ऐसे मनुष्यों का सर्वथा अभाव नहीं है कि जिन्होंने अपनी पहुँच, पुरुषार्थ, प्रयत्न एवं प्रारब्ध तक साँसारिक सुख जैसे स्वास्थ्य सुख; सन्तान-सुख; सामाजिक एवं पारिवारिक सुख, न प्राप्त कर लिया हो। अनेकों ऐसे व्यक्ति मिलेंगे जिन्हें कोई विशेष दुःख न हो और किसी हद तक उन्हें सुखी ही कहा जा सकता है।
किन्तु ऐसे सुखियों से भी यदि सच्चाई के साथ बतलाने का अनुरोध किया जाये तो निश्चय ही वे यही कहेंगे कि उन्हें कोई दुःख तो अवश्य नहीं है, फिर भी इस सुख में एक अभाव, एक अतृप्ति खटकती रहती है। कुछ ऐसा अनुभव होता रहता है जैसे हमें वह सुख, वह तृप्ति नहीं मिल रही है जो मिलनी चाहिये और मिल भी सकती है। इस अभाव, इस खटक और इस अतृप्ति का कारण खोजने में पर भी नहीं मिलता है।
निःसन्देह इस प्रकार की अतृप्ति बड़े से बड़े सुखी व्यक्ति में रहा करती है। यह अभाव, यह अतृप्ति उसकी आत्मा की माँग होती है जो पूरी नहीं की जाती है। संसार के सारे सुख इन्द्रिय-जन्य शारीरिक ही होते हैं। शरीर का अंश न होने से आत्मा की तृप्ति उस से नहीं होती। आत्मा की यही अतृप्ति सुखी व्यक्ति को भी अभाव बनकर खटकती रहती है।
जहाँ शरीर का सुख अर्थ है वहाँ आत्मा का सुख परमार्थ है। जब तक परमार्थ द्वारा आत्मा को संतुष्ट न किया जायेगा, उसकी माँग पूरी न की जायेगी तब तक सर्व सुखों के बीच भी मनुष्य को एक अभाव एक अतृप्ति व्यग्र करती ही रहेगी। शरीर अथवा मन को, संतुष्ट कर लेना भर ही वास्तव में सुख नहीं है। वास्तविक सुख है—आत्मा का संतुष्ट करना, उसे प्रसन्न करना।
साँसारिक भोग भोगने और मनभाई परिस्थितियाँ पा लेने से शारीरिक सुख मिलता है, किन्तु आत्मा सुखी होती है—परोपकार एवं पर सेवा रूपी परमार्थ कार्यों से। अतएव विवेकशील व्यक्ति सच्चा सुख पाने के लिये स्वार्थ सुख की अपेक्षा परमार्थ सुख को अधिक महत्व देते हैं। वे परमार्थ सुख के लिये स्वार्थ सुख का भी त्याग कर देते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि शारीरिक सुख छाया है और आत्मिक सुख सत्य है, यथार्थ है। जिसके प्रति हमारी इतनी जिज्ञासा है, इतना आकर्षण है उसके बिम्ब को क्यों प्राप्त किया जाये, क्यों न चन्द्रमा की ही उपलब्धि की जाये।
परोपकार अथवा पर-सेवा ही परमार्थ का सच्चा एवं सक्रिय स्वरूप है। योग, ध्यान, साधना अथवा आराधना की अपेक्षा आत्मिक सुख के मार्ग परमार्थ की ओर बढ़ने के लिये—’सेवा’ सबसे सरल साधन एवं उपाय है।
सेवा संसार में सबसे बड़ा परमार्थ है। इसमें मानव जीवन की महती मान्यताओं का मूल्याँकन रहता है। सेवा द्वारा किसी दूसरे को सुखी बनाने में जो आत्मतोष होता है, उसकी तुलना में शारीरिक सुख तुच्छ एवं नगण्य है। दूरदर्शी व्यक्ति जानते हैं कि परोपकार से मनुष्य का न केवल लोक ही सुधरता है अपितु परलोक भी बनता है। संसार यात्रा के समय जो जिस मात्रा में अपनी आत्मा को प्रसन्न एवं उन्नत बना लेगा, महाभियान के समय वह उतने ही उच्च लोकों का अधिकारी बनेगा। इस प्रकार की अहैतुक प्रसन्नता आत्मा को यदि मिल सकती है तो केवल परोपकार रूपी परमार्थ से। जो परोपकार अथवा परसेवा का कोई व्यावहारिक सत्कर्म न करके आत्मतोष के लिये तप अथवा योग साधन मात्र करते रहते हैं, वे भी एक प्रकार के स्वार्थी ही होते हैं। भले ही उनका वह स्वार्थ तुच्छ, हेय अथवा निकृष्ट न कहा जाये। हाँ, यह आध्यात्मिक स्वार्थ तब अवश्य ही परमार्थ बन सकता है जब यह पर-सेवा अथवा परोपकार के लिये ही किया जाये। यदि तप द्वारा प्राप्त होने वाले आत्म संयम, आत्मशक्ति अथवा आत्मरोध का उद्देश्य यह हो कि हम इस प्रकार एक सच्चे सेवक की पवित्रता प्राप्त करके जन-सेवा, लोक सेवा अथवा परोपकार कार्य में ही संलग्न होंगे तब तो वह तप श्लाघ्य होगा अन्यथा वह भी जायेगा स्वार्थ की परिधि में ही।
आध्यात्मिक उद्योग अथवा परमार्थ साधना का प्रतिफल क्या है —आत्म-बोध। आत्म-बोध, आत्मतोष, आत्म प्रसाद अथवा आत्म सुख। सेवा के सत्कर्म करने पर इस सुफल की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। आज ही कोई छोटा-सा सेवा कार्य की याद कर देखिये—आप पायेंगे कि उक्त छोटे सेवा कार्य में जितनी आत्म प्रसन्नता, आत्म संतोष प्राप्त हुआ है उतना सप्ताह भर की पूजा उपासना अथवा तपश्चर्या में भी नहीं प्राप्त हुआ। यह यथार्थ तथा व्यक्तिगत अनुभव कोई भी बड़ा-छोटा व्यक्ति स्वयं ही करके निर्णय कर सकता है कि परोपकार तथा सेवा सत्कार्य सद्य फल-दाता होते हैं। तब ऐसे सद्य-फल-दाता सेवा तप को छोड़कर मनः-मार्गीय उस तपश्चर्या में समय क्यों दिया जाये, जिसका कि प्रतिफल निश्चित नहीं होता।
स्थैर्य तप के नियम नितान्त वैज्ञानिक एवं विलक्षण हैं। यह तलवार की धार से भी अधिक तीक्ष्ण तथा मृणाल-तन्तु से भी अधिक कोमल होते हैं। एक तो इनका सम्पूर्ण निर्वाह ही कठिन है दूसरे यदि इनका निर्वाह भी किये जाने का प्रयत्न किया जाये तो यह तनिक सी मानसिक छलन से टूट जाते हैं। एक लम्बे समय की साधना क्षण मात्र में भंग हो जाती है। वर्षों के साधे हुये संकल्प चारित्रिक विकल्प से नष्ट हो जाते हैं और तब बहुधा साधक को पुनः ‘अ’ ‘आ’ से यात्रा प्रारम्भ करनी पड़ती है। इस प्रकार के संकल्प-विकल्पों का क्रम न जाने कब तक चलता रहता है। यह मनः मार्गीय अध्यात्म साधना जन्म जन्मान्तरों तक की अवधि ले सकती है। सेवा मार्ग से जिस मनःशाँति के लिये मनुष्य को एक जीवन ही काफी है उसके लिये हठ पूर्वक जन्म जन्मान्तरों का मूल्य चुकाना महंगा ही कहा जायेगा। वैसे जो सामर्थ्यवान हैं वे चुकाते भी हैं और एक लम्बी यात्रा का श्रम करके अपना लक्ष्य प्राप्त भी कर लेते हैं। किन्तु जनसामान्य के लिये यह व्यवहार-सम्मत कहा जाना उपयुक्त नहीं जान पड़ता। मन बड़ा दुराग्रही, चंचल तथा बलवान है। यह बिना रज्जु-संयोजन अथवा योजना के यों ही शून्य में पकड़ने से वश में नहीं आता। इसको वश में लाने, अनुद्धत राहगीर बनाने के लिये परोपकार पथ पर जोतना ही होगा—इसे सत्कर्मों में नियोजित करना ही होगा—इसे सेवा की कठोर लगाम देनी ही होगी। सेवा के सत्कर्म में नियोजित मन को इधर उधर भागने का अवकाश ही नहीं मिलता। सेवा कार्य के साथ सम्बंधित दया, करुणा, सहानुभूति तथा आत्मीयता आदि इतने शीतल गुण होते हैं कि इनके स्पर्श सुख से मन स्वयं ही एकाग्र होने लगता है और इस प्रकार धीरे-धीरे शिव संकल्पी स्वाधीन मन स्वतः ही निर्मल होकर आत्मा को एक स्थायी सुख, एक अक्षय प्रसन्नता प्रदान करता है। यही है परमार्थ और यही है मनुष्य का साध्य, जो कि परोपकार तथा सेवा भाव से सहज ही पाया जा सकता है।
इसके अतिरिक्त स्वयं भी ठीक-ठीक नैतिक नागरिक तथा आचरणवान बनना, अपनी विकृतियों, विकार तथा असभ्यता को दूर करके सभ्य, शिष्ट तथा अनुशासित बनना भी एक परोपकार ही है। क्योंकि ऐसा बनने से आप समाज में एक सभ्य नागरिक बनेंगे, अपने संतुलित व्यवहार से दूसरों को शीतल एवं प्रसन्न करेंगे और अपने उदाहरण से दूसरों को सभ्य, शिष्ट तथा सदाचारी बनने की प्रेरणा देंगे। अपने अधिकार तथा कर्तव्यों को ठीक-ठीक समझना और उनका सुधारना सामाजिक ही नहीं सार्वदेशिक सत्कर्म है। इस प्रकार के अन्य न जाने कितने छोटे-छोटे सेवा कार्य हो सकते हैं जिनको सामान्य से सामान्यजन भी प्रतिपादित करके परमार्थ लाभ कर सकता है। दिन भर की व्यस्त जिन्दगी में किया हुआ एक छोटा-सा सेवा कार्य उस दिन को स्वर्गीय सुख-संतोष से भर देगा। उस दिन की कोई भी निराशा, असफलता अथवा विषाद जैसी तीव्र स्थिति आपको व्यग्र अथवा त्रस्त नहीं रख सकती। इस प्रकार आप बिना किसी विशेष श्रम के प्रतिदिन एक छोटा-सा सेवा कार्य करके अपनी पूरी जिन्दगी को हर्ष, उल्लास, सुख और संतोष को आगार बना सकते हैं जो कि आपको एक स्थायी आत्मिक सुख देने में सर्वथा समर्थ होगी। जब साधारण से साधारण जन इस प्रकार निःस्वार्थ सेवा से परमार्थ लाभ कर सकता है, तब धनी मानी तथा साधन सम्पन्न व्यक्ति तो न जाने क्या क्या कर सकते हैं। और यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रत्येक कार्य को राष्ट्र, समाज, संसार अथवा ईश्वर का सेवा कार्य समझकर करने लगे तब तो यह संसार ही स्वर्ग बन जाये। न शारीरिक सुख का अभाव रहे और न आत्मिक सुख का अभाव खटके। मनुष्य सम्पूर्ण रूप से सुखी तथा संतुष्ट हो जाये।
सेवा कार्यों में एक बात का विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता यह है कि जो भी सेवा की जाये वह सत्पात्र की ही की जाये। अपात्र की सेवा पुण्य के स्थान पर पाप वाहिका ही सिद्ध होगी। न जाने कितने वंचक, अपंग, अन्ध आवश्यकता ग्रस्त समाज में भोले, भले और परोपकारी व्यक्तियों की दया, करुणा तथा सहानुभूति ठगने के साथ अपना आर्थिक उल्लू भी सीधा करते घूमते हैं। ऐसे वंचकों की सेवा अथवा सहायता करने से एक तो बेचारे अधिकारी पात्र वंचित रह जायेंगे दूसरे यह ठग और वंचक समाज में बिना श्रम के जीते हुये विकृतियाँ उत्पन्न करेंगे। सस्ती अथवा अनियंत्रित सहायता सहानुभूति समाज में वंचकों को बढ़ा देती है और उनकी संख्या में वृद्धि करती है। इसलिए इस बात का भी विशेष ध्यान रखना है कि हमारी व्यावहारिक, भावनात्मक, मौन अथवा मुखर सेवा का दुरुपयोग न हो।
इस प्रकार का विवेक विचार रखते हुये आज से ही सेवा कार्य में लगकर लगे रहिये, आपका आत्मिक अभाव दूर होगा, आपको सच्ची तथा स्थायी सुख-शाँति प्राप्त होगी।