दाहर की दृष्टि सदैव नावेर के घोड़े पर ही रहती। वह किसी युक्ति से नावेर के घोड़े का अपहरण करना चाहता था। पहले तो उसने घोड़े की माँग की पर जब उसकी इच्छा पूर्ण न हुई तो वह घोड़े को लेने के लिए अनेक प्रकार की तरकीबें सोचने लगा।
नावेर किसी आवश्यकता कार्य से अपने सम्बन्धी के यहाँ जा रहा था। चलते −चलते शाम हो गई। एक सुनसान जगह पर आम के पेड़ के नीचे कराहते हुए किसी व्यक्ति ने अश्वारोही से कहा— ‘मेरी तबियत बहुत खराब है। आज दोपहर से तीव्र ज्वर से पीड़ित हूँ। यदि उचित समझें तो मुझे भी अपने साथ लेते चलें।’
अश्वरोही नावेर का दिल पसीज गया। उसने रोगी को घोड़े पर पीछे की ओर बैठा लिया। मुश्किल से आधे मील की यात्रा पूरी हुई होगी कि पीछे बैठे व्यक्ति ने नावेर को जोर से धक्का देकर घोड़े से नीचे गिरा दिया। और घोड़ा भगाते हुए उस रोगी ने कहा— ‘नावेर तुम पहचानते हो मैं कौन हूँ।मैंने तुमसे घोड़ा देने के लिए कितनी मिन्नते की पर तुमने एक भी न सुनी। मैं दाहर हूँ। आंखें खोलकर मुझे देख लो।’
नावेर ने कहा— ‘दाहर तुमने यह अच्छा नहीं किया हैं।मैं मानता हूँ कि अब इस घोड़े के मालिक तुम हो पर अपने किसी मित्र से भी इस प्रकार घोड़े के प्राप्त करने के रहस्य को प्रकट न करना। यदि तुम्हारी यह चालाकी खुल गई तो निर्धनों और दीन−दुखियों का बहुत बड़ा अहित हो जायेगा। लोग जरूरतमंद व्यक्तियों को भी ढोंगी समझकर उनकी सहायता करने से हिचकिचायेंगे।’ नावेर की मर्म भरी वाणी सुकर दाहर की इंसानियत जाग उठी। वह मन ही मन उसकी सज्जनता से बहुत प्रभावित हुआ। उसने हाथ जोड़कर नावेर से क्षमा माँगा नावेर ने भी उसे हृदय से लगा लिया।