हम स्वाभिमानी बनें अहंकारी नहीं

June 1974

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स्वाभिमान आवश्यक है पर अहंकार अहितकर। आत्म−गौरव की रक्षा का अर्थ है वैयक्तिक य श्रेष्ठता का इस सीमा तक अक्षुण्ण बनाये रहना कि उस पर उँगली न उठाई जा सके और निष्कृष्टता के साथ जुड़ी रहने वाली आत्म प्रताड़ना न सहनी पड़े।

अहंकार गुणों का नहीं वस्तुओं का होता है। संपत्ति का, रूप का, बल का, पद का, विद्या का, घमण्ड करना यह बताता है कि इस व्यक्ति की समझ उन साँसारिक पदार्थों को ही महत्व देने तक सीमित है अथवा उन भौतिक परिस्थितियों को सब कुछ समझने की है जिनके स्थायित्व को कोई ठिकाना नहीं।

आज जो धनी है आजीवन वैसी ही स्थिति में बना रहेगा इसका कोई ठिकाना नहीं। आमदनी घटने और खर्च बढ़ने के कई बार ऐसे अप्रत्याशित कारण आंकड़े होते है जिनके कारण संग्रहित पूँजी देखते−देखते समाप्त हो जाती है। चोरी, बीमारी, मुकदमेबाजी, विवाह−शादी के ऐसे खर्च आ सकते है जिनके कारण सम्पन्नता चुक जाय। नौकरी से रिटायर होने, व्यापार में मन्दी आने, कृषि में वर्षा न होने आदि के ऐसे कारण आ जाते हैं जिनसे आमदनी के स्त्रोत सूख जाते है। घर के लड़के व्यसनी, आलसी एवं कुमार्गगामी निकले तो भी संपत्ति देर तक नहीं ठहरती, भले ही वह कितनी ही अधिक क्यों न हो ऐसे अगणित उदाहरण देखने सुनने को मिलते रहते हैं जिनमें पिछले दिनों सुसम्पन्न कहलाने वाले व्यक्ति आज दर−दर की ठोकरें खाते देखे जाते हैं। इन सब बातों का जो ध्यान रखेगा वह सम्पत्ति की अस्थिरता को अनुभव करेगा और उस पर घमंड करने का कोई कारण न देखेगा, धन का अहंकार आज किया जा सकता है पर कल जब वह न रहेगा तो आसमान से गिर कर पाताल से टकराने जितनी चोट लगेगी। हर कोई उस पतन का मजाक उड़ायेगा। ऐसे व्यक्ति दूसरों की सहानुभूति भी अर्जित नहीं कर पाते। दुर्दिनों में उन पर व्यंग और उपहास ही बरसते है। धन हानि के साथ−साथ इस तिरस्कार का प्रभाव मिलकर कष्ट को दूना कर देते है। ऐसे ही दुहरी मार से तिलमिला कर कई दिवालिये आत्म−हत्या तक करते देखे गये है।

अहंकार का उद्देश्य ही यह है कि सामने वालों को यह अनुभव कराया जाय कि वे अहंकारी की तुलना में छोटे हैं। अमीरी के ठाठ−बाठ इसी दृष्टि से बनाये जाते है कि संपर्क आने वाले लोग अपने साथ उसकी तुलना करें और यह स्वीकार करें कि यह व्यक्ति हमारी अपेक्षा बड़ा है। वैभव के आधार पर बड़प्पन पाने का तरीका ही यह है कि लोगों को अनुभव करने दिया जाय कि वे तुलना में बहुत छोटे हैं।

इस चेष्टा का एक पक्ष जहाँ सुखद है वहाँ दूसरा पक्ष कन दुखद नहीं है। मनुष्य की अन्तःचेतना अपने आपको तुच्छ सिद्ध किया जाना सहज ही स्वीकार नहीं करती। जो भी उसे प्रकाराँतर से चोट पहुँचाता है उसके विरुद्ध विद्रोह खड़ा करती है। अस्तु एक ओर जहाँ लोग धनी लोगों की धाक स्वीकार करते है वहाँ उनके भीतर घृणा का भाव भी उठता है। पता न लगने पर भी अचेतन मन में यह विद्रोह उठता है कि बड़प्पन दिखाने वाले को किसी प्रकार नीचे गिरना चाहिए ताकि अपने को छोटा अनुभव करने का व्यथा से छुटकारा मिल सके।

देखा गया है कि धनी लोगों की चापलूसी और खुशामद होती है, उनके यश बखाने जाते हैं; वहाँ वे ही लोग उसे काटने गिराने के लिए पीठ पीछे निन्दा करते रहने से भी नहीं चूकते। कभी अवसर आता है तो उसे गिराने में भी नहीं चूकते। हानि और विपत्ति का अवसर आने पर मन ही मन प्रसन्न भी खूब होते है और इस मनचली स्थिति को ओर भी अधिक फलित होने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से योगदान देते है।

रूप का अहंकार प्रदर्शित करने के लिए नई उम्र के लोग बन–ठनकर निकलते, शृंगार बनाते और बचकानी चाल−ढाल अपनाते है। उनका उद्देश्य दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करके यह छाप डालना होता है कि उनके रूप के साथ देखने वाले अपने रूप–यौवन की तुलना करें और यह स्वीकार करें कि यह रूपवान व्यक्ति कितना सुन्दर और सौभाग्यशाली है। ऐसे ठिठोरची विज्ञ लोगों की आँखों में अपने गिराते हैं और ओछे, बचकाने अथवा उच्छृंखल कहलाते है। इस स्तर के युवकों पर तरह−तरह के आक्षेप लगाये जाते है। उनके चरित्र के सम्बन्ध में सहज ही शंका उठती है और वह अकारण भी नहीं है। सजधज की शृंगारिकता धीरे−धीरे कामुक हाव−भाव और उच्छृंखल गतिविधियों की ओर बढ़ती है। फलतः कोई फँसने या फँसाने वाले भी मिल जाते है। शील नष्ट होने को इन परिस्थितियों में सहज ही अधिक आशंका रहती है। मनचले लोगों की ही प्रवृत्ति शृंगारिक सजधज के लिए आतुर रहती है और यह आतुरता उनके चरित्र के लिए संकट ही उत्पन्न करती चली जाती है। मानसिक अथवा शारीरिक व्यभिचार के फलने−फूलने के यही क्षेत्र उपजाऊ सिद्ध होते है।

शृंगारिक अहंकार को प्रदर्शित करना स्पष्टतः खर्चीला और महंगा पड़ता है। इस आर्थिक कठिनाई के युग में सामान्य स्तर के लोग निर्वाह के आवश्यक साधन ही कठिनाई से जुटा पाते हैं फिर इस महंगी सजधज के लिए खर्च होने वाला पैसा कहाँ से आये? नित नई भड़कीली पोशाकें पहनने के साधन जुटाना कितना खर्चीला होता है इसे वे ही लोग जान सकते हैं जिन्होंने उन पर पैसा पानी की तरह बहाया है। शृंगार की प्रसाधन सामग्री कितनी महंगी है और फिर शान तो यह भी कहती है कि उन चीजों में से जो महंगे मोल आती हों उन्हें ही खरीदा जाय। ऐसे लोग फटी−पुरानी या सस्ते दाम की चीजों से काम नहीं चला सकते। फलतः अनावश्यक अपव्यय भी उनके सामने एक बड़ी आवश्यकता बनकर सामने आता है। नशेबाजी, सिनेमाबाजी, मटरगश्ती, यारबाजी जैसे व्यसन भी इसी रँगीली प्रवृत्ति के सहचर है। ऐसे लोग अक्सर कर्जदार, चोर, बेईमान पाये जाते है। परिवार के लोगों को अभावग्रस्त दरिद्रों की स्थिति में पटक कर उन्हें सताते है। अच्छी कमाई होने पर भी ऐसे लोग आर्थिक कष्ट में ही फंसे रहते है। पूर्वजों की संग्रहित सम्पत्ति को फूँकने उड़ाने में उन्हें कुछ देर नहीं लगती। अपव्यय की पूर्ति के लिए उन्हें अवाँछनीय और अनैतिक तरीके अपनाने पड़ते हैं। युवा लड़कियों का इस प्रकार ‘इठलाना’ तो उनके लिए दुष्ट, दुराचारियों कि शिकार बनने के लिए स्पष्टतः भयंकर खतरा उत्पन्न करता है। किसी भी दृष्टि से विचार किया जाय, रूप−यौवन का उद्धत प्रदर्शन करना एक ओछे किस्म का और हानिकारक प्रयास ही सिद्ध होता है।

शारीरिक बल का उद्धत प्रदर्शन करने के लिए आम−तौर से गुण्डागर्दी का सहारा लिया जाता है अथवा बलिष्ठ सिद्ध होने के लिए कोई अचंभे जैसा श्रम किया जाता है। यह दोनों ही चेष्टाएँ अन्ततः हानिकारक ही सिद्ध होती है। स्वास्थ्य रक्षा का सहज आनन्द अधिक उत्तम और अधिक व्यवस्थित कार्य करके प्रगति पथ पर क्रमबद्ध रूप से अग्रसर होना ही हो सकता है। उच्छृंखल प्रदर्शन करने वाले राह भटक कर उसे ऐसे कामों में खर्च करते है जिनसे दूसरे लोगों को चकित किया जा सके। आतंकवादी आचरण प्रायः ऐसी ही मनोवृत्ति के लोग करते हैं स्पष्ट है कि अपना रौब गाँठने के लिए जो भी आचरण किया जायगा उसकी प्रतिक्रिया अपने लिए अहितकर परिणाम लेकर ही वापस लौटेगी।

सरकारी, गैरसरकारी उच्च पद पर प्रतिष्ठित होना स्वभावतः ऐसे उत्तरदायित्व कंधे पर डालता है जो अपेक्षाकृत अधिक कठिन और महत्वपूर्ण होते है; इन्हें पूरा करने के लिए साथियों का अधिक मात्रा में और अधिक गहरा सहयोग अपेक्षित होता है। इसे उनका हृदय जीत कर उनके मन में अपना सम्मान स्थापित करके ही प्राप्त किया जा सकता है। अहंकार पूर्वक प्रताड़ना देकर जो काम कराये जाते हैं वे बेगार भुगतने की तरह आधे अधूरे ही रहते है। उनका परिमाण भी स्वल्प रहता है। उपेक्षा पूर्वक भार समझकर—रोष पूर्वक जो किया जायगा उसमें स्तर की उत्कृष्टता रह ही नहीं सकती। जिस भी कार्य में साथियों का बलात् सहयोग लिया जा रहा होगा वह घटिया भी होगा और कम भी। वे जमाने चले गये जब कोड़ों से पीट कर अधिक काम कराया जाता था। इन दिनों आतंक से नहीं प्रेम और सद्भाव से ही, सही और पूरा काम करने की आशा की जा सकती है। अहंकारी अफसर में यह विशेषता उत्पन्न हो ही नहीं सकती।

संस्थाओं में महत्वपूर्ण पद पाकर उद्धव आचरण एवं अहंकार प्रदर्शन करने वालों की भी दुर्गति ही होती है। उनके विरोधी प्रतिद्वंद्वी खड़े हो जाते हैं और पदों की छीना−झपटी का ऐसा कुचक्र चलता है कि न केवल संस्थाओं का ढ़ाँचा ही लड़खड़ाने लगता है वरन् वह उद्देश्य भी नष्ट होता है जिसके लिए उन्हें खड़ा किया गया था।

विद्या की प्रतिक्रिया विनय होनी चाहिए। फलों से लदे हुए वृक्षों की डालियाँ नीचे झुक जाती हैं। विशिष्टताओं और विभूतियों से लदे मनुष्यों को तो नम्रता और सज्जनता से भरा पूरा होना चाहिए। झुकना ही उनकी महानता है। विद्वान, गुणवान, कलाकार,या ऐसे ही अन्य विशिष्ट व्यक्ति तभी सम्मानास्पद बनते हैं जब उनमें सौजन्य का आवश्यक मात्रा बनी रहे। ज्ञान का अहंकार सबसे घटिया किस्म का है। धन,बल, रूप आदि भौतिक पदार्थों के कारण बने अहंकाकर को तो एकबार यह सोचकर उपेक्षा भी की जा सकती है कि यह बन्दर के हाथ तलवार लगने जैसी विडंबना है। विद्वान का अहंकार अक्षम्य है। ज्ञान के साथ तो सज्जनता और शालीनता जुड़ी ही रहनी चाहिए। यदि विद्वान, ज्ञानी, संत, घमंडी होंगे तो फिर नम्रता और विनयशीलता का अनुकरणीय आचरण कहाँ से सीखा जायगा?

घमंडी स्तर के लोग वस्तुतः व्यक्ति की दृष्टि से बहुत ही पीछे होते हैं। उद्धव प्रदर्शन और रौब–दौब की नीति अपना कर वे अपनी उपलब्धियों का दुरुपयोग ही करते है; उन्हें जो अधिक मिला है उसका पूरा लाभ तभी है जब दूसरे लोग भी उसे सराहें और कुछ सीखें। यह तभी हो सकता है जब सम्पत्तिवान में नम्रता, विनयशीलता और सज्जनता की मात्रा भी सम्पत्ति की तुलना में कम नहीं वरन् अधिक ही बढ़ती चले।

प्रत्येक सम्पत्ति अस्थिर है। पानी की लहरों की तरह उनका आना जाना बना रहता है। आयु बढ़ने के साथ साथ रूप, यौवन ही नहीं विद्या बुद्धि भी घटने लगती है। धन तभी तक अपना है जब तक उस पर अपना नियन्त्रण है। बेटे, पोतों के हाथ में सत्ता चले जाने पर धन समझा जाने वाला वृद्ध पुरुष भी अनाथ निर्धन जैसा परमुखापेक्षी हो जाता है। पद छिनने के बाद उच्च पदाधिकारी भी चपरासी से गये बीते बन जाते हैं। जिन आधारों की देर तक ठहरने की सम्भावना नहीं, जो वर्ष में बिजली की तरह चमक कर विलीन हो जाते हैं उन वैभवों का घमंड करना अपनी अदूरदर्शिता का परिचय देना ही है। इस अहंकार प्रदर्शन में ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, विरोध, विद्रोह एवं ठगे, बहकाये जाने के इतने अधिक खतरे मौजूद हैं जिन्हें देखते हुए विज्ञ व्यक्ति इसी निष्कर्ष पर पहुँचता है कि ओछेपन की इस मूर्खता से जितनी जल्दी छुटकारा पाया जा सके उतना ही उत्तम है।

निन्दा अहंकाकर की है, स्वाभिमान की नहीं। स्वाभिमान अपने आत्मिक स्तर को अक्षुण्ण बनाये रहने से सम्बन्धित है। नियमितता समय का पालन, श्रमशीलता कर्त्तव्य−निष्ठा उत्तरदायित्वों का निर्वाह, मर्यादाओं का पालन, प्रामाणिक सदाचरण, सज्जनोचित सद्व्यवहार, न्यायानुसार निष्पक्ष चिन्तन, उदात्त दृष्टिकोण, उदार व्यवहार जैसी वैयक्तिक क विशेषताओं का संरक्षण एवं अभिवर्धन ऐसी विभूतियाँ हैं जिन पर गर्व करना उचित कहा जा सकता है। इन विभूतियों को नष्ट होने देने के लिए जो सुरक्षात्मक मनोबल अन्तःकरण में विद्यमान रहता है उसे स्वाभिमान कहते हैं। इस स्वाभिमान की रक्षा के लिए हमें प्राण−प्रण से प्रयत्न अहंकाकर को निरस्त करना ही श्रेयस्कर हैं।


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