अपनों से अपनी बात - शान्ति−कुञ्ज की शिक्षा प्रेरणा और उसका अनवरत प्रवाह

June 1974

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शान्ति−कुञ्ज सप्त सरोवर हरिद्वार में चल रही शिक्षण व्यवस्था का मूल प्रयोजन उस आत्म−बल का — ब्रह्मवर्चस् का — परिजनों में अभिवर्धन करना है, जिसके बल पर व्यक्तित्व को परिष्कृत एवं सुविकसित बनने का अवसर मिलता है। मनुष्य के अपने ही भीतर इतनी विभूतियाँ भरी पड़ी है कि उनका जागरण कर लेने से वह सिद्ध पुरुषों की — महामानवों की— पंक्ति में जाकर खड़ा हो सकता है।

शान्ति −कुञ्ज कुछ दिन तक एक ऐसे गुरु कुल की भूमिका सम्पन्न करेगा जहाँ के छात्र आत्म−बोध, आत्म सुधार, आत्म −निर्माण और आत्म−विकास की चतुर्विधि दिव्य सम्पदाएँ प्राप्त कर सकने का लाभ ले सकें। परिजन के वल अखण्ड−ज्योति के माध्यम से उच्चस्तरीय जानकारियाँ प्राप्त कर सकने तक ही सीमित न रहें, वरन् उस ज्ञान सम्पदा को व्यावहारिक जीवन में समाविष्ट करके अपने आपको अनुकरणीय, अनुगमनीय बनाने में समर्थ हो सकें तभी प्रकाश की उपयोगिता है, जो अब तक पुस्तकों और पत्रिकाओं की पंक्ति यों से उन्हें मिलता रहा है। प्रकाश के साथ प्रेरणा जोड़ने की सदा ही आवश्यकता रही है। अब उसकी भी व्यवस्था बन गई। परिजनों को पिछले दिनों प्रकाश को पर्याप्त मात्रा में मिला है, पर वह प्राण प्रेरणा न मिल सकी जो उपयुक्त वातावरण में— उपयुक्त परिस्थितियों से —उपयुक्त मनःस्थिति में मिला करती है। दीपक से दीपक जलाने की परिपाटी सान्निध्य चाहती है— शारीरिक भी और आत्मिक भी। शान्ति −कुञ्ज में चल रही शिक्षण व्यवस्था को यथासंभव इसी स्तर का बनाने का प्रयत्न किया गया है जिसमें श्रेय पथ के पथिकों को आवश्यक आधार, मार्ग−दर्शन ही नहीं समर्थ सहयोग भी प्राप्त हो सके

गतवर्ष प्राण प्रत्यावर्तन सत्र चले थे। उनमें पाँच−पाँच दिन के लिए गायत्री के पञ्चमुखी विग्रह में सन्निहित पाँच कोषों के अनावरण का क्रम समझाया गया था और मार्ग−दर्शन किया गया था। अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोश यह पाँच अंतर्जगत के बहुमूल्य रत्न भण्डार हैं। इन्हें खोदने और पकड़ने की विधि− व्यवस्था हस्तगत हो जाय तो मनुष्य निस्सन्देह कुछ के कुछ बन सकता है। उसके प्राणों का महाप्राण में प्रत्यावर्तन हो सकता है। इसी स्तर की शिक्षा गत वर्ष दी जाती रही है। जो कौतूहलवश अथवा किन्हीं भौतिक कठिनाइयों के समाधान का आशीर्वाद प्राप्त करने आये थे उन्हें छोड़कर शेष सभी को आशाजनक और आश्चर्यजनक स्तर की प्रकाशपूर्ण प्रेरणा प्राप्त हुई।गतवर्ष के प्रयत्न का लेखा−जोखा ऐसा हो जिसे हर कसौटी पर खरा; उत्साहपूर्ण और सन्तोषजनक कहा जा सके।

लगातार एक ही वर्ग के लोगों को प्रशिक्षित करते रहना अभीष्ट नहीं था। कनिष्ठ ओर वरिष्ठ वानप्रस्थों को भी कार्यक्षेत्र में उतरना था और साधू−ब्राह्मणों को,डूबती परम्पराओं की पुनर्जीवित करना था। वर्णाश्रम धर्म की रीढ़ वानप्रस्थ है। उसके टूट जाने से हिन्दू धर्म की सारी गौरव−गरिमा— तेजस्विता विशेषता नष्ट हो गई थी उसका पुनरुत्थान करना सर्वतोमुखी नव−निर्माण का प्रयोजन पूरा करो करने के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक था। अस्तु जनवरी से मई तक इस वर्ष वह व्यवस्था चलाई गई। दो−दो महीने की शिक्षा प्राप्त करके जो वानप्रस्थ लौटें हैं। उन्होंने भारतमाता को और विश्व वसुन्धरा को यह विश्वास दिलाया कि भारत न केवल स्वयं अपने पिछले गौरव को हस्तगत करने जा रहा है, वरन् समस्त संसार को उसके द्वारा पुनः वैसा ही प्रकाश मिलने वाला है जैसा कि अतीत काल में हजारों,लाखों वर्गों तक मिलता रहा था। मनुष्य जाति के सामने प्रस्तुत जीवन−मरण की समस्याओं के समाधान मात्र अध्यात्म स्तर पर ही ढूँढ़े और निकाले जा सके हैं। आधार विहीन भटकती है दुनिया को यदि प्रकाश की दिशा में बढ़ाया, धकेला जा सके तो निस्सन्देह इस सघन अन्धकार में भी भविष्य के दिव्य आलोक के दर्शन हो सकते हैं। वानप्रस्थी परम्परा की प्रखर प्रक्रिया जिस रूप में शान्ति−कुञ्ज द्वारा प्रस्तुत की गई है, उससे इन थोड़े ही दिनों में अभिनव उत्साह का — उल्लास का सर्वत्र संचार होता दृष्टिगोचर हो रहा है।

प्रत्यावर्तन और वानप्रस्थों की प्रेरक शिक्षित प्रक्रिया अदल −बदल कर चलती रहेगी। अभी चार महीने सैद्धांतिक और व्यावहारिक वानप्रस्थ शिक्षा की दो−दो महीने की सत्र व्यवस्था चलकर चुकी है। अब जुलाई, अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर चार महीने फिर पाँच−पाँच दिवसीय प्रत्यावर्तन सत्र चलेंगे। नवम्बर,दिसम्बर में वानप्रस्थों के फिर दो सत्र है। इस प्रकार सन् 74 की शिक्षा प्रक्रिया पूरी की गई है। अगले वर्षों में आवश्यकतानुसार सत्रों का निर्धारण किया जाता रहेगा और शिक्षार्थियों के संग्रहित आवेदन पत्रों पर विचार करते हुए उन्हें बुलाया जाता रहेगा। इसी बीच जून में एक महीने के लिए पन्द्रह−पन्द्रह दिवसीय दो शिक्षण सत्रों की अतिरिक्त व्यवस्था की गई जो इस महीने में प्रायः हर साल की जाती रहेगी। पहले एक महीने का लेखन सत्र करने का विचार था पर शिक्षार्थियों के आवेदन−पत्र इतने अधिक हो गये कि उन्हें फिर कभी के लिए टालने की अपेक्षा यही उचित समझा गया कि पन्द्रह−पन्द्रह दिन के दो सत्र करके इच्छुकों में से अधिकाँश को बुल लिया जाय। फिर भी बहुतों को अगले वर्ष के लिए कहना पड़ा है। आशा की जानी चाहिए कि इन लेखन सत्रों के प्रकाश में कलम के धनी ऐसे व्यक्तित्वों का उदय होगा जो युग के अनुरूप विश्व मानव की बौद्धिक भूख को बुझा सकने में— अन्धकार को उजाले में बदलने में अति महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादन कर सके।

शान्ति −कुञ्ज की स्थापना के समय यही स्वप्न था कि जिस तरह गायत्री तपोभूमि में प्रधानतया पुरुष वर्ग को नव−निर्माण प्रयोजनों में जुटाने के लिए आवश्यक प्रशिक्षण एवं व्यवस्था क्रम चल रहा है उसी प्रकार शान्ति−कुञ्ज को नारी जागरण का केन्द्र बनाया जायगा और इस वर्ग के ऊपर लादे गये पिछड़ेपन का उन्मूलन करने के लिए प्राणप्रण प्रयत्न किया जायगा। उस दिशा में श्रीगणेश तो शान्ति−कुञ्ज में हम लोगों के आगमन के समय से ही हो गया था। अखण्ड दीपक पर चल रही साधना प्रक्रिया के साथ उसका श्रीगणेश तीन वर्ष पूर्व ही हो गया था। प्रायः 25 कन्याएँ कई अति महत्वपूर्ण शिक्षाएँ प्राप्त करती रही है।वे अगले दिनों जहाँ भी रहेंगी वहाँ आलोक उत्पन्न करेंगी यह निश्चित है। इस नारी शिक्षा व्यवस्था में एक नई कड़ी और जोड़ती गई है। व्यापक नारियों के लिए तीन−तीन महीने के शिक्षा सत्र। इसमें वे अपने निज के गुण,कर्म,स्वभाव का परिष्कार, गृह व्यवस्था शिशु−पालन, पारिवारिक स्नेह, सम्बन्ध आदि की शिक्षा के साथ−साथ अपने−अपने स्थानों में रहकर नारी जागरण का —संगठन का — प्रशिक्षण का कार्य भी करेंगी। प्रौढ़ महिला शिक्षा की 2 से 5 वर्ष तक अपराह्न पाठशालाएँ अगले दिनों हर युग−निर्माण शाखा संगठन को चलानी होंगी। यह तीन मास की शिक्षा प्राप्त महिलाएँ उनका संचालन ठीक प्रकार कर सकेंगी आशा की जानी चाहिए। वे अपने अपने स्थानों पर महिला सत्संग एवं संगठन का काम भी संभालेंगी। इस तरह नारी पुनरुत्थान अभियान में यह तीन−तीन महीने वाली सत्र शिक्षा वैसी ही उपयोगी सिद्ध होनी जैसी कि वानप्रस्थ शिक्षा के दो−दो महीने वाले सत्रों ने अपने ढंग का अनोखा चमत्कार प्रस्तुत किया है।

सन् 74 में पहला महिला शिक्षण सत्र जुलाई,अगस्त, सितम्बर में और दूसरा अक्टूबर, नवम्बर दिसम्बर में चलेगा। दो सत्रों की विधिवत घोषणा कर दी गई है। सन् 74 में भी थोड़े हेर−फेर के साथ कई शिक्षण व्यवस्था था लगभग इसी क्रम से दुहराई जावेगी। प्रत्यावर्तन वानप्रस्थ, लेखन और महिला सत्र अगले वर्ष भी इसी क्रम से चलेंगे जिस तरह कि इस वर्ष चले थे।

संगीत सत्र का प्रबन्ध इस वर्ष प्रयत्न करने पर भी न हो सका। उसकी उपयोगिता और आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता। शिक्षित−अशिक्षित— शहरी− ग्रामीण सभी क्षेत्रों की जन भावनाओं का स्तर ऊँच उठाने और उत्कृष्ट हुलास−उल्लास उत्पन्न करने के लिए संगीत को एक अद्भुत शक्ति के रूप में परिष्कृत और प्रयुक्त किया जा सकता है— किया जाना चाहिए। पर साधनों के अभाव में वह सन् 74 में इच्छा रहते हुए बन नहीं पड़ा। सम्भव हो सका तो सन् 74 से युग गायक उत्पन्न करने वाली संगीत सत्र व्यवस्था आरम्भ होगी। तब तक के लिए आवेदन कर्ताओं के नाम नोट करके रखे गये हैं। जब व्यवस्था बनेगी तब उन्हें बुलाया जायगा।

जो शिक्षार्थी शान्ति−कुञ्ज में किसी भी वर्ग की शिक्षा प्राप्त करके जाँय उनके लिए अत्यन्त आवश्यक और अनिवार्य नियम यह बनाया गया है कि वे वर्ष में दो बार अपने आन्तरिक और भौतिक जीवन−क्रम में जो उतार−चढ़ाव आ रहे हों उनका विवरण भेजना न भूलें। दो पर्व अपनी आत्मोत्कर्ष शिक्षा के साथ अविछिन्न रूप से सम्बद्ध है− (1) बसन्त पञ्चमी (2) गुरु पूर्णिमा। इन दोनों पर वर्ष में दो बार उस सूत्र शृंखला को सुदृढ़ और विकसित किया जाना चाहिए प्रशिक्षण के साथ जिसका श्रीगणेश किया गया था। उपलब्ध विवरण पर विचार करके यह जाना जाता रहेगा कि प्रगति का क्रम किस गति से आगे बढ़ा और आगे क्या कदम उठाया जाना चाहिए। वह कार्य पत्र द्वारा ही होता रह सकता है।

निकटवर्ती गुरु पूर्णिमा का पर्व 4 जुलाई गुरु वार को है। वह दिन हम सभी के लिए गुरु तत्व की उपासना का उसके साथ आत्मसात् होने का − अधिकाधिक प्रकाश प्रेरणा ग्रहण करने का है। जप,हवन,ध्यान, उपवास के अतिरिक्त हमें आत्मोत्कर्ष के लिए वृक्ष पर लिपटने वाली बेल की तरह अपनी मार्ग−दर्शक सत्ता के साथ सघन आत्मीयता को परिपक्व करना चाहिए और प्रेरक दिव्य सत्ता के अनुरूप ही ऊँचा उठने का प्रयत्न करना चाहिए। बसन्त पर्व की भाँति ही गुरु पूर्णिमा भी हमारे लिए आराध्य है। उस दिन हमें नर से नारायण बनने के लिए भाव भरी उमंगों से ओज−प्रोत रहना चाहिए और भव−बन्धनों को काटने की — अपूर्णता से पूर्णता तक बढ़ने की योजनाबद्ध तैयारी करनी चाहिए। गुरु पर्व इन्हीं प्रकाश भरी प्रेरणाओं को साथ लेकर हर वर्ष आता है।

शान्ति −कुञ्ज में शिक्षा प्राप्त करने वाले प्रत्यावर्तन छात्रों एवं वानप्रस्थों पर इस पर्व का एक विशेष उत्तरदायित्व आता है। वे वर्ष में दो बार बसन्त पर्व और गुरु पूर्णिमा पर अपनी अन्तरंग और बहिरंग परिस्थितियों के उतार−चढ़ाव का विवरण भेजते रहें। इससे शाँति−कुञ्ज के साथ न केवल उनका सम्बन्ध सूत्र क्रमशः सुदृढ़तर होता रहेगा वरन् शक्ति संचार की पुण्य प्रक्रिया का लाभ भी उन्हें उत्तरोत्तर अधिक मात्रा में मिलते रह सकना सम्भव हो सकेगा।

अपने(1) शारीरिक स्वास्थ्य,(2) मानसिक संतुलन,(3) पारिवारिक गतिविधियाँ,(4) उपासनात्मक क्रिया−कलाप,(5) आत्म−सुधार के लिए किये गए प्रयत्न,(6) नव−निर्माण अभियान की दिशा में उठाये गये कदम,(7) शान्ति−कुञ्ज की गतिविधियों में ली गई दिलचस्पी, (8) शिक्षण के बाद घटित हुई कोई उल्लेखनीय घटनाएँ, (9) भावी योजनाएँ तथा उनके लिए तैयारियाँ, (10) गुरु पूर्णिमा मनाये जाने का विवरण, 4 जुलाई के एक दो दिन बाद ही शान्ति−कुञ्ज, सप्त सरोवर, हरिद्वार के पते पर भेज देना जाना चाहिए।

इन विवरणों में अपना (1) पूरा नाम पता,(2) जन्म तिथि, (3) जाति,(4) आयु,(5) शिक्षा,(6) व्यवसाय इन छै बातों का भी उल्लेख कर देना चाहिए ताकि पूर्व परिचय को और भी अच्छी तरह ताजा किया जा सके। यदि उत्तर प्राप्त करना अभीष्ट हो तो जबकि पत्र भेजने की बात भी स्मरण रखनी चाहिए।

अखण्ड−ज्योति परिवार की जागरूक एवं अग्रगामी आत्माओं को आत्मोत्कर्ष की दिशा में तेजी से कदम बढ़ा पड़ेंगे। यह कार्य शान्ति−कुञ्ज में चल रही प्रशिक्षण प्रक्रिया में से अपने लिए अनुकूल प्रशिक्षण अपना कर अधिक सुव्यवस्था एवं सरलता के साथ सम्पन्न कि जा सकता है।


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