एक अकाल ग्रसित प्रतिभा—श्री रामानुजम्

July 1966

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कभी कभी समाज में ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जब वह कुछ ऐसे राजनीतिक, आर्थिक अथवा नैतिक समस्याओं में उलझकर अनेक उन्नयन प्राप्त करती हुई प्रतिभाओं की ओर ध्यान नहीं दे पाता और वे उपेक्षा की आग में झुलस कर नष्ट हो जाती हैं।

होनहार प्रतिभाओं की उपेक्षा करने में किसी हद तक समाज दोषी हो सकता है, किन्तु इस सम्बन्ध में वे प्रतिभायें भी कम दोषी नहीं है जो स्वयं ही अपनी उपेक्षा किया करती हैं और समाज की कृपा की प्रतीक्षा करते हुये निकम्मी बैठी रहती हैं। अपनी प्रतिभा को प्रकाशित करने का स्वयं कोई प्रयत्न नहीं करतीं। सर्वथा समाज के सहारे बैठे रहने वाले, जीवन में कभी उन्नति नहीं कर सकते। अथवा यों भी कहा जा सकता है कि दूसरों के सहारे उन्नति की कामना करने वाले वास्तव में उन्नति करना ही नहीं चाहते। वास्तविक मन से जो अपनी उन्नति के आकाँक्षी होते हैं वे परमुखापेक्षी नहीं रहते, बल्कि अपनी निज की बुद्धि तथा परिश्रम से काम में जुट जाते हैं, और हठात् समाज को अपनी ओर आकर्षित करके, उसे यह सोचने पर विवश कर देते हैं कि यह एक होनहार प्रतिभा है इसकी उपेक्षा करने का अर्थ है अपनी हानि करना।

मद्रास प्रान्त में जन्म लेने वाले श्री रामानुजम की परिस्थितियाँ बड़ी ही संकुचित थीं। उनके पिता की इतनी भी आय नहीं थी कि वे परिवार को दोनों समय पूरा भोजन दे सकते। किन्तु तब भी रामानुजम् ने अपने अध्यवसाय के बल पर अपना अभ्युदय करके समाज के समक्ष एक उदाहरण उपस्थित कर दिया।

यही नहीं कि समाज ने भी उनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। ठीक है समाज ध्यान देता भी किस तरह? वह तो उन्हीं की ओर ध्यान देता है जिनके आगे कुछ शोर होता चलता है और जिनके पीछे लक्ष्मी की चमक रहती है। उसे इतना अवकाश कहाँ कि वह वैभव विभूति से जगमगाते हुये व्यक्तियों की ओर से अपनी दृष्टि हटाकर, उनकी ओर लगाये जो कठिन परिस्थितियों के बीच उन्नति एवं विकास के लिये संघर्ष करते होते हैं। किन्तु ऐसे श्रमवानों की संसार में कोई कमी नहीं है जो अपनी परिस्थितियों से मोर्चा लेते हुये और तिल-तिल आगे बढ़ते हुये समाज से सहायता की अपेक्षा नहीं करते जबकि वह जो कुछ करते होते हैं या करना चाहते हैं वह सब होना समाज के हित के लिए ही है। ऐसे ही अडिग तथा अविचल कर्मवीरों को निष्काम समाज सेवी कहा जाता है।

श्री रामानुजम् समाज की सेवा करना चाहते थे किन्तु विशेष रूप से कोई शारीरिक, संस्थापिका अथवा आर्थिक सेवा वे नहीं करना चाहते थे। उनका झुकाव तो एक ऐसी स्थायी सेवा करने का था जो केवल अपने समाज अथवा राष्ट्र के लिए ही उपयोगी न हो बल्कि सारा संसार उसका लाभ उठा सके और ऐसी सार्वभौमिक सेवा एकमात्र ज्ञानदान के अतिरिक्त कुछ हो ही नहीं सकती। उनका विचार गणित के कुछ ऐसे नये सिद्धान्तों का अन्वेषण करना था जिनसे गणित जैसा नीरस कहा जाने वाला विषय न केवल रुचिपूर्ण ही बने बल्कि सरल भी बन जाये। वे कुछ ऐसे सूत्रों का आविष्कार करना चाहते थे जिनकी सहायता से अनेक प्रकार के प्रश्न समान सरलता के साथ हल किये जा सकें।

देखने सुनने में तो यह बात बड़ी ही छोटी मालूम होती है कि क्या गणित के कुछ सिद्धान्त-इनसे संसार का क्या बनता बिगड़ता है? किन्तु गणित के सिद्धान्तों का महत्व उन ज्योतिषियों से पूछो जो इनकी सहायता से ग्रह-नक्षत्रों की गति का पता लगाते हैं, उन वैज्ञानिकों से पूछो जो इनके उपयोग से प्रकृति के तत्वों को खोज निकालते हैं, उन अर्थशास्त्रियों से पूछो जो इनकी मदद से संसार का अर्थ तन्त्र नियन्त्रण में रखते हैं।

फिर सबसे बड़ी बात तो यह है कि कोई भी उपयोगी बात उपयोगी ही है फिर चाहे वह छोटी हो अथवा बड़ी। जो जिस रूप में जितनी भी समाज की सेवा कर सकता है, संसार का हित कर सकता है, उसे करना चाहिये। संसार के विकास में अपना अंशदान करना प्रत्येक का पावन कर्तव्य है। मनुष्यों के छोटे-छोटे अंशदान मिलकर समाज का कितना बड़ा दान हो सकता है इसका अनुमान अपने मस्तिष्क से किसी समय भी दूर नहीं करना चाहिये। किसी तालाब को भरने के लिये किसी को एक बूँद जल का दान करने में भी न तो संकोच करना चाहिये और न लज्जित होना चाहिये। जिसके पास जो भी साधन हैं, जो भी क्षमता है उस भर संसार का हित करना मनुष्यता का सबसे बड़ा प्रमाण है।

श्री रामानुजम् में न तो कोई दिव्य प्रतिभा थी और न कोई विलक्षण बुद्धि। हाँ इतना अवश्य था कि अपने विद्यार्थी काल से ही उन्हें गणित में विशेष रुचि थी। अन्य विषयों की अपेक्षा उनको गणित के प्रश्नों की तरह-तरह से हल करने में बड़ा आनन्द आता था। धीरे-धीरे जब वे सयाने होने लगे तो अपनी इस विशेषता को पहचानने लगे। निदान उन्होंने अपनी अभिरुचि को लक्ष्य के रूप में बदलना शुरू कर दिया।

अपने इस गुण का महत्व तथा प्रामाणिकता को जानने के लिये रामानुजम् ने अध्यापकों के दिये प्रश्नों को नये-नये तरीकों से हल करके शिक्षकों के सम्मुख रखने शुरू कर दिये और उनसे प्रशंसा तथा सराहना पाते हुये उत्साहित होने लगे। अपनी प्रारम्भिक सफलता से प्रोत्साहित होकर उनका गणित के विषय में आत्म-विश्वास जाग उठा।

यद्यपि रामानुजम् की इस विशेष प्रतिभा से लोग परिचित होने लगे थे किन्तु वे अपनी सहज उपेक्षा वृत्ति के कारण कोई ध्यान न देते। यहाँ तक कि उनके माता पिता ने भी पुत्र के भविष्य का कोई विचार किये बिना ही उन्नीस वर्ष की अवस्था में उनका विवाह कर दिया।

इस नये उत्तरदायित्व के आने से श्री रामानुजम् की सारी साधना भंग हो गई और वे पत्नी के भरण पोषण की चिन्ता करने लगे। घर की परिस्थिति ऐसी न थी कि रामानुजम् के साथ उनकी पत्नी का भी भरण पोषण किया जा सकता। फिर रामानुजम् की गैरत ही यह कब गवारा करती कि वे अपनी पत्नी के भरण-पोषण का भार अपने कम आय वाले पिता के सिर पर डालकर अपने गणित-सिद्धान्तों की खोज में लगे रहते। अब जब उन्होंने गृहस्थ जीवन अपना ही लिया था तो उसके संवाहन-कर्तव्य से विमुख किस प्रकार हो सकते थे। निदान इन्टर से पढ़ाई छोड़कर वे उपार्जन की चिन्ता में घूमने लगे। कुछ ही प्रयत्न से उन्हें मद्रास में चालीस रुपये मासिक वेतन पर क्लर्की मिल गई।

यद्यपि इस प्रकार पिता के आर्थिक सहायक बनने के साथ-साथ श्री रामानुजम् एक सद्गृहस्थ भी बन गये तथापि उन्हें हार्दिक सन्तोष न हो सका। उनके मन में गणितज्ञता की जो लगन लग चुकी थी वह उनकी आत्मा को चैन न लेने देती थी। अन्दर से बार-बार यही आवाज आती थी कि क्या मैं इसी प्रकार कुछ पैसों के लिये दिन भर कलम रगड़ने के लिये पैदा हुआ हूँ? क्या मानव-जीवन का इतना ही उद्देश्य है कि वह कुछ कमाये और खाता-पीता हुआ इस संसार से चल बसे। इन्हीं भावनाओं से भरकर उनका हृदय भारी हो जाता और वे अपने गणित सिद्धान्तों की खोज के लिये तड़प उठते।

बहुत दिन मानसिक संघर्ष करने के बाद जब उनकी लगन ने उन्हें चैन न लेने दिया तो वे अपने कार्यालय के कार्य से जरा भी अवकाश मिलते ही अपनी खोज में लगने लगे। इस प्रकार कई महीने अधिकारियों की दृष्टि बचाकर काम करते रहने के बाद एक दिन उनके गणित सम्बन्धी कागज एक अंग्रेज अधिकारी के हाथ लग गये। वे महोदय स्वयं भी एक अच्छे गणितज्ञ थे। अतएव उन्होंने जब रामानुजम् के उन कागजों को पढ़ा तब वे यह देखकर दंग रह गये कि जिन प्रश्नों तथा हलों का अंकन उन कागजों में किया गया था वे गणित के क्षेत्र में एक नवीन खोज थी।

गुणग्राही उक्त अंग्रेज अधिकारी रामानुजम् से कुछ कहने के बजाय यह सोचने लगा कि कितने खेद का विषय है कि एक ऐसा व्यक्तित्ववान युवक अपने समाज की उपेक्षा का शिकार बना हुआ जीवन खराब कर रहा है जबकि इसकी प्रतिभा मानव-समाज के लिये बहुत ही उपयोगी बन सकती है।

उक्त अंग्रेज अधिकारी ने गम्भीरता से विचार कर तथा अच्छी प्रकार से समझबूझ कर रामानुजम् के वे सारे कागज इंग्लैंड के विश्व-विख्यात गणितज्ञ प्रो. जी. एच. हार्डी के पास भेज दिये। प्रो. हार्डी ने रामानुजम् के कागजों का अध्ययन मनन करके यही निष्कर्ष निकाला कि यदि यह युवक भारत में मरने-खपने के बजाय हम लोगों के बीच इंग्लैण्ड में आ जाये तो बहुत कुछ काम कर सकता है। निदान उन्होंने मद्रास पोर्ट ट्रस्ट अधिकारी को लिख दिया कि उस भारतीय युवक रामानुजम् को किसी प्रकार इंग्लैण्ड भेज दें।

रामानुजम् से होता हुआ उनके इंग्लैंड भेजे जाने का प्रस्ताव जब उनके माता-पिता तथा परिजनों के पास पहुँचा तब तो वे आपे से बाहर हो गये और विदेश जाना धर्म विरुद्ध बताकर घोर विरोध करने लगे। किन्तु रामानुजम् की दृढ़ इच्छा तथा अंग्रेज अधिकारियों के समझाने पर रूढ़िवादी परिजन इस शर्त पर रामानुजम् को इंग्लैंड जाने की अनुमति देने के लिये सहमत हो गये कि वहाँ जाकर भी शालिग्राम की पूजा करेगा, धोती, कुर्ता पहनेगा और अपने हाथ से ब्राह्मणोचित भोजन बनाकर खायेगा। अपनी गर्ज के लिये युवक रामानुजम् सभी शर्तें निभाने की प्रतिज्ञा करके सरकारी छात्रवृत्ति पर इंग्लैण्ड चले गये।

इंग्लैण्ड पहुँचकर रामानुजम् संसार को भूलकर प्रो. वाटसन, हार्डी तथा मोर्डल के संपर्क में रहकर गणित के नये नये सिद्धान्तों की खोज से संसार को लाभान्वित करने लगे। उनकी आश्चर्य जनक खोजों से प्रभावित होकर उक्त विद्वान् गणितज्ञों ने उनकी इंग्लैण्ड की रॉयल सोसाइटी के फिलोशिप के लिये सिफारिश की जिसके फलस्वरूप वे फेलो आँफ दी रॉयल सोसाइटी होकर एक स्पृहरणीय सम्मान के भागीदार बने। विद्या तथा योग्यता की पूजा क्या देश और क्या विदेश सभी जगह सम्मान रूप से होती है।

किन्तु खेद का विषय है कि लगभग तीन वर्ष रुढ़िवादियों की शर्त पूरी करने और इंग्लैण्ड की उस घोर सरदी में नंगे होकर अपने हाथ से भोजन बनाने, धोती, कुरता पहनने तथा ब्रह्ममुहूर्त में नहा धोकर बिना वस्त्र पहने घन्टों पूजा पर बैठने से उनका स्वास्थ्य चूर-चूर हो गया और तैंतीस वर्ष की अल्प आयु में ही वह चमत्कारी प्रतिभा सदा के लिये बुझ गई।

इस होनहार प्रतिभा का जन्म मद्रास प्रान्त में 1887 के आसपास तथा तिरोधान इंग्लैण्ड में ही 1920 के लगभग हुआ।


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