तीन सौ भाषाओं के जानकार—डा. हेराल्ड सुज

July 1966

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जर्मनी के महाविद्वान डा. हेराल्ड सुज संसार के आश्चर्यजनक विद्वानों में से हैं। वे आश्चर्यजनक इन मानों में नहीं हैं कि उन्होंने कोई आश्चर्य चकित कर देने वाला चमत्कार दिखाया हो। न तो वे कोई चमत्कारी व्यक्ति हैं और न कोई सिद्ध योगी। हाँ, एक अबोध अध्यवसायी एवं अध्ययनशील व्यक्ति अवश्य हैं और अपनी परिश्रम पूर्ण अध्यवसायता से जो काम कर दिखाया है वह निःसन्देह एक चमत्कार जैसा ही है। वे बर्लिन के फ्राँकफर्ट मुहल्ले की एक गली में बने अपने मकान में किसी समय भी मिल सकते हैं, किन्तु अपनी पंद्रह हजार विविध भाषाओं की पुस्तकों की लायब्रेरी के बीच पढ़ते अथवा लिखते हुये।

डा. सुज ने संसार की लगभग तीन सौ भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया है और अभी भी लगभग दो सौ भाषाओं का परिचय प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं। इस समय उनकी आयु लगभग सत्तर वर्ष की है। वे शरीर से पूर्ण स्वस्थ हैं तथा काम में पूरी तरह तत्पर रहते हैं।

उन्होंने इतनी बड़ी संख्या में विभिन्न भाषायें सीखने का रहस्य बतलाते हुये विश्वासपूर्वक कहा कि मनुष्य में शक्ति का अनन्त भंडार भरा हुआ है और यदि किसी की किसी कार्य में सच्ची लगन है और वह उसे करने के लिये सच्चे मन और श्रम से काम करता है तो कोई कारण नहीं कि वह उसमें पूर्ण रूपेण कृतकृत्य न हो सके।

मैंने सदैव ही मानव की अमोघ शक्तियों और उनका उपयोग करने में विश्वास रक्खा है। यह मेरे उसी विश्वास का पुरस्कार है कि मैं संसार की विभिन्न तीन सौ भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर सकता हूँ।

डा. सुज ने अपने जीवन में तीन मूल सिद्धान्त बनाये, जिन्हें उन्होंने अध्ययनशाला में लिखकर टाँग रक्खा है और शुरू से अब तक उन्हीं सिद्धान्तों के अनुसार काम करते आये हैं। उनके वे तीन सिद्धान्त हैं—(1)अध्ययन, (2) ज्ञान की नित नूतन जिज्ञासा (3) अनवरत लगन तथा श्रम। डा. सुज अपने इन्हीं सिद्धान्तों का ईमानदारी से पालन करते हुये आज इस विचार सफलता के स्वर्ण शिखर पर पहुँच सके हैं।

डा. सुज के पूर्वजों में से अनेक, अनेक भाषाओं के ज्ञाता रहे हैं। वह भाषा विज्ञ अपने की मूल प्रवृत्ति उन्होंने अपने पूर्वजों से ही पाई थी। अन्तर केवल इतना रहा है कि उनके पूर्वज केवल व्यक्तिगत लाभ एवं मनोरंजन के लिये अनेक भाषायें सीखते रहे हैं जबकि डा. सुज ने इस उपलब्धि में मानव समाज का हित सन्निहित कर रक्खा है।

डा. सुज ने कोई भाषा व्यवसाय अथवा कीर्ति उपार्जन के लिये नहीं सीखी। बल्कि उनको निःस्वार्थ भाव से मानव-ज्ञान गरिमा को बढ़ाने के लिये ही सीखा है। डा. सुज ने अपने अध्ययन काल में ही लैटिन, ग्रीक, हिब्रू आदि अनेक प्राचीन भाषायें सीख ली थीं। इसके साथ फ्रेंच तथा अंग्रेजी भाषा उन्होंने खेल कूद में अपने विदेशी साथियों से ग्रहण की।

इन पाँच सात विभिन्न भाषाओं के साथ विश्व-विद्यालय की शिक्षा समाप्त करने के बाद उन्होंने अनेक वर्षों तक गणित, दर्शन एवं प्रकृत-विज्ञान के विषयों में अध्यापन कार्य किया। गणित, दर्शन तथा प्रकृत-विज्ञान जैसे जटिल विषयों का अध्ययन-अध्यापन करते हुये भी डा. सुज ने विभिन्न भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करने की अपनी लगन को शिथिल न होने दिया। वे अध्यापन के व्यस्त कार्यक्रम में से थोड़ा बहुत समय निकालकर भाषाओं पर व्यय करते रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि एक लम्बी अवधि के बाद पेंशन पाने तक उनका यह भाषा-प्रेम अक्षुण्ण बना रहा।

सेवा से निवृत्त होने के बाद उनके अनेक मित्र उनके पास यह मालूम करने आये कि डा. सुज अपना शेष जीवन किस प्रकार व्यतीत करेंगे? उनके एक मित्र ने उनकी श्रमशीलता की प्रशंसा करते हुये कहा कि आपने अपने सेवा काल में जी तोड़ परिश्रम किया है, अब तो शायद आप अपने शेष जीवन में जी भर विश्राम ही करेंगे ? डा. सुज ने हँसते हुये उत्तर दिया-”मेरे भले मित्र! परिश्रम करने का समय तो अब आया था। अध्यापन काल का श्रम तो पैसे की सेवा थी जो कि मजबूरन मुझे करनी पड़ी है। अब मैं अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व से मुक्त हो चुका हूँ। वास्तविक सेवा तो अब कर सकूँगा। अपने इस अवकाश काल में मैं जो कुछ कर सकूँगा उसे ही वास्तविक करना समझूँगा और उसे ही अपने जीवन की सच्ची सम्पत्ति मानकर संसार से विदा होते समय संतोष कर सकूँगा।”

डा. सुज अपने उद्देश्य में जुट ही नहीं गये बल्कि डूबकर खो गये हैं जिसके फलस्वरूप अब तक उन्होंने चीनी, अरबी, जापानी, संस्कृत, इटैलियन, तमिल तेलगू, कन्नड़, फारसी आदि प्रगतिशील भाषाओं के अतिरिक्त उत्तर, मध्य एवं दक्षिण अमेरिका के आदिम वासियों, पूर्वीय देशों की विभिन्न प्राचीन भाषाओं, नीग्रो एवं एस्कीमों जाति के लोगों की भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया है। रशियन, तुर्की, बर्मी, जापानी, डच, फिनिश, हिब्रू, अरबी, अंग्रेजी, फ्रेंच, हंगेरियन, असीरियन, संस्कृत, हिन्दी, तमिल, बंगला, मराठी तथा भारत की पर्वतीय एवं दक्षिणी भाषाओं पर तो उन्होंने पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लिया है। इस प्रकार इस समय वे संसार की लगभग तीन सौ पुरानी-नई भाषाओं के ज्ञाता हो चुके हैं।

डा. सुज ने केवल भाषाओं का ज्ञान ही प्राप्त नहीं किया बल्कि उनमें साहित्य भी लिखा है। अंग्रेजी, फ्रेन्च, इटालियन एवं स्पेनिश भाषा में अनेक पुस्तकें लिखने के साथ उन्होंने चीनी भाषा का बहुत सा साहित्य विभिन्न भाषाओं में अनूदित किया है। स्पेनिश भाषा में लिखी हुई उनकी कवितायें संसार के काव्य साहित्य में अपना विशेष स्थान रखती हैं। अरबी भाषा में जिन कविताओं का सृजन डा. सुज ने किया है उसके कारण वे अरबी भाषी लोगों में काफी लोकप्रिय हो चुके हैं। चीनी जैसी कठिन भाषा की कवितायें तो चीन में बड़े चाव से पढ़ी जाती हैं। इसके अतिरिक्त वे पचास भाषाओं के प्रेम गीतों का एक संग्रह विभिन्न भाषाओं में अनुवाद करके प्रकाशित कर चुके हैं।

इस सब साहित्य सृजन के अतिरिक्त उनका जो सबसे बड़ा और उपयोगी कार्य है वह है संसार भर की भाषाओं का सूची पत्र जिसे उन्होंने अकारान्त विधि से तैयार किया है। उसमें संसार की तीन सौ भाषाओं के केवल नाम ही नहीं हैं बल्कि डा. सुज ने उनका संक्षिप्त इतिहास भी लिखा है। डा. सुज का भाषा सम्बंधी अनुसंधान कार्य अभी चल रहा है और उन्होंने विश्वास प्रकट किया है कि वे अपने अन्तिम समय तक इस भाषा सूची में कम से कम दो सौ भाषायें और जोड़ सकेंगे।

डा. सुज से जब भी कोई मिलने गया उसने यही देखा कि या तो वे किसी फ्राँसीसी उपन्यास का अनुवाद कर रहे हैं अथवा किसी विदेशी भाषा की पुस्तक का अध्ययन कर रहे हैं। अभी यदि किसी ताम्रपत्र को पढ़ कर रक्खा है, तो ताड़ पत्र उठा लिया है। आशय यह कि उनके जीवन की प्रत्येक श्वास अपने उद्देश्य की पूर्ति में पूरी तरह से लगी रहती है। यद्यपि डा. सुज ने किसी से मिलने का निषेध नहीं रक्खा है तथापि लोग उनका काम और व्यस्तता देखते हुये उनका बहुत ही कम समय खराब करते हैं।

कहना न होगा यदि यह मानव अपने उद्देश्य में सफल हो गया और उसकी एक मानव-सभ्यता के लिये रक्खी हुई नींव पर आगे जाने वाली पीढ़ियों ने पत्थर चढ़ाये तो एक दिन अवश्य ही संसार से द्वेष तथा वैमनस्य का विष दूर हो जायेगा और संसार की पूरी मानव जाति एक मानव समाज में बदल जायेगी, जिसकी एक सभ्यता, एक संस्कृति तथा एक भाषा हो सकती है। अभी तो यह बात दूर का स्वप्न दिखाई देती है पर पुरुषार्थ से कुछ भी असम्भव नहीं। कौन कह सकता है कि जिस दिन डा. सुज का उद्देश्य साकार होगा मनुष्यों की यह धरती स्वर्ग नहीं बन जायेगी। हम सब को ऐसे सदाशयी व्यक्ति की दीर्घ आयु के लिये मंगल कामना करनी चाहिये।


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