अखण्ड-ज्योति परिजनों के लिए कुछ विशेष— - हमारे और आपके संबंध आगे क्या हों?

July 1966

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-इसका अन्तिम निर्णय इसी मास हो जाना चाहिये-

‘अखण्ड-ज्योति’ परिजनों के साथ हमारे सीधे संबंध की अवधि अब धीरे-धीरे घटती चली जा रही है। अज्ञातवास से लौटने के पश्चात् हमें 10 वर्ष काम करने के लिए मिले थे। जिनमें से 5 वर्ष इस गुरु पूर्णिमा को पूरे हो चले, अब 5 वर्ष की अवधि और शेष है जिसमें हम अपने प्रिय परिजनों के साथ उस तरह का संबंध और रख सकेंगे जैसा कि अब तक रखते रहे हैं।

हमारी जीवन प्रक्रिया एक विशेष महती शक्ति की प्रेरणा एवं पथ प्रदर्शन में चलती रही है। जब से होश सँभाला है, उसी प्रकाश एवं मार्ग-दर्शन में हमारे पैर निर्बाध गति से चलते रहे हैं। हमने इस प्रेरणा को ही सर्वोपरि माना है। वही हमारे लिए ईश्वरीय सन्देश और ब्रह्म-वाक्य है। आत्म-समर्पण करने के बाद दूसरा कोई मार्ग हो भी नहीं सकता। अर्जुन ने “शिष्यस्तेऽहं साधिमाँत्वाँ प्रपन्नं” के रूप में अपना आत्म समर्पण किया था और “करिष्ये वचनं तव” की प्रतिज्ञा की थी, तभी उसका शिष्यत्व सार्थक हो सका। सारा जीवन क्रम इसी प्रक्रिया के आधार पर बिता देने के उपरान्त अब शेष थोड़े से समय में कोई भिन्न रीति नीति अपनाई भी नहीं जा सकती।

जब से होश सँभालने की स्थिति हुई तभी से मार्गदर्शक सत्ता ने हमारे जीवन की बागडोर सँभाल ली। (1) चौबीस वर्ष के चौबीस महापुरश्चरण, (2) गायत्री विद्या का विश्वव्यापी प्रचार, (3) वेद, उपनिषद्, दर्शन, स्मृतियाँ, पुराण आदि प्राय सभी धर्मग्रन्थों का भाष्य एवं प्रसार, (4) धर्म तंत्र का पुनर्जागरण एवं संगठन, (5)युग निर्माण योजना—की विचार क्रान्ति का जन मानस में बीजारोपण यह सभी कार्य एक से एक बढ़कर महत्व के हैं। हमारी व्यक्तिगत क्षमता एवं योग्यता इतनी नगण्य है कि अपने बलबूते पर इनमें से एक की भी सफलता संभव नहीं थी। शंख में अपनी निज की सामर्थ्य बजने की नहीं, उसे कोई दूसरा बजाता है तभी ध्वनि होती है। हमारी स्थिति भी शंख जैसी रही है। अपने को पोला खाली जरूर रखा है ताकि प्रेरक सत्ता को उचित रीति से काम करने को अवसर मिल सके। बस, इतनी भर हमारी विशेषता है। यदि इतना भी न होता, अपनी व्यक्तिगत कामनाओं, तृष्णाओं एवं महत्वाकाँक्षाओं को मन में भरे रखा होता तो संभवतः उस प्रेरक सत्ता के लिए भी यह कठिन होता कि हमारे शरीर से कुछ काम करा सके। सच्चे शिष्य अपने को खाली ही रखते हैं और अपने प्रकाशबिन्दु के सामने आत्म समर्पण करने का साहस तो कर ही लेते हैं। हमें एक अध्यात्म-मार्ग के पथिक के रूप में यही करना था, यही किया भी है। शिष्यत्व की पात्रता न होती तो बेचारे गुरुदेव भी आखिर क्या कर पाते?

कुम्हार की इच्छानुसार घूमने वाले चाक की तरह हमारी गतिविधियाँ घूमती चली आ रही हैं, आगे भी वही रीति-नीति बनी रहने वाली हैं। इसलिए हमें अपना स्थूल कार्यक्रम, लोक संपर्क निर्धारित अवधि में पूरा करना ही होगा। इसमें ननुनच का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। परिजनों को वियोग जन्य व्यथा हो सकती है। हम भी मनुष्य हैं। हमारी मनोभूमि में स्नेह, वात्सल्य, ममता एवं आत्मीयता की कमी नहीं। जिन परिजनों को निज के कुटुम्बियों से अधिक स्नेह दिया और सद्भाव पाया है उनसे पृथक होना कष्टदायक न हो, ऐसी बात नहीं, पर कितने ही प्रसंग ऐसे होते हैं जिनमें मनुष्य विवश होता है। इस विछोह में हमारी भी विवशता ही है।

इस बचे हुए समय में हम परिजनों के घरों में अपनी एक स्मृति छोड़ जाना चाहते हैं। शरीर से पृथक हो जाने पर भी भावना रूप से अपने आत्मीयजनों के घरों में देर तक बैठे रहने की हमारी आन्तरिक अभिलाषा है। शेष बचे हुए समय का उपयोग हम इसी प्रकार करेंगे।

दूसरों की तरह हमारे भी दो शरीर हैं, एक हाड़मांस का, दूसरा विचारणा एवं भावना का। हाड़मांस से परिचय रखने वाले करोड़ों हैं। लाखों ऐसे भी हैं जिन्हें किसी प्रयोजन के लिए हमारे साथ कभी संपर्क करना पड़ा है। अपनी उपार्जित तपश्चर्या को हम निरन्तर एक सहृदय व्यक्ति की तरह बाँटते रहते हैं। विभिन्न प्रकार की कठिनाइयों एवं उलझनों में उलझे हुए व्यक्ति किसी दल-दल में से निकलने के लिए हमारी सहायता प्राप्त करने आते रहते हैं। अपनी सामर्थ्य के अनुसार उनका भार हलका करने में कोई कंजूसी नहीं करते। उस संदर्भ में अनेक व्यक्ति हमारे साथ संपर्क बनाते और प्रयोजन पूरा होने पर उसे समाप्त कर देते हैं। कितने ही व्यक्ति साहित्य से प्रभावित होकर पूछताछ एवं शंका समाधान करने के लिए, कितने ही आध्यात्मिक साधनाओं के गूढ़ रहस्य जानने के लिए,कई अन्यान्य प्रयोजनों से आते हैं। इनकी सामयिक सेवा कर देने से हमारा कर्तव्य पूरा हो जाता है। उनके बारे में न हम अधिक सोचते हैं और न उनकी कोई शिकायत या चिन्ता करते हैं।

हमारे मन में भावनाएं उनके लिए उफनती हैं जिनकी पहुँच हमारे अन्तःकरण एवं भावना स्तर तक है। भावना शरीर ही वास्तविक शरीर होता है। हम शरीर से जो कुछ है, भावना की दृष्टि से कहीं अधिक हैं। हम शरीर से किसी की जो भलाई कर सकते हैं उसकी अपेक्षा अपनी भावनाओं विचारणाओं का अनुदान देकर कहीं अधिक लाभ पहुँचाते हैं। पर अनुदान ग्रहण वे ही कर पाते हैं जो भावनात्मक दृष्टि से हमारे समीप हैं। जिन्हें हमारे विचारों से प्रेम हैं, जिन्हें हमारी विचारणा, भावना एवं अन्तःप्रेरणा का स्पर्श करने में अभिरुचि है उन्हीं के बारे में वह कहना चाहिए कि वे तत्वतः हमारे निकटवर्ती एवं स्वजन संबंधी हैं। उन्हीं के बारे में हमें कुछ विशेष सोचना है, उन्हीं के लिए हमें कुछ विशेष करना है।

अपने परिवार में कितने ही व्यक्ति ऐसे हैं जिनका प्रेम, अनुग्रह एवं आत्मभाव हर दृष्टि से सच्चा है। व्यक्तिगत रूप से भी वे हमें अपने प्रिय से प्रिय स्वजन सम्बन्धियों की तरह ही प्यार करते हैं। आदान की प्रतिक्रिया प्रदान और ध्वनि की प्रतिक्रिया प्रतिध्वनि होती है। जिनकी आत्मीयता जन्म जन्मान्तरों से हमारे साथ बँधी चली आ रही है और जो दूर रहते हुए भी निकटवर्ती लोगों से भी कहीं अधिक निकट हैं, उनके प्रति हमारा मन भी इस विछोह कल्पना से सजल हो उठता है। इन दिनों जो हमारे अत्यन्त निकट हैं, अगले दिनों परिस्थितियाँ न जाने उन्हें कहाँ और हमें कहाँ पटक देंगी। कष्ट इस संसार में एक से एक बड़े हैं पर प्रिय विछोह उन सबमें अधिक कष्टकर है। इस कष्ट की कल्पना हमें भी विचलित करती है क्योंकि आखिर भावनाओं के सहारे अपना कलेवर खड़े किये हुए एक दुर्बल मानव प्राणी ही हम भी हैं।

पिछले 26 वर्षों से जिन लोकोत्तर भावना सम्पन्न सहृदय स्वजनों की अनवरत आत्मीयता एवं श्रद्धा हमें प्राप्त होती रहती है उनके प्रति हमारे मन में कितनी अधिक ममता एवं कृतज्ञता है इसको लिखकर या कहकर नहीं बताया जा सकता। जो हमें गहराई तक जानते और समझ सके हैं उन्हें पता है कि पुरुष शरीर में होते हुए भी ममता, करुणा, स्नेह, वात्सल्य एवं आत्मीयता की दृष्टि से हमें नारी—माता कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी। हमें प्यार का व्यापारी कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी। हमने अपरिमित प्यार अपने परिजनों को दिया है और बदले में उसे असीम मात्रा में पाया भी है। अब जबकि हमारे क्रिया कलाप का अध्याय बन्द होने जा रहा है तब हमारे मन में एक ही कसक निरन्तर उठती रहती है और वह यह कि हम किस प्रकार उस ऋण से उऋण हो सकें जो स्वजनों ने असीम श्रद्धा के साथ हमारे ऊपर प्रेम एवं विश्वास उड़ेलते हुए चढ़ाया है।

पिछले कई महीनों यह एक ही विचार हमारे मन में निरन्तर घूमता रहता है कि जिस परिवार ने हमारे संकेतों के अनुसार बड़े से बड़े त्याग करने में कभी संकोच नहीं किया है, जिधर मोड़ा उधर मुड़ते रहे हैं, जो कहा सो मानते रहे हैं, जिधर चलाया उधर चलते रहे हैं और उस पर भी लोकोत्तर सद्भाव परम निःस्वार्थ भाव से प्रदान करते रहे हैं उनसे उऋण हो सकना संभव न हो तो कम से कम समुचित प्रतिदान किस प्रकार दिया जाय?

इन लोगों के नाम और रूप हमारी आँखों के आगे चलते-फिरते गुजरते रहते हैं। आत्मिक एवं भौतिक दृष्टि से उनकी ‘सुसम्पन्नता एवं समृद्धि बढ़ी-चढ़ी देखने की अपनी इच्छा भी रहती है, पर अनेक दिशाओं में हमारी शक्ति बिखरी रहने से उतनी साधना तपस्या बन नहीं पड़ती, जिससे अभीष्ट सहायता पहुँचाई जा सके। पाँच वर्ष बाद हमें इस दृष्टि से अधिक अवसर मिलेगा, तदनुरूप समर्थता भी बढ़ेगी। हमें न स्वयं की कामना है न मुक्ति की। इस जन्म में जो हमारा आध्यात्मिक उपार्जन हो उसे इस ऋण को चुकाने में ही लगा देंगे जो भावनाशील परिजनों द्वारा आत्मीयता एवं श्रद्धा के रूप में हमें उपलब्ध हुआ है। जिसने हमें जितना दिया है उसे ब्याज समेत लौटा देने की हमारी कामना आज रह-रह कर उठ रही है। विश्वास है कि उतनी शक्ति मिलेगी जिससे इस प्रकार उऋण होकर हम अपने मन का भार हलका कर सकें।

अगले दस वर्षों में हमें क्या करना है, उसकी रूप रेखा अज्ञातवास काल में ही हमें बनाकर दे दी गई थी। पाँच वर्ष ठीक उसी पटरी पर चलते हुए हो गये। पाँच वर्ष और भी उसी क्रम से आगे चलना होगा। इसके बाद हमारा, हमारे कार्यक्रम का क्या स्वरूप होगा, इसकी चर्चा अभी से करना अप्रासंगिक है। समयानुसार हर बात सामने आने वाली ही है।

इन पाँच वर्षों में भी हमें अनेक दिशाओं में अनेक कार्य करने हैं। उन सबका उल्लेख आज ही कर दिया जाय यह आवश्यक नहीं। इन पंक्तियों में तो उतनी ही चर्चा करनी उचित है जिसका ‘अखण्ड-ज्योति’ के पाठकों से सीधा सम्बन्ध हो।

हमें अपनी अन्तःप्रेरणा, भावना, अभिव्यक्ति, आकाँक्षा और शिक्षा अपने प्रेमी पाठकों के घरों में इस तरह छोड़ जानी है कि हमारा शरीर न रहने पर भी वह एक ज्योतिर्मय दीपक की तरह प्रकाशवान बनी रहे। वे, उनकी सन्तानें और सन्तानों की पीढ़ियाँ उससे प्रकाश एवं प्रेरणा ग्रहण करती रह सकें। हमारा भावना शरीर हर प्रेमी परिजन के समीप एक मूर्तिमान कलेवर की तरह विद्यमान रह सकना संभव हो सके तो जिस प्रकार हम आज वर्तमान शरीर द्वारा प्रेमी पाठकों का भावनात्मक निर्माण कर सकने में सफल हो रहे हैं उसी प्रकार आगे भी 100 वर्ष तक उनके परिवार की, प्रियजनों की सेवा करते रहने का अवसर हमें मिलता रहेगा। इस प्रकार भी हमारे ऊपर चढ़ा हुआ परिजनों का ऋण एक सीमा तक उतरेगा।

हमारे इस विचार रूपी शरीर-साहित्य से कुछ लोग भी लाभ उठाते रहें और हर साल इन लाभ उठाने वालों की न्यूनतम संख्या हर महीना एक के हिसाब से बारह भी मान ली जाय तो सौ वर्षों में बारह-सौ हो जायगी। एक घर में स्थापित हमारे विचारों का ज्योति-दीप यदि इतनी आत्माओं को प्रकाश दे सका तो हमें अपने श्रम की सार्थकता पर सन्तोष भी होगा और जिनसे हमने प्यार किया उनके स्वजन सम्बन्धी भी यह अनुभव करेंगे कि हमारे परिवार को जीवन विकास की प्रेरणा देने वाला कोई शिक्षक इस घर में विचार शरीर से अभी भी सजीव की तरह निवास करता है, भले ही उसका स्थूल शरीर समाप्त हो गया हो।

लागत मूल्य के, न लाभ न नुकसान की नीति पर आधारित अत्यन्त सस्ते और आकर्षक ट्रैक्ट 20-20 नया पैसा लागत के पिछले दिनों छपते रहे हैं। इनकी लोकप्रियता और उपयोगिता अधिक सिद्ध हुई है। कम पैसे की चीज कोई भी आसानी से खरीद सकता है। जिन्हें अवकाश नहीं मिलता वे भी काम की चीज थोड़े ही समय में पढ़ लेते हैं। बड़ी पुस्तक देखकर जो पढ़ने से चकराते हैं वे भी थोड़ा-सा पढ़ लेने की अभिरुचि न होते हुए भी तैयार हो जाते हैं। प्रचार का यह अच्छा साधन है। ईसाई मिशनरियों ने अपने धर्म का विस्तार करने के लिए इसी माध्यम का सहारा लिया है। कम पढ़े, गरीब और अपने से भिन्न मत रखने वालों तक उन्होंने अपनी बातें इन ट्रैक्टों के द्वारा सारे संसार में फैली दीं। हमारा विचार भी इसी सस्ते माध्यम से व्यक्ति एवं समाज का नव निर्माण करने वाले विचार जन मानस के अन्तराल तक व्यापक क्षेत्र में प्रविष्ट करा देने का है, इसलिए आगे इसी दशा में अधिक श्रम करेंगे। अगले पाँच वर्षों में हमारा जन-जागरण का अधिकाँश साहित्य लघु पुस्तिकाओं, ट्रैक्टों के रूप में ही प्रस्तुत किया जायगा। निबन्ध, कथा, जीवन-चरित्र और सभी माध्यमों को अपनाकर सर्वसाधारण के उपयुक्त स्तर का जीवन-साहित्य इन पाँच वर्षों में इतना तैयार कर दिया जायगा कि प्रत्येक परिवार के लिए नव निर्माण की बहुत कुछ सामग्री उसमें मिल सके।

दोनों पत्रिकाएं और हर महीने लगभग 12-15 ट्रैक्ट इस प्रकार कुल लगभग तीन रुपया मासिक की पुस्तकें अपने प्रिय परिजनों के घरों में नियमित रूप से पहुँचाने का हमारा मन है। यह सब सामग्री इतनी होगी कि एक परिवार में एक घन्टे प्रतिदिन स्वाध्याय एवं सत्संग की उत्कृष्ट पाठ्य सामग्री बड़ी आसानी से मिल सकती है। इतना अनुदान अपने आत्मीय जनों को नियमित रूप से दे सकें तो हमें यह सन्तोष ही रहेगा कि उनके भावना स्तर को परिष्कृत करने के लिए कुछ उत्तम प्रयत्न किया जा सका।

एक घंटा प्रतिदिन का समय दान हमने अपने प्रिय परिजनों से नव-निर्माण कार्य के लिए माँगा था। कितने ही व्यक्ति जन-संपर्क में इस बहुमूल्य अनुदान को लगा रहे हैं और उससे लोक मानस निर्माण का कार्य बहुत ही उपयुक्त ढंग से हो भी रहा है। मिशन के द्वारा जो महत्वपूर्ण कार्य अब तक हुआ है वह इस एक घंटा अनुदान का ही चमत्कार है। इतने पर भी कितने ही व्यक्ति अभी ऐसे बचे हैं जो संकोच, झिझक, आलस्य, व्यस्तता आदि कारणों से समय दान की माँग इच्छा रखते हुए भी ठीक तरह पूरी नहीं कर पाते। ऐसे सभी लोगों के लिए यह एक बहुत ही सरल तरीका होगा कि अपने परिवार के हर शिक्षित को यह साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरणा करने में और हर अशिक्षित को पढ़कर सुनाने के लिए वह एक घन्टे का समय दिया करें। परिवार निर्माण भी समाज निर्माण है। इस बहाने स्वयं ध्यानपूर्वक इन विचारों को पढ़ने समझने का अवसर मिलेगा। परिवार को सुसंस्कृत बनाने के लिए जिस महत्वपूर्ण कर्तव्य का पालन अब तक नहीं बन पड़ा था वह अब बन पड़ेगा। अपने को और अपने परिवार को भी यदि भावनात्मक उत्कृष्टता की ओर मोड़ने का नियमित प्रयत्न किया जा सके तो यह एक बहुत बड़ी बात है। इसे देखने में तुच्छ किन्तु वस्तुतः समाज की महती सेवा माना जा सकेगा। यह ऐसा सरल साथ ही अपने को प्रत्यक्ष लाभ देने वाला कार्य है कि इस दिशा में दिया गया समय समाज के लिए, संसार के लिए ही नहीं, अपने और अपने परिवार के लिए भी श्रेयस्कर सिद्ध होगा।

गृह सदस्यों की रोटी, कपड़ा, मनोरंजन, दवादारु या पढ़ाई की व्यवस्था मात्र कर देने पर ही परिवार के प्रति अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व की इति-श्री नहीं हो जाती। हर विवेकशील और दूरदर्शी गृह संचालक का यह भी कर्तव्य है कि वह अपने स्त्री-बच्चे, माता-पिता, भाई-बहिन, भतीजे आदि कुटुम्बियों के लिये गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत बनाने वाला वातावरण प्रस्तुत करे। इसके अभाव में परिवार वाले भले ही शरीर की दृष्टि से मोटे, पढ़ाई की दृष्टि से सुशिक्षित और पैसे की दृष्टि से सुसम्पन्न हो जावें, पर वे भावनात्मक दृष्टि से पिछड़े रह जायेंगे और अपनी असज्जनता के कारण स्वयं दुखी रहेंगे और अपने साथियों को दुख देंगे। जिनका भावनात्मक परिष्कार नहीं हुआ वे न तो स्वयं जीवन का आनंद ले सकते हैं और न अपने साथियों को चैन से रहने दे सकते हैं। हो सकता है कि संस्कार रहित अपने बालक बड़े होने पर अपने साथ ही दुष्टता का व्यवहार करें और जो आशा उनसे रखी गई थी उसे धूलि में मिला दें। ऐसा होता भी है। दुर्भावनायुक्त परिवारों में साक्षात नरक का वातावरण दिखाई पड़ता है। इस संभावना को समय रहते उन्मूलन करना प्रत्येक उस व्यक्ति का कर्तव्य है जो अपने परिवार में कोई उत्तरदायित्व पूर्ण स्थान ग्रहण किये हुए हैं।

स्कूलों में शिक्षा मिल सकती है, संस्कृति नहीं। संस्कृति घर के वातावरण से उपलब्ध होती है। अध्यापक कुछ भी पढ़ाते रहें, बाहर के लिए कुछ भी उपदेश देते रहें पर घर का वातावरण जैसा होगा, परिवार के सदस्य उसी ढाँचे में ढलेंगे। इसलिए यह कार्य दूसरों के कन्धों पर नहीं छोड़ा जा सकता कि हमारे परिवार के छोटे या बड़े सदस्यों को सन्मार्ग पर चलाने की जिम्मेदारी कोई बाहरी व्यक्ति उठावे या सँभाले। यह कार्य-स्वयं ही करने का है और आवश्यक कार्यों से भी अधिक आवश्यक है। जो उसे कर सकेगा, वही परिवार का भावनात्मक सृजन कर सकने में सफलता प्राप्त करेगा। फलते-फूलते, हँसते-खेलते कुटुम्बियों के साथ स्वयं प्रसन्न रहेगा और उनके लिए स्वर्गीय जीवन जी सकने का पथ प्रशस्त करेगा।

एक घंटा रोज का समय इस संदर्भ में खर्च करते रहा जाय तो यह परमार्थ भी होगा और स्वार्थ भी सधेगा। घर में किस से क्या कहना है, यह अपनी समझ में न आता हो तो उस कठिनाई का हल करेंगे। जो कहना, बताना, सुनाना, सिखाना है, वह सब कुछ हम तैयार करेंगे। रसोई हम पकायेंगे, खाना और खिलाना आपका काम है। हम उस क्रमबद्ध विचारधारा का सृजन करेंगे जो सामान्य जीवनों में असामान्य भावना एवं प्रेरणा ओत-प्रोत कर सके। उस विनिर्मित सामग्री को अपने और आपके परिजनों के गले उतारने का श्रम आप करें, तो यह उभय पक्षीय प्रयत्न एक चमत्कारी परिणाम उत्पन्न कर सकता है।

अगले पाँच वर्षों में हम अपने प्रिय परिजनों के परिवारों में एक परिवार शिक्षक की भूमिका अदा करना चाहते हैं। क्या ही अच्छा होता, काश, उन सबके साथ सशरीर रह सकना हमारे लिए संभव हो गया होता। अभी-अभी गायत्री तपोभूमि में शिक्षण शिविर हुआ था, करीब 200 स्वजन एकत्रित थे। साथ-साथ हँसते-खेलते इतने दिन परिजनों के साथ इतनी अच्छी तरह बीते कि उस आनन्द में व्यवधान पड़ने का समय आते ही हमारी तथा सब शिक्षार्थियों की भावनाएं उमड़ने लगीं, आँखें छलकने लगीं। यदि परिजनों के साथ हँसने-खेलने, सीखने-सिखाने, जीवन बिताने का वैसा अवसर सदा मिलता रहे तो आनन्द का वारापार न रहे। पर यह तो आकाँक्षा मात्र है। संभव कहाँ हो सकता है? दूर-दूर बसे हुए लोग प्रारब्धवश दूर रहने के लिए ही विवश हैं। अभी तो इतना ही सम्भव है कि कागजों के माध्यम से भावनाओं का आदान-प्रदान होता रहे। इस प्रकार के प्रशिक्षण का एक क्रम पूरा नहीं सही, अधूरा सही, किसी रूप में चलता ही रह सकता है। प्रस्तुत योजना इसी उद्देश्य को लेकर बनाई गई है।

बच्चों को पढ़ाने वाले शिक्षकों को कुछ फीस देनी पड़ती है, घर की साज संभाल रखने वाले बुड्ढों पर भी आखिर कुछ खर्च पड़ता ही है। हमारे प्रशिक्षण की फीस दस नया पैसा प्रतिदिन पाँच वर्षों में इतने मात्र खर्च से 1000 के लगभग पुस्तकों का एवं 60+60=120 अंकों का (जो वस्तुतः एक बढ़िया पुस्तक ही होती है)एक सुसज्जित पुस्तकालय उस घर में बनाकर रख देंगे। बाजारू स्तर पर वस्तु की दृष्टि से यह एक अत्यन्त सस्ती किन्तु आवश्यक वस्तु ही खरीदी गई हैं। जो अनुपयोगी प्रतीत हो तो किसी को उतने ही मूल्य में बेची भी जा सकती हैं। अपने उत्तराधिकार में लोग मकान, जायदाद, सोना, चाँदी, नकदी आदि छोड़ते हैं। उसी में यदि यह अत्यन्त स्वल्प मूल्य में संग्रहित भावनात्मक रत्न-राशि भी संग्रह करके घर वालों के लिए छोड़ दी जाय तो कोई बहुत बड़ी बात न होगी।

घरों में अक्सर लोग देव प्रतिमाएं स्थापित करते हैं। उनकी पूजा, आरती, धूप, दीप, नैवेद्य, धूपबत्ती, फूल, भोग, प्रसाद, वस्त्र, शृंगार आदि में कम से कम दस नया पैसा तो खर्च करते ही हैं। ज्ञान देवता का प्राणवान मंदिर घरेलू नव-निर्माण पुस्तकालय भी पूजा-कक्ष की तरह पवित्र, प्रेरणाप्रद एवं प्रकाश प्रदान करने वाला ही सिद्ध होगा। इससे भी आध्यात्मिक आवश्यकता पूर्ण होगी और वे सब संभावनाएं बढ़ेंगी जो सकाम उपासना करने वाले अक्सर चाहते रहते हैं। पूजा-कक्ष और ज्ञान-मंदिर दोनों का समन्वय एक दूसरे के पूरक ही सिद्ध होंगे।

जिन्हें हमारे विचारों की प्रेरक शक्ति पर आस्था हो, जो उसकी उपयोगिता आवश्यकता समझते हों उन्हें अगले पाँच वर्ष तक हमारे सृजनात्मक साहित्य योजना का सदस्य बने रहना चाहिए। जो अधूरे मन से केवल शारीरिक परिचय या प्रयोजन पर आधारित संबंध रखते हैं उन्हें इस झंझट में नहीं पड़ना चाहिए। क्योंकि हम एक दिशा से अपना मस्तिष्क साफ कर लेना चाहते हैं कि हमें जो लिखना, छापना है वह किनके लिए, कितनों के लिए होगा। कभी सदस्य रहे, कभी न रहे, तकाजे पहुँचे तब याद आई, तो भी चन्दा भेजा, न भेजा, ऐसी अरुचि या उपेक्षा जिन्हें हैं, उनके लिए यही उचित है कि अपना नाम सदस्यता से कटा लें। इसमें हमें बहुत सुविधा रहेगी। अनिश्चित संख्या में व्यवस्था बनाने में बड़ी गड़बड़ी और परेशानी रहती है। जिन्हें हमारा साहित्य यदा कदा मनचले शौकिया ही पढ़ना चाहें वे किसी पड़ौसी से माँग कर पढ़ लिया करें।

अब हमें ऐसे सुनिश्चित मति वाले उन आस्थावान परिजनों की संख्या जाननी हैं, जिन पर हमारा ध्यान केन्द्रित रह सके। अनिश्चित संपर्क केवल उलझन पैदा करते और परेशानी बढ़ाते हैं। अगले पाँच वर्ष हम अनिश्चित नहीं सुनिश्चित लोगों के साथ संपर्क रखने में ही बिताना चाहते हैं। अगली सदस्यता दस नया पैसा रोज खर्च की होगी। क्योंकि इतने पैसे में ही हमारा सारा भावी प्रकाशन उपलब्ध किया जा सकेगा। जो इतना खर्च कर सकते हों, वे अपना नाम अगले महीने नोट करा दें। शेष लोग दूसरों से पढ़कर काम चला लिया करें।

प्रश्न आर्थिक तंगी का नहीं है। निर्धन से निर्धन व्यक्ति के लिए भी यह कठिन नहीं हो सकता कि वह लगभग डेढ़ दो छटाँक आटे की कीमत दस नया पैसा, इतने महत्वपूर्ण, इतने आवश्यक कार्य के लिए खर्च न कर सके। अत्यधिक आर्थिक तंगी हो तो स्वयं डेढ़ रोटी कम खाकर शरीर को थोड़ा दुर्बल करलें और उसके बदले में आत्मा को बलवान बना लें। यह तनिक भी महंगा सौदा नहीं है। यह भी हो सकता है कि यदि अकेले इतना खर्च करने की सुविधा न हो तो दो परिजन मिलकर सम्मिलित व्यवस्था बना लें। फुरसत न मिलने और आर्थिक तंगी की बात करने वालों का बहाना बेबुनियाद है। सही बात उपेक्षा और अरुचि है जिसके कारण उतना नगण्य खर्च और उतना नगण्य समय भार मालूम पड़ता है। ध्यान से देखा जाय तो हम लोग उससे कहीं अधिक पैसा और कहीं अधिक समय उन कार्यों में खर्च करते रहते हैं जो व्यर्थ तथा हानिकारक होते हुए भी हमारी अभिरुचि का स्थान ग्रहण किये हुए हैं। जिन कार्यों को लोग आवश्यक समझते हैं उनके लिए ढेरों समय और ढेरों पैसे खर्च करते हैं। अरुचि का प्रसंग ही भार मालूम पड़ता है। उसी के लिए तंगी और फुरसत की आड़ लेनी पड़ती है। सारा जीवन हमें मनुष्य का अंतरंग एवं बहिरंग स्वरूप समझने में बीता है। वस्तुस्थिति समझने में हमें तनिक भी भ्रम नहीं रहता। इसीलिए यह प्रस्ताव कर रहे हैं कि अगले पाँच वर्ष हमें जिन लोगों के लिये विशेष सोचना और करना है वे इस स्तर के नहीं होने चाहिए जिन्हें इतनी नगण्य व्यवस्था बनाने में कष्ट, कठिनाई, आशंका और असुविधा होती हो।

इन दिनों ‘अखण्ड-ज्योति’ के ग्राहक बहुत हैं उनमें से हर साल कितने ही नये बनते और कितने ही पुराने टूटते हैं। यह धमाचौकड़ी अब बन्द होनी चाहिए। हजार-दो हजार भी ग्राहक रहें तो हमें पूरा-पूरा सन्तोष रहेगा। भीड़ को समझाने वाली अवधि पूरी हो गई, अब जो आस्थावान हैं उनके लिए कुछ अधिक महत्वपूर्ण सोचने करने का प्रश्न है। ऐसी दशा में वर्तमान संख्या घटाने में हमें तनिक भी आपत्ति नहीं, वरन् सुविधा ही होगी।

साहित्य-सृजन की चर्चा तो इसलिए विशेष रूप से इन पृष्ठों में की गई है क्योंकि ‘अखण्ड-ज्योति’ तथा उसके पाठकों का स्थूल रूप से यही प्रमुख माध्यम रहा है। इसलिए यह प्रसंग साफ करना आवश्यक था। इसी महीने यह बात इसलिए विशेष रूप से स्पष्ट करनी पड़ी कि 1 जुलाई से ‘युग निर्माण योजना’ पाक्षिक का नया वर्ष आरम्भ होता है। उसके अधिकाँश ग्राहकों का चन्दा इसी महीने समाप्त हो जायगा। आगे से उसे मासिक कर दिया गया है। वह 15 तारीख को छपा करेगी। ‘अखण्ड-ज्योति’ जितने ही पृष्ठ रहेंगे और उतना ही 4) वार्षिक मूल्य रहेगा। ‘अखण्ड-ज्योति’ में जो बातें सैद्धान्तिक रूप से प्रतिपादित की जाती हैं वे कार्य रूप में किस तरह लाई जा सकती हैं या लाई जा रही हैं, इसका व्यावहारिक मार्ग-दर्शन उसमें रहा करेगा। एक प्रकार से ‘युग निर्माण’ को ‘अखण्ड-ज्योति’ का पूरक ही कहना चाहिए। अब तक उसे कोई पढ़ते थे कोई नहीं पढ़ते थे। अब यह उचित रहेगा कि जो ‘अखण्ड-ज्योति’ पढ़ते हैं वे ‘युग निर्माण योजना’ भी पढ़ें और जो ‘युग निर्माण योजना’ पढ़ते हैं वे ‘अखण्ड-ज्योति’ भी मंगावें। इसलिए अगले मास ‘युग निर्माण योजना’ भी उतनी ही छापने का विचार है जितने पाँच वर्ष तक साथ देने वाले स्थायी सदस्य होंगे। जो कभी ग्राहक रहते, कभी टूटते हैं, उन्हें ‘युग निर्माण योजना’ मँगाना भी अनावश्यक है। इस प्रकार उसके ग्राहक भी घट जायँ तो हर्ज नहीं। ‘अखण्ड-ज्योति’ तो दिसम्बर तक इतनी ही छपेगी, उसे जनवरी से उतनी ही छापेंगे, जितने स्थायी सदस्य होंगे।

प्रचार कार्य बहुत हो चुका, अब जो काम के आदमी हाथ लगें उतनों को ही पक्का करने का काम शेष है। इसलिए इस ग्राहक घटाने वाली योजना से पाठकों को न दुःख होना चाहिए न आश्चर्य। अस्थिर मति लोगों की भारी भीड़ से घिरे रहने की अपेक्षा हमें मुट्ठी भर आस्थावान लोगों के साथ रहने में अधिक सन्तोष एवं आनंद प्राप्त होगा। इसलिए जिन्हें स्थायी सदस्य रहना हो वे ‘युग निर्माण योजना’ अपने नाम चालू कराने के लिये और शेष उसे बन्द कर देने की सूचना हमें दे देंगे तो भविष्य के अंक उतनी ही संख्या में तैयार कराने में सुविधा रहेगी।

साधना क्रम का सामान्य प्रशिक्षण हो चुका। अब जिनने उसे सीख लिया है वे दूसरों को सिखावें। हमें आस्थावान लोगों की उपासना को इतना परिपक्व एवं प्रखर बनाने में अपना ध्यान केन्द्रित करना है, जिससे वे स्वयं एक अनुकरणीय उदाहरण बनकर दूसरों को साधना मार्ग पर आकर्षित एवं प्रोत्साहित कर सकें। साधारण कठिनाइयों को हल करने में हम अब तक सामने आये। व्यक्ति के लिए कुछ न कुछ सहयोग करते रहे हैं, आगे थोड़े लोगों पर ध्यान केन्द्रित करेंगे ताकि वे स्थायी रूप से अपनी समस्याओं का समाधान करके इस स्थिति में पहुँच सकें कि दूसरों की समस्याऐं हल करने में उसी प्रकार सहयोग दे सकने की क्षमता प्राप्त कर लें, जैसी कि अब तक हमारी गतिविधि रही है। अपना काम समाप्त करते हुए आखिर कुछ लोग तो पीछे छोड़ने ही हैं जो इस महान परम्परा को आगे भी गर्व और गौरव के साथ जारी रख सकें। इनका निर्माण अब भी न किया गया तो आखिर फिर वह समय आवेगा भी कब?

अगले पाँच वर्षों में हमें जो अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य करने हैं, उनमें से एक यह भी है कि निरर्थक भीड़-भाड़ में से कुछ काम के साथी सहचर चुन लें और उनके साथ अधिक मनोयोग पूर्वक संपर्क स्थापित करें। इसे कोई चाहे तो परिवार का परिष्कार, परिमार्जन या शुद्धिकरण भी कह सकता है। शब्द कुछ भी कहे जायँ वस्तुतः आगे किया यही जाना है।

इसी अंक में एक प्रश्न-पत्र अलग से संलग्न है। इसे भरकर पाठक इसी महीने भेज देने की कृपा अवश्य करें। इसमें हमें अपनी भावी विधि व्यवस्था जमाने में बड़ी सुविधा होगी। जिन्हें सदस्य रहना हैं वे स्वीकृति वाला लाल स्याही में आग भर दें। जिन्हें सदस्यता बन्द करनी हो वे पीठ पर दूसरी स्याही में छपा भाग भरकर भेज दें। जिनकी बन्द होने की सूचना होगी उनकी पत्रिकाएं चन्दा समाप्त होते ही बन्द कर दी जायेंगी। पत्रक भरकर न आने पर पुनः स्मरण दिलाने की कठिनाई से हमें बचाने के लिए हर पाठक से इतने उदार सहयोग की आशा तो रखी ही जायगी कि वे यथासंभव जल्दी ही इस फार्म को भरकर भेज देंगे।

*समाप्त*


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