समस्त उन्नतियों का मूल सदाचरण ही है।

July 1966

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हर वह विचार एवं व्यवहार जो अपने अथवा किसी दूसरे के लिये किसी माने में भी अहितकर हो चरित्र-हीनता है। विपथ-गमन से लेकर किसी को कटु वचन कहना अथवा मन में दुर्भावना रखना तक चरित्र हीनता की परिभाषा में आता है। सरल, सुन्दर तथा सुखकर आचार विचार वाला व्यक्ति चरित्रवान ही कहा जायेगा। किसी भी समाज, वर्ग अथवा राष्ट्र में सच्चरित्रता एवं दुश्चरित्रता की परिभाषा अपनी मान्यताओं, मर्यादाओं तथा धारणाओं के आधार पर अलग-अलग हो सकती हैं। अपनी मान्य मर्यादाओं एवं मान्यताओं के अनुसार ही चलना किसी समाज के व्यक्ति के लिये सच्चरित्रता हो सकती है और उसके विपरीत चलना दुश्चरित्रता। दूसरे समाजों अथवा व्यक्तियों के समाजों की मान्यताओं का उदाहरण लिये बिना ही मनुष्य को अपनी लोक मर्यादाओं के अनुसार ही चलना चाहिए।

भिन्न-भिन्न मान्यतायें होने पर भी संसार में सच्चरित्रता की एक सार्वभौम परिभाषा है वह है सदाचार। सदाचार का अर्थ है अच्छे काम करना। ऐसे काम करना जिससे किसी दूसरों को कष्ट तो नहीं हो अपने तथा अन्यों के लिये हित सन्निहित हो। अपने नैतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक अधिकार व कर्तव्य का विचार रखकर व्यवहार करने वाले को चरित्र-हीनता का कलंक नहीं लगने पाता।

चरित्र मानव जीवन की नींव है। यदि नींव ही जर्जर तथा कमजोर होगी तो जीवन का महालय विश्वासपूर्वक खड़ा न रह सकेगा। वैसे संसार में जीने के लिये बड़े-बड़े दुश्चरित्र लोग भी जीते हैं, किन्तु उनका जीना, जीना नहीं माना जा सकता है। जीवन उसी का है जिसके विषय में लोगों को बुरी धारणा न हो। जिसकी उपस्थिति से लोग दूर न भागना चाहें। जिस पर लोग विश्वास करें और जो स्वयं भी निर्भीक, निष्कलंक एवं सम्मानपूर्वक जीता हो। दुश्चरित्र व्यक्ति को ऐसा निर्द्वन्द्व जीवन प्राप्त नहीं हो सकता। जिसका चरित्र गिरा हुआ है, जो समाज में विश्वास के योग्य नहीं रहा है, उसे पग पग असहयोग, असफलता एवं असहानुभूति का ताप सहना ही पड़ेगा।

संसार में ऐसे न जाने कितने शक्तिशाली एवं धनी व्यक्ति होंगे जिनको कोई भी कमी नहीं और बहुत मानों में वे समाज की सहायता तथा सेवा भी करते होंगे किन्तु फिर भी किसी चारित्रिक दुर्बलता के कारण समाज की प्रतिष्ठा के पात्र नहीं बन पाते होंगे। वे समाज के लिये कितना कुछ क्यों न करें किन्तु समाज उनकी सदाशयता में विश्वास नहीं करता। मुँह पर भले ही लोग उनकी आलोचना न करें, किन्तु मन ही मन घृणा करते रहते हैं। यह एक लाँछित एवं कलंकित जीवन है। ऐसे गर्हित जीवन से प्रत्येक व्यक्ति को बचने का प्रयत्न करना चाहिये। इसके विपरित अनेकों सत्पुरुष ऐसे होते हैं, कि धन, दौलत, शक्ति एवं बल के नाम पर उनके पास कुछ भी नहीं होता, तब भी समाज उनका आदर करता है। अपने सर आँखों चढ़ा कर रखता है। उनके आचरण तथा कथन में विश्वास करता है। उन्हें जीवन का आदर्श मानता है। निर्धन एवं निःशुल्क होने पर भी सत्पुरुषों का सम्मान उनके चरित्र धन के कारण होता है। एक चरित्रहीन धनवान की अपेक्षा एक सच्चरित्र निर्धन का आदर होना सहज स्वाभाविक है। उसके प्रति लोगों की श्रद्धा आप से आप झुकी रहती है। चरित्र का तेज उसके मुख मंडल पर चमकता हुआ लोगों को आकर्षित एवं प्रभावित करता रहता है।

चरित्र मनुष्य का अनमोल धन है। हर उपाय से इसकी रक्षा करनी चाहिये। किसी की धन दौलत जमीन जायदाद, व्यवसाय, व्यापार चला जाये तो वह उद्योग करने से पुनः प्राप्त हो सकता है। किन्तु जिसने प्रमाद अथवा असावधानी वश एक बार भी अपना चरित्र खो दिया तो फिर वह जीवन भर के उद्योग से भी अपने उस धन को वापस नहीं पा सकता। आगे चलकर वह अपनी भूल सँभाल सकता है, अपना सुधार कर सकता है, अपनी सच्चरित्रता के लाख प्रमाण दे सकता है किन्तु फिर भी वह एक बार का लगा हुआ कलंक अपने जीवन पर से धो नहीं सकता। उसके लाख सँभल जाने, सुधर जाने पर भी समाज उसके उस पूर्व पतन को भूल नहीं सकता और इच्छा होते हुये भी उस पर असंदिग्ध विश्वास नहीं कर सकता। एक बार का चारित्रिक पतन मनुष्य को जीवन भर के लिये कलंकित कर देता है। भूत, भविष्यता एवं वर्तमान की निर्धन स्थिति बदल जाने पर भुलाई जा सकती है उससे विगत अथवा आगामी धनवंता की सुप्रसिद्ध पर कोई अवाँछनीय प्रभाव नहीं पड़ेगा। किन्तु किसी समय का भी चारित्रिक पतन मनुष्य के सत्कर्मों को भी प्रभावित कर डालता है। कल तक जो व्यक्ति जीवन में सत्कर्म ही करता रहा है यदि आज वह अपनी चरित्रहीनता का प्रमाण देता है तो उसका साग किया कराया मिट्टी में मिल जायेगा। लोग यही सोचेंगे कि यह ऐसा ही रहा होगा। इसकी चरित्रहीनता इसके तथाकथित सत्कर्मों में छिपी रही होगी। यह जो कुछ भी अच्छा करता रहा है वह सब अपने कुकर्मों पर परदा डालने के लिये ही करता रहा है। इसके साथ यदि वह भविष्य में भी अपनी भूल सुधार कर सत्कर्मों में प्रवृत्त होता है तब भी लोग उसे उसका आडम्बर, प्रपंच अथवा छल ही समझेंगे। एक समय की एक चरित्रहीनता मनुष्य के त्रय कालिक जीवन को कलंकित कर देती है। इसी लिए तो विद्वानों का कहना है कि मनुष्य का यदि धन चला गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य चला गया तो कुछ गया और यदि चरित्र चला गया तो सब कुछ चला गया। इस लोकोक्ति का अर्थ यही है कि धन दौलत तथा स्वास्थ्य आदि को फिर पाया जा सकता है किन्तु गया हुआ चरित्र किसी भी मूल्य पर दुबारा नहीं पाया जा सकता। इसलिये मनुष्य का प्रमुख कर्त्तव्य है कि वह संसार में मनुष्यता पूर्ण जीवन जीने के लिये हर मूल्य पर, हर प्रकार से हर समय, अपनी चरित्र रक्षा के लिये सावधान रहे।

सच्चरित्रता मनुष्य की सफलता की गारंटी है। आचरण वान व्यक्ति निश्चित रूप से मन शरीर तथा आत्मा से पुष्ट हुआ करता है। वह हर परिश्रम एवं पुरुषार्थ के करने योग्य होता है। हो सकता है कि चरित्रवान व्यक्ति किसी रोग आदि की आकस्मिकता से एक बार शरीर से निर्बल हो जाये किन्तु वह मन तथा आत्मा से कभी कमजोर नहीं होता। जिसके मन व आत्मा कमजोर नहीं होते, उसे शारीरिक निर्बलता बाधा नहीं दे पाती। एक तो वह शीघ्र ही अपने सदाचरण से शारीरिक शक्ति प्राप्त कर लेगा और यदि किसी कारण शारीरिक शक्ति पाने में उसे विलम्ब लगता है तो अन्य बहुत से लोग श्रद्धावश उसकी शक्ति बन जाते हैं? उसके सहायक बन जाते हैं।

पास में एक पैसा न होने पर भी चरित्रवान व्यक्ति व्यवसाय में दूसरों के सहयोग से बढ़ सकता है। लोग प्रसन्नतापूर्वक उसे धन आदि व्यवसाय करने के लिये दे सकते हैं। उन्हें विश्वास रहता है कि यह व्यक्ति आचरणवान है। हमारे दिये हुये पैसे को नहीं खोयेगा, बहाएगा नहीं और समय आने पर, सुविधा अथवा अवसर होने पर शीघ्र ही हमारा पैसा-पैसा अदा कर देगा।

अच्छे लोग ही नहीं बुरे लोग तक समाज में चरित्रवान व्यक्ति को आगे बढ़ाने के लिये सहर्ष उद्यत रहा करते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि आचरणवान व्यक्तियों के आगे बढ़ने से समाज की न केवल प्रतिष्ठा ही बढ़ेगी, उसमें सुख-शाँति का वातावरण भी उत्पन्न होगा। छल, कपट, मलीनता, मक्कारी, संघर्ष एवं स्वार्थ का दोष कम होगा जिससे उन्हें व उनकी संतानों तथा अन्य अनेक लोगों को सुख और शाँति मिलेगी।

व्यसनी, अपव्ययी अथवा लिप्सालु न होने से चरित्रवान व्यक्ति का सारा समय तथा सारा उद्योग उन्नति की दिशा में ही लगता है, जो सफलता का एक बहुत बड़ा कारण है। आचरणवान व्यक्ति की बुद्धि बड़ी ही प्रखर एवं चारु-चिन्तका होती है। वह मनुष्य को निरन्तर आगे की ओर ही बढ़ाती है। मन, बुद्धि तथा आत्मा के सबल होने ने चरित्रवान व्यक्ति किसी भी विपरित परिस्थिति तथा विपत्ति के समय न तो निराश होता है और न हिम्मत ही हारता है। उसे अपने पर—अपनी आत्मा पर—तथा समाज की सदाशयता पर—पूर्ण विश्वास बना रहता है। इसी विश्वास के कारण उसके बढ़ते हुये चरण निरुत्साह से ठिठककर रुकने नहीं पाते। साहस तथा निर्भीकता चरित्रवान व्यक्ति की ही निधि है जो कि उन्नति एवं विकास में बहुत बड़ी सहायक होती है।

आचरण हीन व्यक्ति जीवन में कोई भी उन्नति नहीं कर सकता और यदि संयोगवश वह किन्हीं अनुकूल परिस्थितियों की कृपा से उन्नति कर भी लेता है तो उसकी रक्षा नहीं कर पाता। आलस्य, प्रमाद तथा दुश्चिंता, आचरणहीन व्यक्ति के स्वाभाविक दोष होते हैं। इन दोषों के रहते मनुष्य का उन्नति कर सकना एक असम्भाव्य बात है। चरित्रहीन व्यक्ति अपने दुराचरण पर कितने ही मोटे आवरण क्यों न डालता रहे किन्तु एक न एक दिन उसका परदा फाश ही होता है। उसकी मन-मलीनता स्वयं ही किसी न किसी रूप में उसके असली स्वरूप को प्रकट ही कर देगी। आचरणहीन व्यक्ति का जब तक परदा फटा भी नहीं होता तब तक भी वह निरपराध नहीं रहने पाता। यह बात सही है कि निरावृत्त होने तक समाज में उसकी साख बनी रहती है। लोग उसे अच्छा आदमी समझते रहते हैं। मान सम्मान भी देते रहते हैं किन्तु फिर भी उसके अन्दर बैठा हुआ उसका सर्व साक्षी आत्मा उसे एक क्षण भी विश्राम नहीं पाने देता। वह उसे दिन रात धिक्कारता रहता है और भर्त्सना करता हुआ सुनाता रहता है कि तुम आडम्बर कर रहे हो, समाज को धोखा दे रहे हो। जिस प्रतिष्ठा को तुम ले रहे हो वास्तव में उसके अधिकारी नहीं हो। परदाफाश न होने पर भी आचरणहीन व्यक्ति मन ही मन भयभीत होकर तथा अपने वास्तविक स्वरूप को खुद देखता हुआ दिन-रात संत्रस्त एवं अशाँत रहा करता है। वह सब कुछ मान प्रतिष्ठा पाकर भी एक क्षण को विश्वस्त अथवा आश्वस्त नहीं हो पाता। अतएव मनुष्य को चाहिये कि वह सामाजिक लाँछना, आत्म भर्त्सना और उसके फलस्वरूप अशाँत जीवन से बचने और एक उज्ज्वल एवं उन्नत जीवन पाने के लिये चरित्रवान बने और अपने चरित्र की रक्षा करे।

वास्तव में यह कम दुर्भाग्य की बात नहीं है कि मनुष्य संसार की सभी उपलब्धियों को पाने के लिये दिन रात उद्योग करता रहता है। विशेषतया धन-दौलत पाने के लिये तो वह न जाने क्या-क्या करणीय अथवा अकरणीय कर्म करता रहता है। किन्तु कभी स्वप्न में भी चरित्रवान बनने की नहीं सोचता। वह न जाने यह क्यों नहीं सोच पाता कि यदि एक बार वह अपने चरित्र अपने सदाचरण की छाप समाज पर छोड़ सके, उसे यह विश्वास दिला सके कि वास्तव में वह चरित्रवान है तो उसकी सारी वाँछित समृद्धियों के द्वारा स्वतः ही खुल जायें। मूल को देखने के बजाय पत्तों पर देखने वाला मनुष्य एक बड़ी भूल में रहता है। चरित्र एवं सदाचरण सारी समृद्धियों की जड़ है। जीवन में विभूति, वैभव तथा आदर सम्मान पाने के इच्छुक मनुष्य को सब से पहले अपने चरित्र को उज्ज्वल एवं उन्नत बनाने का प्रयत्न करना चाहिये। उसे समझ लेना चाहिये कि संसार की सारी विभूतियाँ सदाचरण की ही अनुगामिनी होती हैं। सदाचरण से शून्य व्यक्ति न तो संसार में आज तक कुछ कर पाया है और न आगे कर पायेगा। संसार में सच्ची समृद्धि एवं सम्मान पाने वाले सदाचारी सत्पुरुष ही हैं। सच्चा सुख, सच्ची शाँति तथा सच्चा जीवन सच्चरित्रता का ही फल है। मानव जीवन एक अनमोल अवसर है एक अनन्त सुविधा है, इसका सदुपयोग कर मनुष्य तो क्या परमात्मा के समकक्ष बनकर एक चिरन्तन सुख शाँति का अधिकारी बन सकता है। किन्तु यह सब कुछ सदाचरण एवं चारु-चरित्र के बल पर ही हो सकता। दुश्चरित्र या दुराचारी व्यक्ति एक गर्हित जीवन व्यतीत करने के सिवाय और कुछ भी श्रेयस्कर कार्य नहीं कर सकता।

वास्तव में यह कम दुर्भाग्य की बात नहीं है कि मनुष्य संसार की सभी उपलब्धियों को पाने के लिये दिन रात उद्योग करता रहता है। विशेषतया धन-दौलत पाने के लिये तो वह न जाने क्या-क्या करणीय अथवा अकरणीय कर्म करता रहता है। किन्तु कभी स्वप्न में भी चरित्रवान बनने की नहीं सोचता। वह न जाने यह क्यों नहीं सोच पाता कि यदि एक बार वह अपने चरित्र अपने सदाचरण की छाप समाज पर छोड़ सके, उसे यह विश्वास दिला सके कि वास्तव में वह चरित्रवान है तो उसकी सारी वाँछित समृद्धियों के द्वारा स्वतः ही खुल जायें। मूल को देखने के बजाय पत्तों पर देखने वाला मनुष्य एक बड़ी भूल में रहता है। चरित्र एवं सदाचरण सारी समृद्धियों की जड़ है। जीवन में विभूति, वैभव तथा आदर सम्मान पाने के इच्छुक मनुष्य को सब से पहले अपने चरित्र को उज्ज्वल एवं उन्नत बनाने का प्रयत्न करना चाहिये। उसे समझ लेना चाहिये कि संसार की सारी विभूतियाँ सदाचरण की ही अनुगामिनी होती हैं। सदाचरण से शून्य व्यक्ति न तो संसार में आज तक कुछ कर पाया है और न आगे कर पायेगा। संसार में सच्ची समृद्धि एवं सम्मान पाने वाले सदाचारी सत्पुरुष ही हैं। सच्चा सुख, सच्ची शाँति तथा सच्चा जीवन सच्चरित्रता का ही फल है। मानव जीवन एक अनमोल अवसर है एक अनन्त सुविधा है, इसका सदुपयोग कर मनुष्य तो क्या परमात्मा के समकक्ष बनकर एक चिरन्तन सुख शाँति का अधिकारी बन सकता है। किन्तु यह सब कुछ सदाचरण एवं चारु-चरित्र के बल पर ही हो सकता। दुश्चरित्र या दुराचारी व्यक्ति एक गर्हित जीवन व्यतीत करने के सिवाय और कुछ भी श्रेयस्कर कार्य नहीं कर सकता।


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