आस्तिकता के दो अनुदान−वरदान

June 1974

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आस्तिकता के दो अविछिन्न अंग हैं—आशा और प्रसन्नता। जो ईश्वर पर विश्वास करेगा उसे यह भी मानना पड़ेगा कि उसने सर्वोपरि उपहास—मनुष्य जीवन देकर असाधारण प्यार भरा अनुदान दिया है। जब इतना कुछ दे दिया तो भविष्य में उपयोगी साधन देने में भी कंजूसी क्यों करेगा? यह विचार सहज ही मनःस्थिति में सुनहरी आशा का संचार करता है। यही कारण है कि सच्चे अर्थों में ईश्वर विश्वासी सदा आशा का दीपक संजोये रहता है। निराशा की अँधियारी उसे छू भी नहीं पाती। अरस्तू सच ही कहा करते थे कि—’निराशा अपने ढंग की नास्तिकता है। जिसने उजले भविष्य की आशा छोड़ दिया, नास्तिकता और निराशा एक ही वस्तु के नाम रूप हैं।

ईश्वर महान् है उसका कर्तृत्व भी महान है। ईश्वर सुन्दर है, उसका कर्तृत्व भी असुन्दर नहीं हो सकता। उसने जो कृतियाँ प्रस्तुत की हैं वे हमें सुन्दर लगीं सो ठीक है, पर जब वह उन्हें बदल कर दूसरे नये अथवा अधिक सुन्दर रूप में प्रस्तुत करने जा रहा है तो हम उसे अनुपयुक्त क्यों मानें? अवाँछनीय क्यों समझें? और खिन्न किसलिए हों?

जब हमें धन लाभ हुआ था तब वह किसी को हानि थमा कर हमारे हाथ आया था। जिस दिन अपने घर पुत्र जन्मा था उस दिन कहीं न कहीं मरण का कुहराम जरूर मचा होगा। पत्नी जिस दिन हमारे घर आई उस दिन उसके पिता के घर सूनेपन की उदासी छाई होगी। जब हानि उठा कर हमारे लिए सुख सुविधा का साधन प्रस्तुत करना ईश्वर का दया युक्त उचित कार्य था तो आज वैसी ही सुविधा किन्हीं दूसरों के देने के लिए जब हमारे हाथ से सुविधाएँ जा रही हैं—प्रिय स्थिति का समापन हो रहा है तो उसे अनर्थ क्यों माना जाय? आखिर ईश्वर हमारा अकेले का ही तो नहीं है। उसके सभी तो बालक हैं। पारी−पारी ही तो एक को गोदी में चढ़ायेगा और दूसरे को नीचे उतारेगा।

विजेताओं को शील्ड एक साल ही तो अपने पास रखने का अधिकार है। अगले साल को उसे किसी अन्य विजेता का घर सुशोभित करना है। सदा एक ही जगह बनी रहे तो फिर चल शील्ड की परम्परा ही समाप्त हो जायगी। एक स्थान से दूसरे स्थान पर वस्तुओं और व्यक्तियों को बदलते रहने में शोभा भी है और व्यवस्था भी। सरकारी अधिकारियों के तबादिले न हों सब सदा के लिए एक स्थान पर ही जमे बैठे रहें तो पदोन्नति प्रतिभा−विकास और सूझ−बूझ के विविध प्रयोगों का प्रचलन ही अवरुद्ध हो जायगा।

हमारे अधिकार में रही वस्तुएँ और संपर्क में रहे व्यक्ति जितने समय अपने रहे उतना अच्छा ही रहा उससे सन्तोष और आनंद मिला सो ठीक है पर अब उन खिलौनों से दूसरों को भी तो खेलने देना चाहिए। हमें भी खाली कहाँ रखा जाने वाला है। दूसरी तरह की वस्तुएँ—दूसरी तरह की परिस्थितियाँ अगले ही दिनों सामने आयेंगी और अन्य नये लोगों से संपर्क बनेगा। उस नवीनता को आशा भरी दृष्टि से देखें और जो गुजर गया उसकी उपेक्षा करें तो खिन्न एवं अप्रसन्न रहने का कोई कारण शेष न रह जायगा।

ईश्वर विश्वास का अर्थ है—उस क्रिया−कलाप के पी रहने वाले सुरम्य सौंदर्य की अनुभूति करना। हमारी मन के अनुरूप ईश्वर के कार्य चलें—वह हमारी रुचि के अनुरूप अपनी गतिविधियाँ निर्धारित करे यह अपेक्षा कर व्यर्थ है। ईश्वर सिन्धु है हम बिन्दु। बूँद का समर्पण सागर के प्रति होता है; तभी उसे सागर द्वारा अपने प्रति समर्पण की अनुभूति होती है। ईश्वर की इच्छा को ही अपनी इच्छा के अनुरूप मोड़ें यही ईश्वर भक्ति है। उसे हमारी मर्जी के अनुरूप चलना चाहिए यह कह अनधिकार चेष्टा है। हम केवल लाभ हानि की बात सोचते हैं जबकि ईश्वर को अपनी समस्त सृष्टि में सन्तुलन बनाये रखना पड़ता हैं। रेलगाड़ी की तरह उसे यहाँ के मनुष्यों को वहां और वहां की वस्तुओं को यहाँ ढोने सर्वदा के लिए अपनी सीट सुरक्षित रहने की आशा करना—रेल व्यवस्था को उखाड़ देने जैसी कुचेष्टा ही बन जायगी।

ईश्वर भक्त हर स्थिति में प्रसन्न रहता हे। उपलब्ध पदार्थ एवं परिस्थितियों का श्रेष्ठतम सदुपयोग क्या हो सकता है वह इतना ही सोचता है और इसके लिए अधिकाधिक उपयुक्त मार्ग खोजता है। वस्तुओं का संग्रह नहीं सदुपयोग उसका लक्ष्य रहता है। जमा करने जोड़ने और उनका अधिपति बनने का अहंकार उसे भाता नहीं। नदी की लहरों की−हवा की हिलारों की रो बाँध कर सकना किसी के लिए भी सम्भव नहीं। सम्पदा का अधिपति सदा के लिए कोई नहीं रह सकता। जो आज अपने हाथ है वह किसी के हाथ से ही छिनकर आई थी। उसे अगले क्षणों अपने हाथों से भी छिनकर अन्यत्र जाना है इसके जिए जिसने अपने को तैयार रखा है वही निर्लोभ और अनासक्त रह सकेगा। संग्रह में नहीं सदुपयोग में उसकी रुचि रहेगी। ऐसे व्यक्ति को लाभ का हर्ष और हानि का शोक देर तक विक्षुब्ध न कर सकेगा।

व्यक्ति जो आज अपने समीप रहते हैं—मित्र या घनिष्ठ हैं वे सदा इसी रूप में बने नहीं रह सकते। छोटा बच्चा प्रायः दिन−रात माता के शरीर के साथ चिपटकर रहता है। रात को साथ सोना, दिन को गोदी में खेलना, दूध पीना आदि को साथ को मिलाकर अधिकाँश समय साथ ही व्यतीत होता है। धीरे−धीरे यह अवधि कम होती जाती है। युवा होने पर वही बालक अपनी पत्नी, बच्चों के साथ रहता है और माँ के पास कभी−कभी ही तनिक देर को बैठ पाता है। दोनों के शरीर का चिपका रहना तो प्रायः बन ही नहीं पाता। नौकरी पर कहीं अन्यत्र चले जाने की स्थिति में तो माता और बेटे का मिलन और भी अधिक समय साध्य हो जाता है। इस भिन्नता को लेकर कोई माता या बालक रुदन करने लगे और भूतकाल की समीपता का स्मरण करके दुखी रहे तो यह उनकी मूर्खता ही कही जायगी। समय के साथ उन्हें अपनी मनः स्थिति भी बदलनी ही चाहिए।

पति−पत्नी विवाहोपरान्त जितने घुल मिलकर रहते हैं कई बच्चे हो जाने के बाद वह स्थिति नहीं रहती। इस परिवर्तन से वे दुखी रहने लगें तो गृहस्थ जीवन का आनन्द ही चला जायगा। ठीक इसी प्रकार का एक परिवर्तन मरण भी है। कन्या अपने पिता—गृह से पति−गृह जाती है। इसमें तनिक सा शोक तो होता है पर गहरा सन्तोष भी रहता है। अपना कोई प्रियजन यदि मरता हे तो वियोग का सामयिक कष्ट होना तो स्वाभाविक है पर नवीन वस्त्र पहनने—नये परिवार में जाने —नई माता का पयपान करने— नया दुलार पाने से उस आत्मा को जो प्रसन्नता एवं सुविधा रहेगी उसका भी विचार करना चाहिए। जो ऐसा विचार कर सकता हे वह स्वजनों के मरण अथवा अनिवार्य विछोह पर अत्यधिक उद्विग्न नहीं होता। इस परिवर्तन के पीछे छिपी ईश्वर की इच्छा और व्यवस्था को शिरोधार्य करने के लिए उसकी निष्ठावान आस्तिकता सहज ही सहमत कर लेती है।

सच्ची आस्तिकता की दो परख है सघन आशावादिता और मुस्कान भरी प्रसन्नता। इन दोनों मानसिक उपलब्धियों के कारण जीवन इतना सरस और सरल रहता है कि सामान्य मनुष्यों को कष्ट देने वाले शोक−संताप उस तक फटकने भी नहीं पात। ईश्वर भक्ति के फलस्वरूप सदा अनुकूल स्थिति ही बनी रहेगी अथवा प्रचुर सुख साधन उपलब्ध रहेंगे ऐसी बात नहीं है। अभाव,हानि और वियोग की अप्रिय परिस्थितियाँ उनके सामने भी आती जाती रहती हैं। अन्तर केवल इतना ही रहता है कि परिष्कृत दृष्टिकोण के कारण वह संसार में होते रहने वाले परिवर्तनों से अत्यधिक प्रभावित नहीं होता। उन्हें विनोद के साथ देखता है और अपने को बदली परिस्थिति के अनुरूप ढाल लेता है। ईश्वर भक्त रोता खीजता नहीं हँसता और हंसाता रहता है। आस्तिकता उसे उज्ज्वल भविष्य की आशा बनाये रखने का सुनिश्चित आश्वासन देती रहती है यह वरदान ऐसे हैं जो आस्तिकता के फलस्वरूप आदि से अन्त तक मिलते ही रहते है।


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