संसार में न जाने कितने ऐसे परोपकारी हो गये हैं, हो रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे जिन्होंने किसी कीर्ति, ख्याति, लोभ अथवा लाभ के लिये नहीं बल्कि मनुष्यता की उदात्त भावना से प्रेरित होकर स्वान्तः सुखाय मानव कल्याण के लिये अपार कष्ट सहा, सह रहे हैं और सहते रहेंगे। इतिहास के खुले पन्नों में देखे हुये महान पुरुषों की अपेक्षा ऐसे बेनाम उपकारी अधिक महान हैं, इसमें संदेह नहीं। ऐसे ही अनेक गुमनाम धाम उपकारियों ने अपनी अमूल्य सेवाओं से पनामा नहर के बनते समय मानवता को उपकृत किया था।
एक द्वीप से दूसरे द्वीप तक एक देश से दूसरे देश का संपर्क स्थापित करने के लिये जल मार्ग पनामा नहर का निर्माण हो रहा था। उन दिनों अनेक भयंकर रोगों का प्रकोप था जिनमें से मलेरिया का रोग तो महामारी की तरह फैला हुआ था और इस रोग को साधारण रोग नहीं असाध्य रोग समझा जाता था। एक बार जिसको यह रोग पकड़ लेता था उसे या तो समाप्त करके छोड़ देता था अथवा इतना कमजोर कर देता था कि वह किसी काम के योग्य न रहता था।
मलेरिया का यह भयंकर रोग पनामा नहर पर काम करने वाले सैकड़ों हजारों मजदूरों में फैल गया जिससे जाने कितने मजदूर मर गये और कितने बुरी तरह बीमार पड़ गये। बड़ा हाहाकार मच गया। ऐसा लगने लगा कि इस रोग के कारण न केवल पनामा का निर्माण ही रुक जायेगा बल्कि अगणित मनुष्यों का संहार हो जायेगा।
उपचार करने वाले उपचार करने में लग गये और डॉक्टर मलेरिया का समूल नष्ट करने के उपायों में जुट गये। इस रोग के समूल विनाश के लिये डॉक्टरों को कठिन प्रयोग की आवश्यकता पड़ी। उन्होंने कहा कि यदि हमको कुछ ऐसे आदमी मिल जायें जिनके शरीर में मलेरिया के कीटाणुओं को प्रवेश कराकर उसकी प्रक्रिया एवं प्रतिक्रिया का अध्ययन किया जा सके तो सम्भव है कि हम लोग मलेरिया के समूल विनाश के उपाय खोज निकालें।
कठिन कार्य था, मलेरिया के कष्ट से लोग परिचित थे। तब भी क्या किसी कष्ट के भय से मानव कल्याण के इतने बड़े कार्य को अधूरा रहने दिया जाता। निदान अनेक ऐसे आदमी आगे आये जिन्होंने अपने स्वस्थ शरीर में मलेरिया के कीटाणु प्रवेश कराकर डॉक्टरों को उपचारक उपाय खोज निकालने में सहायता दी, किन्तु जिनका आज तक संसार को पता नहीं चल सका।