जीवन को उलझन बनने से बचाइए।

July 1966

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जिस जीवन को एक उलझी हुई पहेली बताया जाता है वह वास्तव में बड़ा ही सरल तथा सीधा है। जीवन जीने में किसी प्रकार की उलझन तो होनी ही नहीं चाहिये। जीवन में उलझनों का सूत्रपात तभी होता है जब हम अपनी परिस्थितियों से बाहर का जीवन जीना चाहते हैं।

परिस्थिति तो हमारी एक छोटे से मकान में रहते हुये मोटा-झोटा खा-पीकर जीने की है किन्तु हम चाहते हैं महल में रहकर, विविध व्यंजनों का स्वाद लेते हुये जीना। ऐसी दशा में जीवन का उलझ जाना स्वाभाविक हैं। हमें अपनी स्थिति से तो असन्तोष हो जायेगा और मनोरथ की पूर्ति होगी नहीं। फलस्वरूप असन्तोष, असुखं तथा अभाव की समस्यायें आकर सताने लगेंगी।

जीवन में वर्तमान स्थिति से आगे बढ़ने की आकाँक्षा जीवन की प्रगति का लक्षण है जो कि हर प्रकार से प्रशंसनीय है। यदि मनुष्य अपनी आदि स्थिति में ही अन्न का आलिंगन कर लेता है तो मानों उसने जीवन में कुछ न करके जग में होते हुये भी जड़ जैसी जिन्दगी ही बिताई है। उसने अपनी सारी शक्तियों को मानों निरर्थक खो दिया है अथवा उनको अन्दर पड़े-पड़े ही नष्ट हो जाने दिया है। मनुष्य की शोभा आज की अपेक्षा कल उच्चतर स्थिति पाने के लिये प्रबल पुरुषार्थ करने में ही है। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि अपने मनोरथों अथवा अपने जीवन लक्ष्य को अपनी क्षमताओं अथवा सम्भावनाओं से दूर कर रक्खा जाये।

मनुष्य के जीवन में उलझनों का आविर्भाव तभी होता है जब वह ऐसी मनोवाँछाओं को अपना लक्ष्य बना लेता है जो उसकी परिस्थितियों के अनुरूप नहीं होतीं। हमें अपनी वाँछाओं को बढ़ाने से पूर्व यह देख लेना नितान्त आवश्यक है कि हम जीवन में जो कुछ पाने का स्वप्न देख रहे हैं उसका मूल्य चुकाने के लिये जिस पूँजी की आवश्यकता है वह हमारी गाँठ में है भी अथवा नहीं। वाँछाओं की पूर्ति मनोरथ मात्र से ही तो नहीं हो सकती। उनके लिये अनुरूप योग्यता, परिश्रम, पुरुषार्थ, परिस्थिति अवसर, सहयोग तथा साधन की आवश्यकता होगी। इन सब अनुरूप उपादानों के अभाव में मनुष्य की कोई भी मनोवाँछा पूरी नहीं हो सकती। यदि हमने अपने अन्दर किसी ऐसी इच्छा के लिये व्यग्रता जंगली है, जिसका मूल्य चुकाने योग्य पूँजी हमारे पास नहीं है तो समझ लेना चाहिये कि हमने अपने सरल एवं स्निग्ध जीवन में समस्याओं का सूत्रपात कर लिया है, जिसका परिणाम दुःख दर्द के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता।

बहुत बार सारे साधन होने पर भी संयोग अथवा प्रारब्धवश मनोवाँछा पूरी नहीं होती। तब ऐसी अनहोनी असफलता तो जीवन को एक भार जैसा ही बना सकती है। अस्तु अपेक्षित उपादानों के साथ मनुष्य में असफलता सहन करने और सफलता के लिये बारम्बार प्रयत्न करने का धैर्य भी होना चाहिये। अन्यथा साधन पूर्ण असफलता तो एक बहुत बड़ी समस्या बन जायेगी।

सबसे सरल एवं सुधरा हुआ जीवन तो वास्तव में स्वाभाविक जीवन ही होता है। अपनी परिस्थितियों के अनुसार जो कुछ प्राप्त हो जाये उसे उपलब्धि समझकर हर्ष एवं सन्तोषपूर्वक अंगीकार करना चाहिये। किन्तु ऐसा सरल जीवन सिद्ध होना कठिन है। मनुष्य एक प्रगतिशील प्राणी है। इच्छाओं का पुतला है। उसमें इच्छाओं का उदय होना सहज स्वाभाविक है। इसी इच्छा शीलता के कारण ही वह उन्नति करता करता आज यहाँ पहुँच सका है।

इच्छाओं का होना बुरा नहीं। बुरा है उनका नियंत्रित न होना। इच्छा उतनी ही करनी चाहिये जितनी अपनी सामर्थ्य हो। अपनी सामर्थ्य के बाहर की इच्छा करना अपने पर दुख-द्वन्द्वों को आमंत्रित करना है। किन्तु इतने विवेकशील व्यक्ति कितने होते हैं जो अपनी शक्ति तथा मनोरथों को समानान्तर रख सकें। लोग अपनी क्षमताओं का अनुमान लगाये बिना ही अपनी इच्छाओं की डोर ढीली कर देते हैं और उनकी पूर्ति के लिये लालायित होने लगते हैं। निदान उनकी कामनायें अधूरी रहकर उनके लिये एक दुःखद समस्या बन जाया करती हैं।

यदि एक बार ही कोई बहुत बड़ा लक्ष्य निर्धारित न करके हम छोटी-छोटी मंजिलों को पार करते हुये चलें तो एक दिन धीरे-धीरे बड़े लक्ष्य पर भी पहुँच सकते हैं। किन्तु इच्छावान् आदमी इतना आतुर अथवा उतावला होता है कि वह एक ही छलाँग में सात समुद्र पार कर जाना चाहता है। यदि कोई विद्यार्थी एम. ए. पास करने की कामना रखता है तो उसे कक्षा-अनुकक्षा को पार करते हुये चलना पड़ेगा। यदि वह प्रारम्भिक कक्षाओं की उपेक्षा करके एक साथ एम. ए. में पहुँचना चाहता है तो यह उसकी मूर्खता ही कही जायेगी। एम. ए. तक पहुँचने का जो क्रम निश्चित है वह उसको अपनाना ही पड़ेगा। पूर्व कक्षाओं में यदि वह केवल एम. ए. तक पहुँचने की उतावली से व्यग्र रहता है तब भी कोई काम न चलेगा। उसे अपने एम. ए. के महान लक्ष्य पर पहुँचने के लिये क्रमबद्ध कक्षाओं को लक्ष्य बनाना पड़ेगा। उसे अपने चरम लक्ष्य को अदृष्टिगोचर करके वर्तमान कक्षा को पास करना ही अपना लक्ष्य बनाना पड़ेगा और इतना धैर्य रखना पड़ेगा कि वह निम्न कक्षाओं को पास करने की अवधि में ही इतना उतावला अथवा अधीर न हो जाये कि एम. ए. तक पहुँचना उसे एक पहाड़ जैसा लगने लगे। अत्यधिक उतावली होने से वह बीच में ही ऊबकर थक जायेगा। एम. ए. तक पहुँच सकना उसे असम्भव जैसा लगने लगेगा और वह हिम्मत हारकर बीच में ही बैठ जायेगा।

जीवन में कोई बड़ा लक्ष्य निर्धारित किया जा सकता है। किन्तु उस तक पहुँचने के लिये मंजिलें बाँटनी होंगी। पड़ाव निश्चित करने होंगे—जिनको क्रम से पार करते हुये ही अपने विशाल लक्ष्य तक पहुँचा जा सकेगा। पहली मंजिल केवल उतनी ही लम्बी बनाइये जितनी शक्ति और सम्बल आपके पास हो और जिसे पूरा कर लेने का पूरा-पूरा विश्वास हो। अपनी पहली मंजिल में प्राप्त साधनों, शक्ति तथा सम्बल को इकट्ठा करके दूसरी मंजिल की ओर अग्रसर होइये और दूसरी से प्राप्त सम्बल के बल पर तीसरी मंजिल की ओर बढ़िये और इस प्रकार पड़ाव पर पड़ाव पार करते हुये अपने निर्धारित लक्ष्य तक जा पहुँचिये। किसी बड़े लक्ष्य का पाने का यही एक तरीका है।

इसके विपरीत जो अपने लक्ष्य पथ को पड़ावों में बाँटे बिना ही एक अभियान में ही लक्ष्य को पा लेना चाहते हैं निश्चय ही वे अपने मन्तव्य में सफल न हो सकेंगे। निदान उनके जीवन में कटुता का समावेश होगा और वह एक उलझन भरी समस्या बन जायेगा।

आपका लक्ष्य क्या है? वास्तव में आप चाहते क्या हैं, इसका स्पष्ट ज्ञान रहना भी बहुत जरूरी है। लक्ष्यहीन जीवन भी बहुत बड़ी उलझन है। जिनका लक्ष्य स्पष्ट नहीं है किन्तु हृदय में चाहना उठती रहती है वह वास्तव में चाहता कुछ भी नहीं है। उसे मात्र मनोरथ करते रहने का व्यसन हुआ करता है। इस प्रकार मनोरथी व्यक्ति आज यदि इस ओर बढ़ना चाहता है, तो कल दूसरी ओर। यदि आज वह व्यवसायी बनना चाहता है तो कल एक बड़ा अधिकारी। आज यदि साहित्यकार बनने की इच्छा है तो कल राजनीति में स्थान पाने की कामना करने लगता है। आज यदि यशवान बनने का मनोरथ करता है तो कल धनवान बनने का। ऐसे इच्छाशील व्यक्ति का कोई एक लक्ष्य नहीं होता। वह इसी प्रकार कटी पतंग की तरह हवा के रुख पर तैरता हुआ अपने बहुमूल्य जीवन को व्यर्थ में उलझाता-सुलझाता हुआ खो दिया करता है।

लक्ष्यवान व्यक्ति वास्तव में वही कहा जायेगा जिसका एक सुनिश्चित लक्ष्य हो और जिसकी सारी शक्ति एकाग्र होकर उसे पाने के लिए क्रमबद्ध अभियान में लगी हो। ऐसे लक्ष्यवान अथवा इच्छाशील व्यक्तियों की जिन्दगी उलझन बनकर नष्ट नहीं होती। अन्यथा जो नित्य नये स्वप्न देखने और उन्हें पाने के लिये लालायित भर होता रहता है वह कभी यह अनुभव ही नहीं कर सकता कि जिन्दगी एक साफ सुलझी हुई पहेली है,वह एक ऐसा सीधा सरल राजपथ है जिस पर आनन्दपूर्वक चलकर अपने इच्छित गन्तव्य पर पहुँचा जा सकता है। जो अपने लक्ष्य के प्रति अनजान, पथ के प्रति अपरिचित तथा गतिविधि से अनभिज्ञ है उसकी जिन्दगी उलझन भरी पहेली के सिवाय और क्या बन सकती है।

लक्ष्य, पथ, शक्ति, सम्बल, क्रम तथा गतिविधि सब अनुरूप होने पर भी यदि धैर्य एवं स्वयं की कमी है तब भी उसका जीवन समस्या बने बिना न रह सकेगा। मंजिल-मंजिल पार करते हुये चलने पर भी यह निश्चित नहीं कहा जा सकता कि आप के क्रमिक प्रयास सफल ही होते जायेंगे। हो सकता है कि आप को बीच की एक-एक मंजिल पर अनेक बार असफलताओं का सामना करना पड़े। आपका एक ही पड़ाव उतना समय ले ले जितना कि आपने अपने लक्ष्य के लिये निर्धारित कर रखा हो। ऐसी दशा में आप पर प्रतिगामिनी प्रतिक्रिया हो सकती है। आप निराश एवं हतोत्साहित हो सकते हैं। यदि आप बीच की असफलताओं से निराश अथवा हतोत्साहित हो गये तो आपका वाँछित लक्ष्य दूर हो जायेगा। आपको एक-एक कदम बढ़ना पहाड़ हो जायेगा। एक-एक मील पथ काले कोस में बदल जायेगा।

इस निराशापूर्ण स्थिति से बचने के लिये आपको गीता के निष्काम कर्मयोग का आदर्श लेकर चलना पड़ेगा। जिसके अनुसार आपको अपने कर्तव्य तथा प्रयत्न को ही अपना अधिकार समझना होगा। आपको विश्वास रखना होगा कि परिश्रम एवं पुरुषार्थ ही हमारे वश की बात है उसका फल हमारे अधिकार के बाहर की बात है। सफलता में अखंड विश्वास लेकर असफलता को सहर्ष स्वीकार करने का साहस लेकर चलने वाला धीर पुरुष ही अपने लक्ष्य को पा सकता है। केवल सफलता के लिये उतावले व्यक्ति बहुधा असफल होकर अपने जीवन में असन्तोष के बीज बोकर दुःखी होते हैं।

जीवन एक सुलझा हुआ सरल मार्ग है। इसे अखण्ड प्रसन्नता के साथ पूरा किया जा सकता है। किन्तु यह सम्भव होगा तभी जब मनुष्य अपनी स्थिति में पूर्ण संतुष्ट रहे, अपनी शक्ति सीमा के अनुरूप वांछाएं करे, उन्हें पाने के लिये सम्पूर्ण शक्ति का उपयोग करे और आकस्मिक असफलताओं को अंगीकार करने के लिये साहसपूर्वक तैयार रहे। अनियंत्रित मनोरथ, अस्थिर इच्छायें और केवल सफलताओं की उत्सुक कामना मनुष्य के सुलझे जीवन के निश्चय ही एक उलझी हुई पहेली बना देगा जिसको सुलझाते-सुलझाते उसकी सारी आयु निकल जायेगी और अंत में वह एक भयंकर असन्तोष लिये संसार से विदा हो जायेगा। मानव-जीवन एक अनमोल अवसर की तरह है इसे सफलतापूर्वक सुख-शाँति के साथ जी सकना स्वयं एक बड़ी सफलता है जिसे पाने के लिये प्रत्येक व्यक्ति को शक्ति भर प्रयत्न करना ही चाहिये।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118