झपटने के लिए आरम्भ किया गया होता तो बात बनेगी नहीं—प्रीति निभेगी नहीं—जहाँ स्वार्थ सधने में थोड़ी भी अड़चन दिखाई पड़ी अथवा उससे अच्छे कोई नये सम्बन्ध हाथ लगे तो वह नशा उतरने भी देर न लगेगी। उदासी उपेक्षा की और बढ़ते हुए कदम अवज्ञा और शत्रुता तक जा पहुंचेंगे। असफल प्रेम की गति दुखान्त आर निराशाजनक भी होती देखी गई हैं।

पेट भरने मात्र से मनुष्य की तृप्ति नहीं हो सकती। उसमें जो सजग चेतन तत्व है वह भावनात्मक परिपोषण चाहता हैं। वासना, तृष्णा और अहंता की तृप्ति करने की उमंग और उसके लिए अभीष्ट साधनों को प्राप्त करने के लिए ही मनुष्य का अधिकाँश चिन्तन और कर्तृत्व नियोजित रहता है। पेट भरने और तन ढकने की आवश्यकता तो कम प्रयास से सामान्य शरीर श्रम से ही पूरी हो जाती है। उसके लिए कदाचित ही किसी को अभावग्रस्त रहना पड़ता हो। व्यग्रता एवं उद्विग्नता तो मानसिक क्षुधा को पूरा करने के लिए साधन जुटाने की ही रहती है। यह मानसिक भूखे या माँगे मध्यवृत्ति के लोगों में विलास वैभव के लिए लालायित रहती हैं किन्तु जब अन्तःकरण का स्तर ऊँचा उठता है तो प्रेम का अमृत पीने और पिलाने की एक मात्र साज शेष−रह जाती है। प्रेम वृत्ति का विस्तार—प्रेमी की खोज—प्रेम का रसास्वादन इतनी ही परिधि में समस्त आकाँक्षा, अभिलाषा केन्द्रीभूत होकर रह जाती है।

काया असल है और छाया उसकी नकल। प्रेम असल हे और मोह उसकी नकल। मोह में अहंता की पूर्ति प्रधान रहती है और प्रिय पात्र को अपना वशवर्ती बनाने, आज्ञापालन के लिए प्रस्तुत रहने की इच्छा रहती है। उससे पूरा−पूरा लाभ उठाया जाय और वह पूरी तरह अपना इच्छानुवर्ती होकर रहे; यही मोह की परिभाषा है। स्त्री, पुत्रों अथवा मित्र सम्बन्धियों से जब तक यह अपेक्षा पूरी होती है तब तक वे प्रिय लगते है, पर जब वे ननुनच करते हैं तो शत्रु प्रतीत होते हैं। अपनी माँग सही थी या प्रेमी का व्यवहार सही था यह सोचने का अवकाश नहीं रहता। किन्तु उच्चकोटि के प्रेम में सिर्फ देने का ही भाव रहता है। लेना कुछ नहीं देना सब कुछ जहाँ यह भावना अथवा रीति−नीति काम कर रह हो समझना चाहिए कि यहाँ असली प्रेम का अस्तित्व है। लेने से इन्कार और देने का आग्रह जहाँ होगा वहाँ राम, भरत जैसे स्नेह, सौजन्य का अमृत बरसेगा और आत्मीयता अधिकाधिक सघन होती चली जायगी। वहाँ साथी की शिकायत करने की जाती है जहाँ कुछ लेने की—पाने की अपेक्षा रखी गई हो। जब केवल देना ही देना था—पाने की बात सोची ही नहीं गई थी तो उलाहना किस बात का−असन्तोष किस कारण? जहाँ देना कम लेना अधिक का मोल−तोल चलता है प्रेम में असन्तोष और विद्वेष वहीं पनपता है। प्रेमियों के बीच लड़−झगड़ा का केन्द्रबिन्दु यही विष बीज रहता है।

निस्वार्थ प्रेम पूर्णतया एक पक्षीय रह सकता है—निभ सकता है—सामने वाला पक्ष यदि अनुकूल प्रतिक्रिया व्यक्त न करे तो भी प्रेमी अन्तःकरण की कोई क्षति नहीं होती—इससे उसे खिन्न असन्तुष्ट भी नहीं होना पड़ता। पाषाण प्रतिमा बनाकर मूर्ति पूजा करने का आधार एक पक्षीय प्रेम का निर्वाह ही होता है। देव भूमि हमारी भावना के अनुरूप प्रत्युत्तर नहीं देती वह मूक, मौन, स्तब्ध, निष्ठुर, निस्पृह बनी बैठी रहती है। इससे कोई उपासक खिन्न नहीं होता वरन् अपनी पूजा अर्चा निर्बाध रीति से चलाता रहता है। यही नीति प्रेम का प्रयोग करते समय हर क्षेत्र में अपनानी पड़ती हैं। माता अपने नवजात शिशु पर सारा प्यार उड़ेलती है जबकि अबोध बालक की मनः स्थिति तो दूर शारीरिक क्षमता भी अविकसित अस्तव्यस्त रहती है। वह बेचारा न तो माता के प्यार को समझ सकता है और न उसका प्रत्युत्तर प्रतिदान दें सकता है। इतने पर भी माता को यह शिकायत नहीं होती कि बच्चे में प्रेम का मूल्याँकन नहीं किया और बदला नहीं चुकाया। ठीक यही नीति प्रेमी हृदय को सर्वत्र बरतनी पड़ती हे। वह प्रेम इसलिए करता हे कि उसकी प्रतिध्वनि उसकी अन्तरात्मा को एवं दिव्य अमृत से ओत−प्रोत कर दे। इस लाभ की तुलना में प्रिय पात्र द्वारा दिया जा सकने वाला अनुदान तो राई−रत्ती पात्र जितना ही सिद्ध हो सकता है। प्रिय पात्र के समुचित प्रत्युत्तर न देने पर यदि प्रेम को निराश होना पड़ा, खिन्न बनना पड़ा तो समझना चाहिए कि वह प्रतिदान की अपेक्षा पर टिका हुआ घटिया दर्जे का लोक−व्यवहार मात्र था। ऐसे ही ओछे प्रेम को व्यामोह अथवा मोह कहा जाता है और उसका परिणाम अन्ततः निराशाजनक ही सामने आता है।

प्रेम की महानतम आध्यात्मिक उपलब्धि कर सकने से ही आत्मा को सन्तोष,उल्लास एवं आनन्द की तृप्तिदायक अनुभूति होती है। इसी को सबसे बड़ा लाभ कह सकते हैं। चेतना का सर्वोत्तम रस यही है। प्रेमानुभूति से बढ़कर मनुष्य जीवन का कोई उपार्जन—और कोई रसास्वादन—और कोई वरदान हो ही नहीं सकता। तत्वदर्शी मनीषियों ने प्रेम को ही परमेश्वर कहा है। वस्तुतः परमेश्वर इन्द्रियों से देखा जाना नहीं जा सकता उसकी अनुभूति अन्तरात्मा में ही होती है वह कैसी होती है इसे जानना हो तो प्रेम का प्रयोग करके देखना चाहिए। इस आलोक की तनिक सी किरणें अन्तरात्मा को देवत्व की आभा से जगमगा देती हैं। जहाँ प्रेम का अस्तित्व होगा वहाँ संयम सदाचार से लेकर उद्गार अनुदान तक की समस्त सद्भावनाएँ तथा सत्प्रवृत्तियाँ सहज ही समवेत होकर रहती है।

ईश्वर भक्ति एक व्यायाम प्रक्रिया है जिसके माध्यम से अन्तःकरण को प्रेमी प्रकृति का बनाया जाता है। सूर्य का प्रकाश किसी छोटे दायरे में कैद होकर नहीं रह सकता वह सहज अनन्त अन्तरिक्ष में सुविस्तृत होता चला जाता है। प्रेमी अन्तःकरण से आत्मीयता के विस्तार का आलोक भी इसी प्रकार अधिकाधिक व्यापक क्षेत्र में फैलता चला जाता है। उसका अपनापन शरीर और परिवार की सीमा से—वासना,तृष्णा और मलीनता की तुच्छता से बाहर निकलता है और संकीर्ण स्वार्थपरता के—लोभ, मोह के भव−बन्धनों को तोड़ फोड़कर आदर्शवादिता के उन्मुक्त आकाश में विचरण करता हे। ईश्वर प्रेम—की झाँकी विश्व प्रेम के रूप में ही मूर्तिमान होती है, भीतर की आस्था को बाहर भी प्रकट होना ही चाहिए ईश्वर भक्ति का प्रमाण लोक−मंगल की सेवा साधना में परिलक्षित होना ही चाहिए।

ईश्वर विश्व−व्यापी सचेतन सत्ता का नाम है। उसके सत प्रधान अंश की हम उपासना करते हैं। जिसका प्रयोजन है ईश्वरीय दिव्य तत्व को अपनी चेतना में पूरी तरह भर लेना। प्रेम की—भक्ति की—प्रक्रिया इस प्रयोजन को भली प्रकार पूरी करती है। ईश्वर प्रेम में सराबोर होकर हम उस चेतना को अधिक होने का परिणाम तद्रूप होना ही होता है। जो जिसके संपर्क में जितनी गहराई तक रहेगा—जो जिसे जितना अधिक चाहेगा वह उसी जैसा बनता चला जायगा। सत्संग के सत्परिणामों की—कुसंग के दुष्परिणामों की यही मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि है। हम प्रेम तत्व को ईश्वर जैसे उच्चादर्श के साथ समन्वित करके रखें तो निश्चित रूप से उसी ढाँचे में ढलते चले जायेंगे और एक दिन ईश्वर तुल्य होकर रहेंगे।

कहना न होगा कि प्रेम तत्व मानव जीवन की महानतम विभूति है उसे अपने भीतर उगाने में—बढ़ाने में जो जितना अधिक सफल हो जाता है वह उतना ही धन्य बनता है। इस प्रेम की पकड़ में पकड़ा हुआ समस्त संसार अपना बनता है—समस्त दिव्य तत्व करतल गत होते हैं यहाँ तक कि ईश्वर भी अपना बन जाता है अथवा हम ईश्वर तुल्य हो जाते हैं। प्रेम की गरिमा को जितनी गहराई में समझने का प्रयत्न किया जाय वह उतनी ही महान् होती दिखाई पड़ेगी।


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