श्रमिक जीवन को अतिशय प्यार करने वाला विद्वान-ऐरिक हौफर

July 1966

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ओजस्वी वक्ता, तेजस्वी लेखक और मौलिक विचारक श्री ऐरिक हौफर ने समाजवादी विचारधारा पर अनेक प्रामाणिक पुस्तकें लिखी हैं। उनकी प्रसिद्ध एवं प्रकाशित पुस्तकों में ‘दि टू बिलीवर’, ‘दि पैशनेट स्टेट आफ माइन्ड’ और ‘दि और्डियल आफ चेन्ज’ अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं।

उनके आलोचकों का कथन है कि ऐरिक हौफर मुहावरेदार भाषा के प्रयोक्ता, नैतिकतावादी और मानव-समाज की स्थिति के दृष्टा हैं। उनके सिद्धान्त व्यावहारिक और परिभाषायें सुबोध हैं। श्री ऐरिक की रचनाओं ने अमेरिका के श्रमिक वर्ग तथा समाज को एक परिवर्तनकारी विचार-धारा देकर मालिक और मजदूरों को परस्पर समन्वय स्थापित करने के उपायों पर सोचने को विवश किया जिसका फल अमेरिका में मालिक मजदूरों के बीच एक समझदारी आयी जो राष्ट्रीय अर्थ-तन्त्र को सुदृढ़ बना सकने में काफी हद तक सहायक सिद्ध हुई है।

श्री ऐरिक एक यथार्थवादी समाज-चिन्तक हैं। मजदूरों और मालिकों की प्रवृत्तियों को उन जैसे समझने वाले चिन्तक विरले ही हुये हैं। इसका विशेष कारण यह है कि वे स्वयं भी एक मजदूर हैं। सो भी कलम के मजदूर नहीं, ठीक-ठीक शारीरिक श्रमिक और इस समय भी वे प्रशान्त तट पर जहाजी घाट मजदूर की हैसियत से काम करते हैं।

श्री ऐरिक हौफर एक प्रसिद्ध एवं प्रामाणिक लेखक तथा प्रवक्ता हैं। यदि वे चाहें तो अपनी रचनाओं एवं वक्तृताओं के बल पर शाही जीवन व्यतीत कर सकते हैं। प्रकाशक उनके पीछे उनके लिपिबद्ध विचार लेने के लिये पैसों की थैली लिये लगे रहते हैं। नित्यप्रति कालेजों से समाजवाद पर लेक्चर देने के लिये उनके पास निमन्त्रण आते रहते हैं सो भी अच्छे खासे पारिश्रमिक के साथ। किन्तु त्याग की मूर्ति और परिश्रम की प्रतिमा हौफर उसका कोई लाभ उठाने को तैयार नहीं होते। वे पुस्तकें लिखते हैं पर पैसे के लिये नहीं, कालेजों में वक्तव्य देते हैं पर पारिश्रमिक लिये नहीं और जो कुछ उन्हें लेने के लिये विवश भी होना पड़ता है उनको वे मजदूरों के हित में ही खर्च कर देते हैं। अमेरिका में श्री ऐरिक हौफर ही एक ऐसे लोकप्रिय लेखक हैं जिनके पास न सूट हैं और न टाई और न वे कभी किसी होटल रेस्टोरेन्ट में ऊँची-ऊँची बातें करते पाये जाते हैं। श्री हौफर के मित्रों का कहना है कि यदि वे एक दो वर्ष के लिए अपनी त्यागवृत्ति का परित्याग करदें तो उनके पास इतना पैसा हो सकता है कि वे एक आलीशान कोठी में आरामदेह जिन्दगी बिता सकते हैं।

किन्तु हौफर का कहना है—कि मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि ज्यादा धन पा जाने से मेरी वर्तमान दशा बदल जायेगी और मैं मेहनत-मजदूरी से विरत होकर आराम की जिन्दगी बिताने लगूँ या एक राजा की तरह जिन्दगी अपना कर अपने साथी मजदूरों के बीच आना जाना, उठना-बैठना और रहना-सहना छोड़ सकूँ। मुझे तो विश्वास नहीं कि मैं धनवान बनकर अपनी परिश्रम एवं सन्तोषपूर्ण निर्धनता को छोड़ सकने में सफल हो जाऊँगा। जिस निर्धनता ने मुझे परिश्रमी बनाया, मेहनत मजदूरी करने वालों के लिये दिल में एक दर्द पैदा किया और एक विचारक बनाकर उनकी समस्याओं पर सोचने व लिखने की प्रवृत्ति दी है और जिसकी कृतज्ञता से मेरा रोम-रोम ऋणी है, धन मुझे इस निर्धनता से विमुख कर सकेगा ऐसा सोच सकना मेरे वश की बात नहीं है। मुझे सदैव यह बात आवश्यक प्रतीत होती रहती है कि मैं उतने से अधिक कुछ भी न जटाओं जिसकी गठरी अपनी पीठ पर न ढो सकूँ और एक दिन थककर परिश्रम से ही हाथ धो बैठूँ।

इस समय वे सन-फ्रान्सिस्को की खाड़ी के सामने एक मकान के छोटे से हिस्से में अपने छोटे से परिवार के साथ रह रहे हैं। वह परिवार भी उनके अपने बाल-बच्चे नहीं हैं बल्कि एक तरुण तथा होनहार मजदूर को अपना पुत्र मानकर और उसके आठ वर्षीय पुत्र के दादा बनकर पोते का निर्माण कर रहे हैं। उनका आठ वर्षीय मजदूर पोता हर मंगलवार को स्कूल की पढ़ाई खत्म करके दादा के साथ समुद्र तट, उद्यान, पुस्तकालय अथवा संग्रहालय में जाता है जहाँ वे दोनों बहुत कुछ सीखते और एक दूसरे को बहुत कुछ सिखाते हैं। श्री हौफर अपने इस परिवार के साथ काफी सुखी तथा संतुष्ट हैं।

अमेरिका के इस मजदूर विचारक का पूर्व जीवन उसके आज के जीवन से भी कठिन एवं असुविधापूर्ण रहा है। उसके पिता अलमारी बनाने का काम करने वाले एक जर्मन प्रवासी थे। घर की हालत कुछ अच्छी न थी। अतएव ऐरिक हौफर को स्कूल जाने का अवसर न मिल सका। उसने घर पर ही जैसे तैसे अंग्रेजी व जर्मन भाषा सीखना प्रारम्भ किया। किन्तु निर्मम नियति को बालक का यह उद्योग सहन न हुआ और सात वर्ष की आयु में उसकी आँखों की रोशनी छीन ली।

किन्तु बालक हौफर इससे रंचमात्र भी विचलित न हुआ। अब वह पढ़े-लिखे लोगों के पास किताबें लेकर जाने और उनसे पढ़वाकर सुनने लगा। उसकी विद्या विषयक यह लगन देखकर अनेक भद्र पुरुषों ने उसकी आँखों का इलाज करवाने का प्रबन्ध कर दिया जिससे उसे कुछ-कुछ दृष्टि लाभ हुआ। फिर भी पन्द्रह वर्ष की आयु तक वह ठीक से न देख पाता था।

इसी बीच उसके पिता की मृत्यु हो गई और वह गली-गली घूमने वाला एक अनाथ बालक बन गया। अनेक लोगों ने उस पर दया करके कुछ देना चाहा किन्तु उसके स्वाभिमान ने किसी का दिया स्वीकार करने से स्पष्ट इनकार कर दिया। वह दया दिखलाने वाले से यही कहा करता था कि आप मुझे कुछ देने के बजाय कोई काम दें यही अच्छा होगा। बालक हौफर इसी प्रकार दस साल तक मेहनत-मजदूरी करता और पेट पालता घूमता रहा।

इस अनाथावस्था के भ्रमण में उसे न जाने कितनी रातों भूखों सोना पड़ा और न जाने कितनी सर्दियां ठिठुर कर काटनी पड़ीं। नियति द्वारा भिक्षुक की स्थिति में पहुँचाये गये ऐरिक हौफर ने न तो कभी भीख माँगी, न किसी का दान स्वीकार किया और न हिम्मत हारी। यदि वह कभी किसी से कुछ माँगता था तो केवल पुस्तकें, जिन्हें वह किसी दुकान अथवा सड़क की रोशनी में बैठकर धीरे-धीरे पढ़ता था। अध्ययन की तन्मयता में उसने न जाने कितने दिन-रात बिना खाये-पिये बिता दिये।

इस प्रकार बहुत कुछ कष्ट उठाने और काम खोजने के बाद उसे एक सोने की खान में मजदूरी मिल गई जहाँ उसने पराकाष्ठा तक मेहनत और ईमानदारी से काम किया। अनेक वर्षों तक सोने की खान में काम करने के बाद वह प्रशाँत तट पर जहाजी घाट मजदूरों में काम करने लगे और तब से अब तक वहीं काम करते हैं।

श्री ऐरिक हौफर आज भी अपने साथियों को अपने संकट काल के अनुभव सुनाते और इस पर सन्तोष प्रकट करते हैं कि नियति ने उन्हें भिखारी बना देने में कोई कसर उठा न रखी, किन्तु उनके स्वाभिमान और परिश्रमशीलता ने उन्हें कभी भी पस्त हिम्मत न होने दिया। उन्होंने भविष्य का आशा-प्रदीप एक क्षण के लिये भी कभी बुझने न दिया।

उन्होंने बताया “जिस समय 1920 में मेरे पिता की मृत्यु हुई उस समय मेरी आयु ठीक अठारह वर्ष की थी। पिता की मृत्यु के बाद जब मैं संसार में अकेला रह गया तो इस कोलाहल से भरी दुनिया को देखकर जी काँप उठा। किन्तु तुरन्त ही मैंने अपने को धिक्कारा कि “इस प्रकार हिम्मत हारने का क्या काम? भगवान ने हाथ-पैर दिये हैं और संसार में काम की कमी नहीं तब डरने की क्या जरूरत? सामान लादकर घर से निकल पड़ा। हर छोटा बड़ा काम करने के लिये तैयार हो जा। तुझे काम मिलेगा, रोटी मिलेगी और आश्रय मिलेगा।”

अपनी आत्मा की प्रेरक आवाज सुनकर मैं घर से टोकरी में अपनी सम्पत्ति पुस्तकों को भरकर निकल पड़ा और कैलीफोर्निया पहुँचा। कैलीफोर्निया में मेरे सामने काम से अधिक निवास की समस्या थी। निवास की समस्या इसलिये नहीं थी कि मैं कोई अच्छा मकान चाहता था। समस्या यह थी कि मेरा मकान किसी ऐसी जगह हो जहाँ पर समीप ही एक अच्छा पुस्तकालय भी हो। क्योंकि घर से एक अच्छे शहर में आकर केवल रोटी ही कमाना नहीं चाहता था ज्ञानार्जन भी करना चाहता था। मैं कई दिन तक एक ऐसे कमरे की तलाश में भटकता रहा और अन्त में अपने प्रयत्न में सफल भी हो गया। किन्तु अब एक दूसरी समस्या फिर खड़ी हो गई। पास की नगण्य पूँजी खत्म हो चुकी थी आज मेरे पास एक वक्त के भोजन के पैसे भी नहीं बचे थे।

भूख से व्याकुल होकर मैं एक होटल के सामने जाकर खड़ा हो गया। होटल के मालिक ने समझा कि मैं कुछ पाने की आशा में खड़ा हूँ। उसने पूछा—’क्या भूखा है? रोटी खाना चाहता है?’ मैंने बड़ी शिष्टता से उत्तर दिया—”हाँ, श्रीमान जी भूखा भी हूँ और रोटी भी खाना चाहता हूँ, किन्तु यों ही नहीं, कुछ काम करके। मेरे पास पैसे नहीं हैं। आप मुझसे कुछ काम करा लीजिये और उसके बदले में रोटी खिला दीजिये” होटल का मालिक एक भद्र व्यक्ति था। उसने मेरी दीन दशा में छिपे हुये स्वाभिमान को समझ लिया और उसकी रक्षा भी की।

उस समय उसके पास तश्तरियाँ धोने का ही काम था। मैंने सहर्ष स्वीकार किया और काम करना स्वीकार कर दिया। मैंने इतना मन लगाकर तश्तरियाँ धोने का काम किया कि होटल का मालिक खुश हो गया और मुझे स्थायी नौकर रख लिया। कुछ समय बाद हम दो नौकरों में से एक को निकालने की आवश्यकता आ पड़ी। मालिक मुझसे खुश था। इसलिये उसने मेरे दूसरे साथी को नोटिस दे दिया। वह मुझसे पुराना भी था और निर्दोष भी। मैं उसका अधिकार छीनने को राजी न हुआ और खुद काम छोड़ दिया। मेरा साथी मेरे इस न्यायपूर्ण त्याग से बहुत खुश हुआ और काम खोजने में बड़ी मदद की। अपने उस होटल के साथी की मदद से ही मैं यहाँ आप लोगों के बीच जहाजी घाट पर आज भी काम करता हुआ प्रसन्न एवं संतुष्ट हूँ।”

इन कठिन परिस्थितियों से गुजर कर अपनी योग्यता, स्वाभिमान एवं जीवन की रक्षा करने वाले श्री ऐरिक हौफर इस समय अमेरिका के लब्ध प्रतिष्ठित लेखकों तथा मजदूर नेताओं में हैं। उनके लिये आज कॉलेज से लेकर सरकार तक में स्थान मिलने की सम्भावनायें बनी हुई हैं किन्तु वे अपने मजदूर जीवन में ही प्रसन्न रहकर मजदूरों की समस्याओं पर लिखते, उनका सुधार करते और आवश्यकता पड़ने पर पथ प्रदर्शन करते हैं।

उन्हें इस बात पर गर्व है कि वे एक मजदूर हैं। “मेरी दृष्टि में श्रम, सच्चरित्रता और मानवीय योग्यता का प्रतीक है। मेरी इच्छा है कि अन्तिम दिन तक मैं जहाजी घाट का मजदूर बना रहूँ और शायद मेरी यह इच्छा पूरी भी होगी।”


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