अन्तर का परिष्कार सफल जीवन का आधार

June 1974

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

बाह्य जगत की जानकारियों को अधिक मात्रा में प्राप्त करना उचित भी है और आवश्यक भी। पर सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि हम अपने निज के बारे में अधिकाधिक जाने अपनी समस्याओं को समझें और अपना हित साधन करने के लिए समुचित प्रयत्न करें।

जीवन की प्रगति और अवनति में बाह्य परिस्थितियों का नगण्य स्थान है। प्रमुख भूमिका तो आन्तरिक स्थिति की ही होती है। अपना आपा यदि मलीन, नि.कृष्ट और अस्त−व्यस्त है तो उसकी प्रतिक्रिया अगणित समस्याएँ एवं विपत्तियाँ उत्पन्न करेगी। मुँह में दुर्गन्ध आती हो तो पास आने वाले हर व्यक्ति को घृणा होती है और वह दूर हटकर बैठता है। जिसके चिन्तन और स्वभाव में दुर्गन्ध आ रही होगी उसका न तो कोई मित्र रहेगा और न सहयोगी। शत्रुता और निन्दा का वातावरण ही उसे अपने चारों ओर घिरा हुआ दिखाई पड़ेगा। भीतर की स्थिति यदि सद्भाव सम्पन्न एवं शालीनता युक्त है तो उसका चुम्बकत्व सज्जनों का सहयोग अपने इर्द−गिर्द जमा कर देगा।

यह दुनिया दर्पण की तरह है उसमें बहुत करके अपना ही प्रतिबिंब दीखता है। जो जैसा होता है उसके मित्र एवं सहयोगी भी उसी स्तर के बढ़ते जाते हैं। परिस्थितियाँ एवं साधन भी क्रमशः उसी प्रकार के जुटते रहते हैं और व्यक्तित्व एवं वातावरण तद्नुकूल ही ढल जाता है जैसी कि भीतर की स्थिति होती है।

परिस्थितियाँ जैसी होगी भली−बुरी स्थिति हमें प्राप्त होगी यह सोचना गलत है। सही यह है कि जैसी कुछ अपनी भीतरी स्थिति होगी उसी के अनुरूप वाह्य परिस्थितियाँ बनती−बदलती चली जायेगी। अपने आपको सुधारने का अर्थ है, अपनी उलझी समस्याओं को सुधार लेना और अपनी सर्वतोमुखी प्रगति का पथ −प्रशस्त करना। यह कठिन है कि बाहर के व्यक्तियों को अथवा घटनाओं को अपनी इच्छानुकूल ढाल लें। उसकी अपेक्षा यह सरल है कि अपनी अन्तःस्थिति को बदल कर अभीष्ट वातावरण अपने आप ही बदल जाने का द्वार खोखदें। बुद्धिमत्ता की यही रीति है।

दूसरों की सही समीक्षा कर सकना कठिन है पर अपने आपको आसानी से जाना जा सकता है। दूसरों को सुधारना कठिन है पर अपने आपको तो आसानी से सुधारा जा सकता है। दूसरों की सहायता बड़ी मात्रा में कर सकना संभवतः उतना न बन पड़े जितना कि अपनी सहायता आप की जा सकती है हम अपने को समझें— अपने को सुधारें और अपनी सेवा करने के लिए आप तत्पर हों तो निश्चित रूप से यह दूसरों की सेवा के लिए किये जाने वाले पुण्य−परमार्थ का प्रथम किन्तु अत्यन्त महत्वपूर्ण कदम होगा।

जो पाना चाहते हो उसके लिए बाहरी दौड़−धूप करने से पहले अपने भीतर उपयुक्त पात्रता उत्पन्न करें। व्यक्तित्व को जितना ही प्रखर परिष्कृत और समर्थ बनाया जायगा उतना ही अभीष्ट उपलब्धियों को प्राप्त कर सकना संभव ही नहीं सरल भी हो जायगा। अपनी विशेषताएँ डडडड बाहरी सहयोग को आकर्षित करती है। उपलब्धियों लाभ उठा सकना भी उसी के लिए संभव है जो भीतर मजबूत हैं। अपनी दुर्बलताओं की उपेक्षा करते रहेंगे भी बाहरी उपलब्धियाँ पकड़ की सीमा से बाहर ही व रहेंगी। इसलिए अपना चुम्बकत्व प्रखर बनाने के लिए तत्पर होना चाहिए, अनेक सफलताएँ उसी के आध पर खिंचती हुई समीप चली आयेगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118