दो प्रेम पारखियों का भावमिलन

June 1974

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बहुत प्राचीन काल की बात है। इस मथुरा नगरी में वासवदत्ता नामक एक वेश्या रहती थी। उसका रूप−वैभव किसी महारानी से कम न था। देश−देशों के राजा उसके दरवाजे पर खाक छानने आते थे। जिस पर वह मुस्करा देती, वही अपने को धन्य समझने लगता। ऐसी थी वह उर्वशी की अवतार वासवदत्ता।

एक दिन वह सोने, चाँदी से झिलमिलाते हुए रथ में बैठकर नगर की सैर करने निकली। उसका वैभव कोई साधारण सा थोड़े ही था। जिस बाजार में उसकी दासी भी निकल जाती वह इत्रों की सुगन्ध से महक जाते। जब उसका झिलमिलाता हुआ रथ निकलता तो नगर निवासी अपना−अपना काम छोड़कर सड़क के किनारे उसकी शोभा देखने खड़े हो जाते। उस दिन वह सैर को निकली थी। दर्शकों की भारी भीड़ सड़क के किनारे पंक्तिबद्ध होकर खड़ी थी। सबके मुख पर उसी के रूप–वैभव की चर्चा थी।

नगर के एक पुराने खंडहर मुहल्ले की एक टूटी झोंपड़ी में एक युवक रहता था। नाम था उसका उपगुप्त। उसने गेरुये कपड़े नहीं पहने, फिर भी वह संन्यासी था।भिक्षा उसने नहीं माँगी, फिर भी आकाशी वृत्ति पर उसका भोजन निर्भर थास्त्र प्रेत की तरह घूमता, यक्ष की तरह गाता, बैताल की तरह कार्य करतर और जनग की तरह कर्मयोग की साधना करता। जन्मभूमि तो उसकी कहीं दूर देश थी, पर अब रहता यहीं था। बुित कम लोग उसके बारे में कुछ जानते थे, पर इतना तब जानते थे कि यह आदर्शवादी युवक निर्मल चरित्र का है, ईश्वर भक्ति में लीन रहना और प्रेम का प्रचार करना इसका कार्यक्रम है।

उस दिन उपगुप्त अपनी झोंपड़ी के दरवाजे पर बैठा हुआ तन्मय होकर कुछ गा रहा था। आत्मविभोर होकर वह कुछ ऐसा कूक रहा था कि सुनने वालों के दिल हिलने लगे। मधुर स्वर के साथ मिली हुई आत्मानुभूति पुष्प के पराण की तरह फैल कर दूर दूर तक के लोगों को मस्त बनाये दे रही थी।

वासवदत्ता की सवारी संध्या होते−होते उस खंडहर मुहल्ले में पहुँची। मोधूलि वेसा में उस दरिद्र उपनगर की झोपड़ियों में दीपक टिमटिमाने लगे थे। वेश्या उन्हें उपेक्षा भाव से देखती जा रही थी कि उसके कानों में संगीत की वह मधुर लहरी जा पहुँची। वह कला की पारखी थी। इतना उच्चकोटि का गायन आज तक उसने न सुना था। उसकी आंखें वह स्थान तलाश करने लगी; जहाँ से यह ध्वनि आ रही थी। सवादी धीर−धीरे आगे बढ़ रही थी।स्वर क्रमशः निकट आ रहा था। आगे चलकर उसने देखा कि फूँस की एक जीर्ण−शीर्ण झोंपड़ी में एक गौर वर्ण का सुन्दर युवक आत्म−विभोर होकर गा रह है। वेश्या रथ में से उतर पड़ी, उसने निकट जाकर देखा कि देवताओं जैसे सुन्दर स्वरूप वाला एक भिक्षुक फटे −चिथड़े पहने मिट्टी की चबूतरी पर बैठा है और बेसुधि होकर गा रहा है। वेश्या ने कुछ कहना चाहा पर देखा कि यहाँ सुनने वाला कौन है। वह उलटे पाँवों वापिस लौट आई।

वासवदत्ता अपने शयन कक्ष में पड़ी हुई थी। बहुत रात बीत चुकी थी, पर नींद उसकी आँखों के पास न झाँकी। भिखारी का स्वर और स्वरूप उसके मन में बस गया था। इधर से उधर करवटें बदन रही थी पर चैन कहाँ? अब तक वह बड़े−बड़े कहलाने वाले अनेकों को उँगलियों पर नचा चुकी थी, पर आज जीवन में पहली बार उसने जाना कि ‘ जीकी जलन क्या होती है’ क्षण बीत रहे थे, उसका मन काबू से बाहर हो रहा था।

युवक के चरणों पर अपना समर्पण करने के लिए उसके प्राण तड़फने लगे।

रात के दो बज चुके थे। वेश्या चुपचाप उठी और दासी को लेकर घर से बाहर निकल पड़ी। गली −कूचों को पार करती हुई वह खंडहर मुहल्ले की उसी टूटी झोंपड़ी में पहुँची। युवक चटाई का फटा टुकड़ा बिछाये हुए जमीन पर सोया हुआ था। दासी ने धीरे से उसे जगाया और कहा— इस नगर की वैभव −शालिनी अप्सरा वासवदत्ता आपके दर्शनों के लिए आई हैं।

उपगुप्त ने आँखें मलीं और चटाई पर बैठा हो गया वासवदत्ता का ऐश्वर्य वह सुन चुका था। मुझ दरिद्र के यहाँ वह वैभवशालिनी आई है? क्यों आई हैं? मुझसे क्या प्रयोजन? एक बारगी अनेक प्रश्नों का ताँता उसके सामने उपस्थित हो गया? उसके मन में अविश्वास की भावना आई। कहीं स्वप्न तो नहीं देख रहा हूँ? उपगुप्त बार−बार आँखें मलकर सामने खड़ी दो मूर्तियों को देखने लगा।

वासवदत्ता ने कहा प्यारे, सन्देह मत करो। बड़े−बड़े राजा− महाराजा जिसके चरणों पर लौटते हैं, वही वासवदत्ता आपको अपना हृदय समर्पण करने आई है। मेरा सारा वैभव आपके लिए समर्पित है। मैं आपकी दासी बनना चाहती हूँ। मेरे टूटे हुए दिल को जोड़कर कृतकृत्य कर दीजिए।

युवक को मानो साँप सूँघ गया हो, वह सन्न रह गया। उसने कहा— माता! तुम यह क्या कर रही हो। तुम्हारे मुख से यह कैसे शब्द निकल रहे हैं। मेरी आँखें स्त्री जाति को माता के ही रूप में देख सकती हैं। आपका पाप प्रस्ताव मुझे स्वीकार नहीं हो सकता।

वेश्या बोलने में बड़ी पटु थी। नाना प्रकार के तर्क और प्रलोभनों से उपगुप्त को प्रस्ताव स्वीकार कर लेने को समझाने लगी, परन्तु युवक टस से मस भी न हुआ उसका जीवन एक क्रमबद्ध साधना थी, उसमें इधर−उधर हिलने के लिए कोई गुंजाइश न थी। कोई प्रलोभन उसे डिगा न सका। वेश्या खिन्न होती हुई लौट आई।

एक अरसा बीत गया। वेश्या के शरीर में कोढ़ फूट गया। उसके अंग गल−गलकर गिरने लगे। अतुलित वैभव कुछ ही समय में न जाने कहाँ पलायन कर गया।उस पर मरने वालों में से कोई उधर आँख उठाकर भी नहीं देखता। यह दुरवस्था अधिक बढ़ी। उपचार के अभाव में उसके अंग सड़ने लगे। घावों में से कीड़े झरना आरम्भ हो गया।

ऐसी अवस्था में कौन उसके पास जाता; परन्तु उपगुप्त था, जो उसकी सेवा कर रहा था। दुर्गन्ध के मारे वहाँ जाने में नाक फटती थी, पर वह प्रसन्नता पूर्वक उसके घाव बाँधता, कपड़े धोता, मल−मूत्र उठाता। सगी माता की तरह उसने वेश्या की एकनिष्ठ सेवा की।

आज बीमारी बहुत बढ़ गई थी। वासवदत्ता मृत्यु के मुख में जा रही थी। उपगुप्त बैठा पंखा झल रहा था। रोगिणी ने अधखुले नेत्रों से उप.गुप्त की ओर देखा और कहा—पुत्र! तेरा स्वर और संगीत मैंने जैसा परखा था, आज वैसा ही देख लिया। उपगुप्त ने उसके चरणों की धूलि मस्तक पर चढ़ाते हुए कहा—माता! तेरा सौंदर्य जैसा मैंने समझा था, आज तेरा पुत्र−भाव पाकर वैसा ही पा लिया।


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