धर्म और ईश्वर निष्ठा की महान् आवश्यकता

July 1966

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मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक होने का अर्थ इतना ही नहीं कि उसे समाज में रहने का अभ्यास है। सामाजिकता की परिभाषा इससे भी विशद है। सामान्य जीवन क्रम में उसे बहुतों के सहयोग की आवश्यकता होती है। कितनों का उत्तरदायित्व भी उसे निभाना पड़ता है। परिवार, कुटुम्ब, जाति, देश और सम्पूर्ण जीवन में जीवन-रस, ज्ञान और विविध साधन लेकर वह अनेक प्रकार के सुखोपभोग प्राप्त करता है। मनुष्य की सामाजिकता का अर्थ है कि उसे जिन-जिन से उपकार मिलता है वह उनके प्रति उपेक्षा या उदासीनता की वृत्ति न रखे। स्वार्थ के साथ परमार्थ का भी उसे पूरा ध्यान रहे।

अपने शरीर के सीमित दायरे में बहुत सारे सुखों को उपलब्ध कर लेना बड़ी आसान बात है। मनुष्य जैसे अपार क्षमता वाले प्राणी के लिये यह कोई बड़प्पन की बात नहीं है कि अपनी तृष्णा, अपनी वासना की पूर्ति में ही लगा रहे। नीचे आने का क्रम बड़ा आसान है, पानी को नीचे बहाना हो तो यह कोई कठिन कार्य नहीं, ऊँचे से नीचे उतरने के लिये कोई भी फिसल सकता है, पर यदि ऊँचे उठकर कुछ श्रेष्ठतर कार्य करने हों तो बड़े साहस और बड़ी कर्त्तव्यनिष्ठ की आवश्यकता होगी। मनुष्य की स्वार्थपरता इसके लिये पर्याप्त न होगी, उसे परमार्थ का भी उतना ही ध्यान रखना पड़ेगा। समाज की सुख-शान्ति और समुन्नति इन कर्त्तव्यों का समुचित पालन करने से ही हो सकती है। स्वार्थ और परमार्थ में समन्वय और सन्तुलन रखे बिना मनुष्य सामाजिक प्राणी होने की कसौटी पर खरा सिद्ध नहीं होता।

ऋषियों ने मनुष्य-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र का बड़ी गहराई तक अध्ययन किया उससे सम्बन्धित अनेकों सात्विक, मनोवैज्ञानिक, सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक तथ्यों की खोज की। उन्होंने मनुष्य को दो रूपों में विभक्त किया। एक उसका साँसारिक रूप था और दूसरा आध्यात्मिक। यहीं से धर्म का प्रादुर्भाव हुआ। पूर्वज इस बात को समझते थे कि मनुष्य की आत्मा अनेक जन्मों के कुसंस्कारों का मलावरण और अज्ञान अपने आप में चढ़ाये हुये होती है और वह इस मनुष्य रूप में प्रकट होने पर साँसारिकता में बड़ी जल्दी ग्रास हो जाता है और चौरासी-लाख योनियों वाले जीवों की तरह के कार्यों में ही इसे काम लेने लग जाता है। भोगों की अतृप्त आकांक्षा उसे बार-बार उधर घसीटती है।

इन दिनों निजी स्वार्थ बहुत बढ़ गये हैं उनमें कोई किसी प्रकार की कमी नहीं करना चाहता। कहने को कुछ लोग जप-तप, दान-दक्षिणा, तीर्थ-व्रत आदि भी करते हैं किन्तु आज यह सब उन स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियों पर पर्दा डालने वाली प्रवंचना मात्र बनकर रह गई। उससे मानव जीवन में जो सत्कर्मों, दया, क्षमा, उदारता, सेवा सहिष्णुता का विकास होना था वह जरा भी नहीं हो पाता वरन् इससे सामाजिक स्थिति और भी खराब, भ्रमपूर्ण और कष्टदायक हो जाती है।

इन बुराइयों से मनुष्य को सावधान रखने और मनुष्य जीवन जैसी सर्वथा दुर्लभ वस्तु का सदुपयोग करने के लिये ऋषियों ने मनुष्य जीवन के आध्यात्मिक पहलू का बड़ी तत्परता के साथ पूर्ण वैज्ञानिक पद्धति से विकास किया। धर्म की मान्यतायें काल्पनिक नहीं हैं, उनके पीछे पूर्व जनों के कठिन परिश्रम, गहन शोधों के सत्परिणाम संयुक्त हैं। इसीलिये वे इतनी सुन्दर बन गई हैं कि उनसे एक व्यक्ति का भी भला होता है और सामाजिक वातावरण भी स्वर्गीय बनता है।

भारतवर्ष में किसी जमाने में आध्यात्मिकता का बहुत अधिक विकास हुआ था। इतिहास साक्षी है कि उस समय यहाँ के लोग कितने सुखी, सम्पन्न और समुन्नत थे। यहाँ किसी बात का अभाव न था। यहाँ का समाज देव-समाज कहलाता था। दुष्प्रवृत्तियों का कहीं नामों-निशान तक न था, यही कारण था कि यह देश स्वर्ग की सी गरिमाओं से विभूषित था और जीवनमुक्त आत्मायें भी यहाँ बार-बार लौट-लौट कर जीवन धारण करने के लिये आतुर रहा करती थीं।

धर्म मनुष्य समाज को सुव्यवस्थित, सुनियन्त्रित एवं सुविकसित रखने में सर्वप्रथम और शक्तिशाली सिद्ध हुआ है। पर खेद है कि आज उसे वह प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं जो होनी चाहिये थी। समाज यद्यपि इसका दोषी नहीं है। कुछ अर्थों में तो वह इसके लिए प्रशंसा का पात्र ही समझा जाना चाहिये कि उसने अपने विवेक के द्वारा आज के तथाकथित मिथ्यावादी धर्म का भंडाफोड़ किया और उसमें उच्छृंखल तत्वों की दाल न गलने दी। किन्तु अपने सच्चे और स्वाभाविक रूप में धर्म और आध्यात्म ही ऐसा है जो मनुष्य समाज की प्रत्येक गुत्थी को सुधार सकता है। धर्म मनुष्य को सुसंस्कृत और सुसंस्कारित बनाने वाली सर्वांगपूर्ण प्रक्रिया का नाम है। उसे धारण करने से ही मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन भी सार्थक होना संभव है।

स्मृतियों में धर्म के जो लक्षण बताये गये हैं उनमें त्याग, क्षमा, दया, समता, सेवा, परोपकार को ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है। यह गुण जहाँ व्यक्तिगत जीवन में शान्ति और सन्तोष प्रदान करने वाले हैं वहाँ इनका आचरण भी समाज में ही हो सकता है फलस्वरूप सामाजिक जीवन में भी वैसे ही सद्परिणामों का दिखलाई देना स्वाभाविक है।

मनुष्य के भौतिकवादी दृष्टिकोण पर नियंत्रण रखने के लिये आध्यात्मिक तत्व बड़े आवश्यक हैं। शरीर को ही सर्वप्रमुख वस्तु समझने की भूल ने मनुष्य को बड़ा धोखा दिया है। अपने मूल कलेवर आत्मा का वेधन और ज्ञान किये बिना मनुष्य की स्वार्थ पूर्ण प्रवृत्तियाँ कम नहीं होतीं, पर जब उसे यह मालूम पड़ता है कि मनुष्य एक विज्ञान है और वह विश्वव्यापी प्राण तत्व परमात्मा से निर्गत हुआ अत्यन्त अल्प क्षमता वाला प्राणी है तो उसका सारा अहंभाव नष्ट हो जाता है। विराट जगत की कल्पना का ईश्वर के अस्तित्व को मान लेने के बाद दूसरों को सताने या छल-कपट, द्वेष, पाखण्ड, दम्भ और दुराचार का व्यवहार करने में प्रायः हर किसी को भय लगता है। यह भय ईश्वर का भय है। यही सामाजिक दुष्प्रवृत्तियों से हर लक्षण, हर घड़ी सजग रखता है। ऐसी व्यवस्था न तो कानून में है न किन्हीं स्थानीय प्रतिबन्धों में। जब तक मनुष्य कण-कण में विद्यमान आत्मतत्व के भाव को हृदयंगम न कर लेगा कानूनी व्यवस्थाएं चाहें कितनी ही कठोर क्यों न कर दी जाँय बुराइयाँ कभी कम नहीं हो सकतीं। ऐसे अवसर बराबर आते हैं जब मनुष्य कानून की पकड़ से बच सकता है या उसे धोखा दे सकता है। जब तक दंड से बच निकलने का विश्वास बना रहेगा तब तक कोई भी व्यक्ति पाप या दुराचरण से न डरेगा। उजागर न सही पर छिपे तौर पर तो बुराइयाँ वह करेगा ही। रिश्वत लेगा, मिलावट करेगा, कम तौ लेगा और भी तरह तरह के कपट-पूर्ण कार्य करेगा फलस्वरूप सामाजिक व्यवस्था में गड़ गड़ी भी अवश्य ही फैलेगी।

आस्तिकता मनुष्य के आत्मभाव को विकसित कर उसे सबकी कुशलता में अपनी कुशलता अनुभव करने की प्रेरणा देती है। स्पष्ट है कि ऐसी अवस्था में कोई भी व्यक्ति किसी के साथ प्रकट या अप्रकट कोई अभद्र व्यवहार न करेगा। यह बात सब के अन्दर आ जाय तो निस्सन्देह मनुष्य समाज का स्तर बहुत ऊँचा उठ जाय।

ईश्वर पर विश्वास करने और आत्मा की सर्वज्ञता अनुभव करने के अनेक आधार हैं अतः इसे व्यवस्था से सहायक केवल मनोवैज्ञानिक उपचार मात्र नहीं कहा जा सकता। यह संसार कर्त्ता और कर्म के अडिग सिद्धान्त पर टिका हुआ है। प्रत्येक वस्तु का कोई न कोई जन्मदाता भी अवश्य है। फिर इस विराट जगत का भी तो नियन्ता होना चाहिये अन्यथा इतने सूक्ष्म गणित के सिद्धान्त पर फैली हुई साँसारिक व्यवस्था न मालूम कब की अस्त-व्यस्त हो गई होती। जहाँ मनुष्य की बुद्धि नहीं पहुँच पाती, जहाँ उसकी कोई योजना कार्य नहीं कर सकती वहाँ भी प्रकाश है, वहाँ भी गतिविधियाँ जारी हैं यह सब किसी प्रकार नियंत्रित होनी चाहिये और यह भी स्पष्ट है कि इस कार्य को कोई भगवान् जितना शक्तिशाली तत्व ही पूरा करता होगा। हिन्दू धर्म ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में जो व्यापक अनुसंधान हुआ है वह सम्पूर्ण विश्व के लिये कल्याण का साधन है।


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