प्रसन्नता की उपलब्धि सद्-विचारों से

July 1966

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जीवन में बालक से लेकर बूढ़े तक सभी प्रसन्नता चाहते हैं और उसे पाने का प्रयत्न करते रहते हैं। ऐसा करना भी चाहिये क्योंकि एक स्थायी प्रसन्नता जीवन का चरम लक्ष्य भी है। यदि मनुष्य-जीवन में प्रसन्नता का नितान्त अभाव हो जाये तो उसका कुछ समय चल सकना भी असम्भव हो जाये।

यह बात सत्य है कि मानव जीवन में अनुपात दुख क्लेश का ही अधिक देखने में आता है। तब भी लोग शौक से जी रहे हैं। इसका कारण यही है कि बीच-बीच में उन्हें प्रसन्नता भी प्राप्त होती रहती है और उसके लिये उन्हें नित्य नई आशा भी बनी रहती है। प्रसन्नता जीवन के लिये संजीवनी तत्व है। मनुष्य को उसे प्राप्त करना ही चाहिये। प्रसन्नावस्था में ही मनुष्य अपना तथा समाज का कुछ भला कर सकता है, विषण्णावस्था में नहीं।

प्रसन्नता वाँछनीय भी है और लोग उसे पाने के लिये निरन्तर प्रयत्न भी करते रहते हैं; किन्तु फिर भी कोई उसे अपेक्षित अर्थ में पाता दिखाई नहीं देता। क्या धनवान, क्या बालक और क्या वृद्ध किसी से भी पूछ देखिये क्या आप जीवन में पूर्ण संतुष्ट और प्रसन्न हैं? उत्तर अधिकतर नकारात्मक ही मिलेगा। उसका पूरक दूसरा प्रश्न भी कर देखिये—तो क्या आप उसके लिये प्रयत्न नहीं करते? नब्बे प्रतिशत से अधिक उत्तर यही मिलेगा— “कि प्रयत्न तो बहुत कुछ करते हैं किन्तु प्रसन्नता मिल ही नहीं पाती”। निःसन्देह मनुष्य की यह असफलता आश्चर्य ही नहीं दुःख का विषय है।

कितने खेद का विषय है कि आदमी किसी एक विषय अथवा वस्तु के लिये प्रयत्न करे और उसको प्राप्त न कर सके। ऐसा भी नहीं कि कोई उसे प्राप्त करने में कम श्रम करता हो अथवा प्रयत्नों में कोताही रखता हो। मनुष्य संपूर्ण अणु-क्षण एकमात्र प्रसन्नता प्राप्त करने में ही तत्पर एवं व्यस्त रहता है। वह सोते, जागते, उठते, बैठते, चलते, फिरते जो कुछ भी अच्छा बुरा करता है सब प्रसन्नता प्राप्त करने के मन्तव्य से। किन्तु खेद है कि वह उसे उचित रूप से प्राप्त नहीं कर पाता।

इस स्थिति को देखते हुये तो यही समझ में आता है कि या तो मनुष्य प्रसन्नता के वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचानता अथवा वह अपनी वाँछित वस्तु को पाने के लिये जिस दिशा में प्रयत्न करता है वह ही गलत है। इस समस्या पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है।

लोगों में अधिकतर एक सामान्य धारणा यह रहा करती है कि यदि उनके पास अधिक पैसा हो, साधन सुविधायें हों तो वे प्रसन्न रह सकते हैं। ऐसी धारणाओं वाले लोग पैसे और साधन सुविधाओं के लिये रोते रियायतें रहने के बजाय एक बार दृष्टि उठाकर उन लोगों की ओर क्यों नहीं देखते कि प्रचुरता से परिपूर्ण होने पर भी क्या वे सुखी हैं, प्रसन्न और संतुष्ट हैं? यदि धन दौलत तथा साधन सुविधायें ही प्रसन्नता की हेतु होती तो संसार का हर धनवान अधिक से अधिक सुखी और संतुष्ट होता किन्तु ऐसा कहाँ है। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि वैभव और विभूति वास्तविक प्रसन्नता का कारण नहीं है। प्रसन्नता प्राप्ति का हेतु मानकर इन भौतिक विभूतियों के लिये रोते-मरते रहना बुद्धिमानी नहीं है।

बल, बुद्धि और विद्या को भी प्रसन्नता का हेतु मानने की एक सभ्य प्रथा है। किन्तु यह ऐश्वर्य भी वास्तविक प्रसन्नता का वाहक नहीं है। यदि ऐसा होता तो हर शिक्षित प्रसन्न दिखाई देता और हर अशिक्षित अप्रसन्न। ऐसा भी देखने में नहीं आता। जिस प्रकार अनेक धनवान अप्रसन्न और निर्धन प्रसन्न देखे जा सकते हैं उसी प्रकार अनेक विद्वान क्षुब्ध तथा वे पढ़े लिखे लोग प्रसन्न मिल सकते हैं। बड़े-बड़े बलवान आहें भरते और साधारण सामर्थ्य वाले व्यक्ति हँसी खुशी से जीवन बिताते मिल सकते हैं।

इस प्रकार विचार करने से पता चलता है कि वास्तविक प्रसन्नता कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसको किसी शक्ति अथवा साधन के बल पर प्राप्त किया जा सके। साधनों की झोली फैलाकर प्रसन्नता की तलाश में दौड़ने वाले कभी भी प्रसन्नता प्राप्त नहीं कर सकते; और वास्तविक बात तो यह है कि जो जितना अधिक प्रसन्नता के पीछे दौड़ते हैं वे उतने ही अधिक निराश होते हैं। उनका यह निरर्थक श्रम उस अबोध हरिण की तरह ही शोचनीय होता है जो पानी के भ्रम में मरु मरीचिका के पीछे दौड़ते हैं अथवा उस बालक की तरह कौतुक पूर्ण है जो आगे पड़ी हुई अपनी छाया को पकड़ने के लिये दौड़ता है। प्रसन्नता कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसका पीछा करने की जरूरत है। वह तो अवसर आने पर स्वयं ही आकर मनोमंदिर में हँसने लगती है। उसके आने का एक अवसर तो यही होता है जब हम उसके पाने के लिये कम से कम लालायित, व्यग्र और चिन्तित होते हैं।

प्रसन्नता प्राप्ति का मुख्य रहस्य यह है कि मनुष्य अपने लिए सुख की कामना छोड़कर अपना जीवन दूसरों की प्रसन्नता में योजित करें। दूसरों को प्रसन्न करने के प्रयत्न करने में जो कष्ट भी प्राप्त होता है वह भी प्रसन्नता ही देता है। छोटा मोटा कष्ट तो दूर, देश भक्त तथा अनेकों परोपकारियों ने अपने प्राण देने पर भी अनिवर्चनीय प्रसन्नता प्राप्त की है। इतिहास ऐसे बलिदानियों से भरा पड़ा है कि जिस समय उनको मृत्यु वेदी पर प्राण हरण के लिये लाया गया उस समय उनके मुख पर जो आह्लाद, जो तेज, जो मुस्कान और जो प्रसन्नता देखी गई, वह काल के अनन्त पृष्ठ पर स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गई है।

एक साधारण से साधारण व्यक्ति भी अपने जीवन की किसी न किसी ऐसी घटना का स्मरण करके समझ सकता है कि जब उसने कोई परोपकार का काम किया था तब उसके हृदय में प्रसन्नता की कितनी गहरी अनुभूति हुई थी। जिस दिन यह सोचने के बजाय कि आज हम अपने लिये अधिक से अधिक प्रसन्नता संचय करेंगे, यदि यह सोचकर दिन का काम प्रारम्भ किया जाये कि आज हम दूसरों को अधिक से अधिक प्रसन्न करने का प्रयत्न करने का प्रयत्न करेंगे तो वह दिन आप के लिये बहुत अधिक प्रसन्नता का दिन होगा।

साधारण मनोरंजन, कार्यों तथा व्यवहारों में इस रहस्य को आये दिन देखा जा सकता है कि जो काम दूसरों को प्रसन्न करने वाले होते हैं अथवा जिन कामों से हम दूसरों को प्रसन्न कर पाते हैं वे ही काम हमें अधिक से अधिक प्रसन्न किया करते हैं। एक खिलाड़ी गेंद खेलता है और विपक्ष पर एक गोल कर देता है तो उसे अपनी सफलता पर प्रसन्नता होती है किन्तु तभी जब उसके साथी भी प्रसन्न होते हैं। यदि किसी कारण से उसकी यह सफलता दर्शकों अथवा साथियों को प्रसन्न न कर पाये तो उसे स्वयं भी प्रसन्नता न होगी। एक शिल्पी भवन अथवा मंदिर बनाता है। यद्यपि वह उसका नहीं होता तथापि वह इसलिये प्रसन्न होता है कि उसका वह काम दूसरों को प्रसन्न कर सकता है। इसी प्रकार कोई चित्रकार कलाकार अथवा कवि कोई रचना करता है तो उसे प्रसन्नता होती है, उसे अपनी कृति अच्छी लगती है। किन्तु उसकी प्रसन्नता में वास्तविकता तभी आती है जब दूसरे भी प्रसन्न होते हैं। संयोगवश यदि उसका सृजन अन्य किसी की प्रसन्नता का सम्पादन न कर सके तो अपनी होते हुये भी कला से कोई रुचि न रहेगी वह उसे बेकार समझेगा और उसकी प्रसन्नता जाती रहेगी।

साधारण मनोरंजन, कार्यों तथा व्यवहारों में इस रहस्य को आये दिन देखा जा सकता है कि जो काम दूसरों को प्रसन्न करने वाले होते हैं अथवा जिन कामों से हम दूसरों को प्रसन्न कर पाते हैं वे ही काम हमें अधिक से अधिक प्रसन्न किया करते हैं। एक खिलाड़ी गेंद खेलता है और विपक्ष पर एक गोल कर देता है तो उसे अपनी सफलता पर प्रसन्नता होती है किन्तु तभी जब उसके साथी भी प्रसन्न होते हैं। यदि किसी कारण से उसकी यह सफलता दर्शकों अथवा साथियों को प्रसन्न न कर पाये तो उसे स्वयं भी प्रसन्नता न होगी। एक शिल्पी भवन अथवा मंदिर बनाता है। यद्यपि वह उसका नहीं होता तथापि वह इसलिये प्रसन्न होता है कि उसका वह काम दूसरों को प्रसन्न कर सकता है। इसी प्रकार कोई चित्रकार कलाकार अथवा कवि कोई रचना करता है तो उसे प्रसन्नता होती है, उसे अपनी कृति अच्छी लगती है। किन्तु उसकी प्रसन्नता में वास्तविकता तभी आती है जब दूसरे भी प्रसन्न होते हैं। संयोगवश यदि उसका सृजन अन्य किसी की प्रसन्नता का सम्पादन न कर सके तो अपनी होते हुये भी कला से कोई रुचि न रहेगी वह उसे बेकार समझेगा और उसकी प्रसन्नता जाती रहेगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118