धरती के स्वर्ग को प्राप्त कीजिये।

July 1966

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संसार से अलग कहीं कोई स्वर्ग अथवा नरक है—इसकी खोज खबर करने से कहीं अच्छा है कि मनुष्य अपनी इस धरती पर विद्यमान स्वर्ग-नरक की खोज करके पहचाने और उसे पाने अथवा उससे बचने का प्रयत्न करे।

अभौतिक स्वर्ग एवं नरक अप्रत्यक्ष हैं। उन्हें आपने कब देखा, अथवा कब पाया, इसका दृष्टिगोचर प्रत्यक्ष प्रमाण इस समय हम साधारण मानवों के पास नहीं हाँ, धरती के स्वर्ग-नरक हमारे सामने हैं। उनको इस चर्म चक्षुओं से देखा जा सकता है और उनको पाया अथवा बचा जा सकता है।

स्वर्ग एवं नरक का स्थल अर्थ है सुख तथा दुःख जो व्यक्ति अन्दर तथा बाहर से सुखी एवं प्रसन्न है वह स्वर्ग में स्थित है और जो अन्दर बाहर से दुःखी अथवा अप्रसन्न है वह नरक में स्थित है। मनुष्य इस भौतिक स्वर्ग-नरक को अपने भौतिक शरीर से ही पा सकता है, उसे देख सकता है और अपनी इन्द्रियों द्वारा उसके रस अथवा विष को अनुभूत कर सकता है।

स्वर्ग एवं नरक की उभय स्थितियों में से कोई भी व्यक्ति स्वर्गीय-स्थिति की ही कामना करेगा। ऐसा कौन मूर्ख अभागा होगा जो नरक की यातना में जलना चाहेगा। मनुष्य से लेकर कीट पतंग तक जितने भी जीवधारी हैं, वे सब स्वर्ग अर्थात् सुख की स्थिति ही पाने की कोशिश किया करते हैं उनमें से बहुत से पाते हैं और अनेक असफल भी रहते हैं। स्वर्ग-नरक के प्रति प्राणियों की अनुभूति इतनी तीव्र है कि एक अबोध शिशु तक अपने हास रुदन से यह सूचित कर देता है कि वह उस समय स्वर्ग की स्थिति में है अथवा नरक की यातना में। अनुभूति की यह तीव्रता और ह्रास-रुदन के रूप में उसकी अभिव्यक्ति इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य ही क्यों प्राणी मात्र स्वर्ग की ही स्थिति चाहता है, नरक की नहीं। यही उसका चरम लक्ष्य भी है और यही उसका चरम विकास।

स्वर्ग क्या है! सुख-शाँति, आनन्द मंगल कुशल प्रेम तथा पुण्य प्रकार की परिस्थिति ही स्वर्ग है! इस स्थिति में मनुष्य का मन प्रसन्न शरीर स्वस्थ तथा आत्मा सस्मित रहा करती है। वह दिन-दिन उन्नति करता हुआ, सफलताओं की वरमाला पहनता हुआ संसार में पुण्य प्रताप के बल पर कीर्तिमान होकर अमर हो जाता है। भौतिक शरीर में प्रसन्न परिस्थितियों के बीच निवास करना ही स्वर्गीय भोग है और अन्त में यहाँ—शरीर से निर्लिप्त होकर अमरत्व पा लेना स्वर्ग का अन्तिम एवं लक्ष्य फल है।

इस समुन्नत स्वर्गीय स्थिति तक पहुँचने के लिये सोपान-परम्परा को ‘सदाशयता’ का एक नाम दिया जा सकता है। सब कुछ सही एवं शुभ ही करना स्वर्ग की पावन परिस्थिति की ओर अग्रसर होना है।

मनुष्य एक जीवन है और जीवन का ठीक-ठीक अर्थ है सुस्वास्थ्य। स्वास्थ्य स्वर्ग का प्रथम एवं मूलभूत सोपान है। स्वस्थ शरीर, स्वस्थ मन और स्वस्थ आत्मा का त्रिविष्टिप ही सच्चा स्वर्ग है। इसे प्राप्त कर लेने पर स्वर्ग की अन्य सारी सहायक परिस्थितियाँ स्वयं प्राप्त हो जाती हैं।

शरीर हृष्ट-पुष्ट एवं बलिष्ठ है तो मनुष्य धरती को चीरकर सुख का श्रोत्र निकाल लेगा। आवश्यकतानुसार दिन रात परिश्रम कर सकता है। कलावती, अशाँति, अनिद्रा अथवा अजीर्ण निकट नहीं आ सकते। निराशा एवं चिन्ता की परिस्थिति उसे विचलित नहीं कर सकती। स्वस्थ श्रम से उद्दीप्त उसकी क्षुधा साधारण अन्न को पचा कर उसे परम तृप्ति प्रदान करने में समर्थ रहती है, जिससे उसे संतोष होगा। लिप्सा एवं लोलुपता से रक्षा होगी। स्वस्थ शरीर ऋतुओं का आनन्द, प्रकृति का सौंदर्य अनुभूत करा के स्वर्गीय सुख ही प्रदान करता है। जलवायु का परिवर्तन उस पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डाल पाता। स्वस्थ मनुष्य सदैव प्रसन्न एवं प्रमुदित रहा करता है। व्यग्रता, विवशता उसके पास होकर नहीं गुजरती। मनुष्य की इस निरोग अवस्था को स्वर्गीय स्थिति के सिवाय और क्या कहा जा सकता है।

जो पुष्ट एवं बलिष्ठ है वह निर्द्वन्द्व ही रहा करता है। उसको न तो किसी शत्रु से भय और न किसी संघर्ष के प्रति चिन्ता ही रहा करती है। स्वस्थ मनुष्य का स्वभाव सहज रूप से मधुर एवं सौजन्यपूर्ण रहा करता है। अक्रोध के कारण वह बहुधा अजातशत्रु ही रहता है तथापि यदि कोई अकारण द्वेषी दुष्ट उससे बैर बाँधता भी है तो वह उससे हर प्रकार से निपट लेने की सामर्थ्य रखता है उसे शंका अथवा भय नहीं रहता अपने स्वस्थ एवं सशक्त शरीर के भरोसे वह सदा निर्भय रहा करता है। अभयता स्वर्ग की एक उत्कृष्ट अनुभूति है, स्वस्थ-व्यक्ति जिसका सहज अधिकारी होता है।

मन को ईर्ष्या, द्वेष, कलह क्लेश तथा कामनाओं के कलुष से बचाइए। सदाचार विचार से उसे उज्ज्वल एवं उन्नत बनाइये। प्रसन्न वातावरण के बीच प्रसन्नचेता व्यक्तियों के साथ रहिये। क्रोध से इसकी रक्षा कीजिये और संकीर्णता की सीमा में तोड़ कर स्वर्गीय क्षितिज में विस्तृत होने दीजिए। शुभ कल्पनाओं, सद्भावनाओं एवं शिव संकल्पों से इसे बनाइये आपका मानस आप के लिये प्रत्यक्ष स्वर्ग ही बन जायेगा। पुण्य प्रयत्नों से प्रसन्न किया हुआ कुँठा रहित मन स्वर्ग ही क्या बैकुँठ धाम की परिस्थिति उत्पन्न कर देता है।

सत्संग, स्वाध्याय, चिन्तन तथा चारु-चरित्र से आत्मा को प्रबुद्ध कीजिए। उन पर पड़े कुसंस्कारों के आवरण को पुण्य कर्मों से जला डालिये। परोपकार एवं परमार्थ में आस्था रखिये। आस्तिकता के बल पर आत्मा की उपस्थिति पहचानिए, उसे प्रत्यक्ष होने का अवसर दीजिये। आप की बुद्ध एवं प्रबुद्ध आत्मा अपने भीतर छिपे शत-शत स्वर्गों को आपके लिए प्रत्यक्ष एवं उपलक्ष्य बना देगी।

स्वास्थ्य के बाद स्वर्ग का दूसरा सोपान है परिवार। परिवार में प्रेम एवं प्यार का संचार कीजिए। श्रम एवं सहनशीलता के बल पर कलह क्लेश को पास मत आने दीजिए। अपने त्याग के उदाहरण से सदस्यों में त्याग भावना की प्रवृत्ति जगाइए, शिक्षा प्रसार करिये। अपने कर्तव्य एवं अधिकार का समुचित उपयोग करिये, संतोष एवं मितव्ययता का गुण सीखिये और सिखाइए। हर छोटे बड़े के बीच सहमति एवं सम्मति रखिये। पत्नीव्रत धर्म के साथ गृहस्थ का हर उचित कर्तव्य निबाहिये, हर मूल आवश्यकता की पूर्ति करिये और प्रत्येक कृत्रिम आवश्यकता को दूर भगाइये, परिवार की सुख सुविधा के लिये अगाध श्रम कीजिये, परिवार का पालन पवित्र कमाई से करिये। झूठ, प्रपंच तथा छल कपट की दूषित कमाई के अन्न से बच्चों के संस्कार न बिगाड़िये। इस प्रकार उत्पन्न किया हुआ पारिवारिक सुख पृथ्वी का जीता जागता स्वर्ग है।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी भी है। समाज में रहता हुआ मनुष्य यदि उसकी उपेक्षा करके अपना स्वर्ग अलग से बसा लेना चाहे तो यह उसके लिये कठिन भी होगा और अनुचित भी। समाज के साथ सुख सुविधाओं को मिल-बाँट कर भोग करने में एक व्यापक स्वर्ग का आनंद है। हमारे पास सुख सुविधायें हों और हम उनका केवल अपने परिवार के सदस्यों के साथ ही उपभोग करते रहते हैं और अपने पड़ोस में बसे परिवार को आवश्यकता ग्रस्त देखते रहते हैं, तो हमारा वह स्वर्ग दूषित हो जायेगा। यथा-साध्य समाज के साथ ही मिल बाँट कर उपभोग करने पर साधन एवं सुविधायें स्वर्गीय आनन्द देती हैं। हम स्वयं तो हँसते विहँसते रहें और पास की आह-कराह पर ध्यान न दें अथवा ध्यान देकर उपेक्षा कर दें तो हमारा वैधानिक स्वर्ग बहुत दिन सुरक्षित नहीं रह सकता।

हम सब एक राष्ट्र भी हैं। हमारा एक राष्ट्रीय अस्तित्व भी है। हमारी एक मातृभूमि तथा देश भी है जिसके प्रति हमारे अनेक कर्तव्य निश्चित हैं। उन कर्तव्यों का पालन न करने का अर्थ है अपने शारीरिक, पारिवारिक तथा सामाजिक स्वर्ग-सुख को कलंकित करना, राष्ट्रीय कर्तव्यों में मातृभूमि की रक्षा में बलिदान, उसकी उन्नति के लिये त्याग तथा उसके गौरव के लिये सदाचार का पालन करना, स्वर्गीय सुख उपलब्ध करने का एक सात्विक उपाय है। राष्ट्र की सेवाओं, व्यवसायों तथा निर्माण कार्य कर्मों में ईमानदारी के साथ अपना अंश दान करना एक पवित्र साधन है जिसका फल एक स्वर्गीय संतोष ही होगा।

राष्ट्र के बाद सार्वभौतिकता की भावना भी स्वर्गीय सुख का एक अग्रिम सोपान है। मानवता को भूल कर केवल राष्ट्र तक सीमित हो जाना भी एक स्वार्थ-पूर्ण संकीर्णता ही है। मानवता का दुख दूर करने को अंशदान करना, यथासम्भव उसकी सेवा करना, उसके लिए कष्ट उठाने की प्रवृत्ति का विकास करना, अपने वाँछित एवं अक्षय स्वर्ग की ओर बढ़ना ही है। सम्पूर्ण मानवता में आत्मीयता की भावना रखना ही ईश्वर के प्रधान अंश मनुष्य के लिये शोभनीय है। व्यष्टि से समष्टि एवं समष्टि से बढ़कर सार्वभौमिक बनने वाले महापुरुष जीवन भर स्वर्गीय अनुभूति का आनंद लेकर युग-युग के लिये यशः शरीर से अमर हो जाते हैं।

शारीरिक स्वास्थ्य से लेकर मानसिक एवं आत्मिक स्वास्थ्य का विकास करते हुये, समाज, राष्ट्र तथा अन्तर्राष्ट्रीय कर्तव्य-पालन के सात सोपानों पर अधिकार कर लेने वाला सत्पुरुष निश्चय ही इस धरा धाम पर ही सच्चे तथा प्रत्यक्ष स्वर्ग का अधिकारी बनता है। धरती का स्वर्ग पाना किसी भी व्यक्ति के लिए कठिन नहीं है यदि वह वास्तव में दैवी जीवन के साथ स्वर्ग सुख का आकाँक्षी है। संयम, सदाचार तथा सद्भावना रखने वाला सदाशयी व्यक्ति निश्चय ही इस प्रत्यक्ष एवं अक्षय स्वर्ग को प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक को ही इस सम्पूर्ण स्वर्ग को पाने का प्रयत्न करना चाहिये नहीं तो कम से कम उसके एक दो सोपानों पर तो चढ़ ही जाना चाहिये।

शारीरिक स्वास्थ्य से लेकर मानसिक एवं आत्मिक स्वास्थ्य का विकास करते हुये, समाज, राष्ट्र तथा अन्तर्राष्ट्रीय कर्तव्य-पालन के सात सोपानों पर अधिकार कर लेने वाला सत्पुरुष निश्चय ही इस धरा धाम पर ही सच्चे तथा प्रत्यक्ष स्वर्ग का अधिकारी बनता है। धरती का स्वर्ग पाना किसी भी व्यक्ति के लिए कठिन नहीं है यदि वह वास्तव में दैवी जीवन के साथ स्वर्ग सुख का आकाँक्षी है। संयम, सदाचार तथा सद्भावना रखने वाला सदाशयी व्यक्ति निश्चय ही इस प्रत्यक्ष एवं अक्षय स्वर्ग को प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक को ही इस सम्पूर्ण स्वर्ग को पाने का प्रयत्न करना चाहिये नहीं तो कम से कम उसके एक दो सोपानों पर तो चढ़ ही जाना चाहिये।

शारीरिक स्वास्थ्य से लेकर मानसिक एवं आत्मिक स्वास्थ्य का विकास करते हुये, समाज, राष्ट्र तथा अन्तर्राष्ट्रीय कर्तव्य-पालन के सात सोपानों पर अधिकार कर लेने वाला सत्पुरुष निश्चय ही इस धरा धाम पर ही सच्चे तथा प्रत्यक्ष स्वर्ग का अधिकारी बनता है। धरती का स्वर्ग पाना किसी भी व्यक्ति के लिए कठिन नहीं है यदि वह वास्तव में दैवी जीवन के साथ स्वर्ग सुख का आकाँक्षी है। संयम, सदाचार तथा सद्भावना रखने वाला सदाशयी व्यक्ति निश्चय ही इस प्रत्यक्ष एवं अक्षय स्वर्ग को प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक को ही इस सम्पूर्ण स्वर्ग को पाने का प्रयत्न करना चाहिये नहीं तो कम से कम उसके एक दो सोपानों पर तो चढ़ ही जाना चाहिये।


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