करुणा की विजय

June 1974

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हेमकूट राज्य के राजकुमार जीभूत बाहन अपने मित्रों के साथ समुद्र तट पर आक्रमण करते हुए गौकर्ण पर्वत पर पहुँचे। उन्होंने गुफाओं के निकट अस्थियों के बड़ें−बड़े ढेर लगे देखे तो अपने मित्र मित्रावसु से पूछा कि

हड्डियों के ढेर किस प्रकार लगे हुए हैं। मित्रावसु ने उत्तर दिया−राजकुमार! यह ढेर निर्दोष नागों की अस्थियों के हैं। गरुड़ की नाग वंश से पुरानी शत्रुता है, वे अपने बल अभियान में आकर दोषी या निर्दोष किसी नाग को पावें, उसका ही काम तमाम कर देते हैं। नाग निर्बल है, गरुड़ की शक्ति बढ़ी हुई है। बेचारे नाग गरुड़ के मुकाबले में ठहर नहीं पाते इसलिए उन्होंने अब समझौता कर लिया है। बारी−बारी प्रतिदिन एक नाग गरुड़ के द्वारा वध होने इस पर आता है और अपने प्राण देकर उनकी कोप ज्वाला को शान्त करता है।

जीमूत बाहन बड़े दयालु थे। दया से उनका हृदय ओत−प्रोत था। निरपराध नागों का इस प्रकार दमन होता सुनकर उनका जी पिघल गया और करुणा से आँखें भर आई। राजकुमार के पास गरुड़ को परास्त करने की शक्ति न थी, फिर भी उनका क्षत्रिय अन्तःकरण अन्याय को सहन न कर सका। निश्चय कर लिया कि नागों का पक्ष लेते हुए गरुड़ से धर्मयुद्ध करूंगा।

नाग माता विलाप कर रही थी कि हाय मेरे इकलौते बेटे शंखचूड़ को आज गरुड़ की कोप ज्वाला में अपना प्राण देना होगा। बेटे को छाती से चिपटा कर वह मर्मभेदी करुणा क्रन्दन कर रही थी, जिसे सुन−सुनकर जीमूत बाहन का कलेजा फटा जा रहा था। राजकुमार ने निकट जाकर कहा— माता,आपका विलाप मुझसे नहीं सुना जाता। आपके शंखचूड़ को बचाने के लिए मैं अपना प्राण देने को तैयार हूँ। अपने बेटे को अपने पास आनन्द से रखिये, आज मैं गरुड़ के अत्याचार का भोजन बनूँगा।

नाग माता ने स्पष्ट कह दिया—हे दयालु नवयुवक,मैं मोहग्रस्त होकर इतनी स्वार्थान्ध नहीं हो गई हूँ कि शंखचूड़ के बदले तुम्हारे प्राण जाना स्वीकार करूं। मेरा पुत्र अपना कर्त्तव्य पालन करने से पीछे न हटेगा। शंखचूड़ माता की पद−रज सिर पर धरकर उठा और गौकर्ण पर्वत की प्रदक्षिणा देकर नियत स्थान के लिए चल दिया। जीमूत बाहन ने यह अच्छा देखा। नाग वेश बनाकर शंखचूड़ से पहले ही गरुड़ के स्थान पर पहुँच गये। गरुड़ ने तुरन्त उस पर आक्रमण किया और पहली ही झपट में बुरी तरह घायल कर डाला और अंग विदीर्ण करने लगे।

इतने में शंखचूड़ आ पहुँचा। उसने अपने स्थान पर किसी दूसरे को देखकर पुकारा— अरे, अरे वह क्या अनर्थ हो गया। मेरी जगह उसी उपकारी के प्राण चले गये। गरुड़ बड़े असामंजस्य में पड़े, उन्होंने ध्यान पूर्वक देखा,तो प्रतीत हुआ कि हेमकूट राजा के महात्मा राजकुमार जीमूत बाहन ने दयार्द्र होकर परोपकार में अपने प्राण दे दिये।

महात्मा जीमूत बाहन का मृत शरीर भूमि पर पड़ा हुआ था, शंखचूड़ की आँखें बरस रही थीं, गरुड़ के कलेजे में हजार−हजार बिच्छू काटने की पीड़ा होने लगी। विश्व में ऐसी विभूतियाँ हैं, जो दूसरों की भलाई के लिए अपने प्राण दे देते हैं। एक मैं हूँ, जो तुच्छ−सी शत्रुता के कारण अनेक निर्दोषों का वध करता हूँ। गरुड़ खड़े न रह सके, पापी के सामने जब उसका वास्तविक चित्र आता है, तब वह आत्म−निरीक्षण करता है, तो उसके पैर काँपने लगते हैं, गरुड़ आत्म धिक्कार की प्रताड़ना से व्याकुल होकर सिर धुनने लगे।

उन्होंने जीमूत वाहन का रक्त हाथ में लिया और पूर्वाभिमुख होकर सूर्य को साक्षी देते हुए प्रतिज्ञा की कि भविष्य में अहंकार के वशीभूत होकर अन्याय करने पर उतारू न हूँगा। उस दिन से उन्होंने नागों के साथ अपना सारा बैर−विरोध त्याग दिया।

जीमूत वाहन का मृत शरीर धूलि में लोट रहा था, परन्तु यथार्थ में यह उनका विजय सिंहासन था पुराना पापी गरुड़ मर गया था, शरीर वही था, पर अब परिवर्तित गरुड़ की पवित्र आत्मा, उसमें निवास करने लगी थीं।


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