अकेला चल अकेला?

September 1964

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क्या आप उस स्थान पर खड़े हैं जहाँ सभी ने आपका साथ छोड़ दिया है, आप से मुंह मोड़ लिया है, आपसे नाता तोड़ लिया है? तो निराश होने अथवा घबराने की आवश्यकता नहीं है। आपसे पहले भी अनेकों नर नाहर अकेले चल चुके हैं। अपने पैरों पर जीवन की यात्रा तय कर चुके हैं। आप अकेले हैं यह अनुभव कर लेना आपके लिए वरदान सिद्ध होगा। इसका सदुपयोग कीजिए।

महात्मा कन्फ्यूशियस ने कहा है- “महान् व्यक्ति जो चीज ढूँढ़ते हैं वह उन्हें अपने ही अन्दर मिलती है जब कि कमजोर दूसरों का मुँह ताका करते हैं।” अपने ऊपर निर्भर रहकर ही मनुष्य जीवन में किसी सत्य का साक्षात्कार कर सकता है कुछ प्राप्त कर सकता है। अन्य लोगों को अपने से ही फुरसत नहीं। सचमुच दूसरों का मुँह ताकने वाले व्यक्ति को अपनी सफलता, आशा आकाँक्षाओं के लिए निराश ही रहना पड़े तो कोई नई बात नहीं। किसी भी क्षेत्र में सच्ची और स्थाई सफलता मनुष्य अपने ही प्रयत्नों से प्राप्त कर सकता है। महान् बनने वाले और साधारण व्यक्तियों में यही अन्तर है कि एक अपनी शक्ति क्षमता पर भरोसा रखकर अपने बल पर जीवन यात्रा पूरी करता है। दूसरा अन्य लोगों का पिछलग्गू बनकर दूसरों का सहारा पकड़ता है। लेकिन परिणाम में महान् व्यक्ति जीवन की उच्च मंजिल तक पहुँच जाते हैं तो अन्य परावलम्बी लोग बीच में ही लटके रह जाते हैं। वे किधर के भी नहीं रहते।

प्रसिद्ध विद्वान इब्सन ने कहा है-”संसार में सबसे शक्तिशाली मनुष्य वही है जो अकेला (आत्म-निर्भर) है।” कमजोर वही हैं जो दूसरों का मुँह ताका करता है, दूसरों के ऊपर आशा लगाए बैठे रहते हैं। साथ ही परावलम्बी व्यक्तियों को, दूसरों के सहारे चलने वाले लोगों को अपने जीवन का बहुत अधिक समय नष्ट करना पड़ता है जबकि नेपोलियन के शब्दों में “जो अकेले चलते हैं वे तेजी से बढ़ते हैं।”

मनुष्य को दो प्रकार से शिक्षा मिलती है एक दूसरों के कहने सुनने, अथवा पुस्तकों के पढ़ने पर दूसरी शिक्षा मनुष्य स्वयं जीवन और जगत की खुली पुस्तक से, अपने अनुभवों से सीखता है। लेकिन दूसरे प्रकार की शिक्षा ही स्थायी और ठोस होती है। पहले प्रकार की शिक्षा केवल ऊपरी सहायता मात्र कर पाती है। यही कारण है कि आजकल ऊँची से ऊँची बातें कही जाती हैं पुस्तकों में पढ़ाई जाती हैं। लेकिन लोगों का उससे कोई विशेष भला नहीं होता। उन सबसे भी वही व्यक्ति लाभ उठा सकता है जो स्वयं निर्माण की बुद्धि का प्रयोग करता है। कई बार तो यह ऊपरी शिक्षा मनुष्य को भ्रम में डालने का कारण भी बन जाती है।

अस्तु चाहे व्यापार हो या शिक्षा उद्योग-आविष्कार उपार्जन के सभी क्षेत्रों में वही मनुष्य आगे बढ़ सकता है जिसमें अपने अकेलेपन को समझने, उसका प्रयोग करने की क्षमता होती है। जिसने अकेलेपन का रहस्य समझ लिया, वही आगे बढ़ेगा।

कभी आपने विचार किया है कि आपके अकेले में भी एक महान शक्ति निवास करती है ऐसी महान् शक्ति जो संसार को हिला सकती है। और इसी के बल पर अकेला व्यक्ति शक्तिमान, निर्द्वंद्व, रह सकता है। वह है आत्मा की शक्ति। वेद के ऋषि ने कहा है - “अहमिन्द्रो न पराजिग्ये” मैं आत्मा हूँ मुझे कोई हरा नहीं सकता। “आत्मशक्ति पर विश्वास रखने वाले व्यक्ति को मृत्यु भी नहीं डरा सकती।” “तमेव विद्वान् न विभाय मृत्योः।” “उस आत्मा को जान लेने पर मनुष्य मृत्यु से भी नहीं डरता।”

आप अकेले हैं। तब संसार के सब सहारों की आशा छोड़कर अपनी आत्मा का अवलम्बन लें। अपनी आत्मा की ज्योति को अपना पथ- प्रदर्शक बनावें। शास्त्रकार ने कहा है- “अन्तः शरीरे ज्योतिर्मयोहि शुभ्रो....... अन्तर में विराजमान ज्योतिर्दीप ही मनुष्य का पथ-प्रदर्शन करता है।” इसलिए “आत्मदीपो भव” अपने दीपक आप बनें। उस आत्मज्योति पर विश्वास रक्खें जो आपके अंदर में अखण्ड रूप से जल रही है। इस ज्योति के सिवा अन्य कोई आपको सही-सही प्रकाश नहीं दे सकती। जब भी आप अकेले हों, आप किसी कठिनाई में भटक रहे हों समस्या में उलझ रहे हों तब अन्तःज्योति के प्रकाश में जीवन का पथ ढूंढ़ें। इधर-उधर न भटकें। आपके लिए अनुकूल, हितकर, श्रेयस्कर मार्ग दर्शन आपकी आत्म-ज्योति से ही मिल सकेगा, बाहर से नहीं। गीताकार ने इसी तथ्य पर जोर देते हुए कहा है--

“उद्धरेदात्मनाऽ--ऽत्मानं नात्मानभवसादयेत्।”

हम स्वयं ही अपना उद्धार कर सकते हैं। अन्य कोई नहीं। इसे हृदय में पक्की तरह अंकित कर लें। अकेले ही आगे बढ़ने के लिए पथ संधान करने के लिए आपको अपनी आत्मा पर विश्वास करना होगा उसे ही अपना सर्वस्व समझना होगा। अपने आत्म स्वत्व को भुला देने वाला व्यक्ति अधिक दिन नहीं चल सकता, उसे संसार नष्ट कर डालता है। आत्म- शक्ति को समझने जानने उसे बढ़ाने के लिए उन सभी बुरे कर्मों से बचना होगा जो हमारे अन्तर्बाह्य जीवन को कलुषित करते हैं। इसके लिए सबसे बड़ी आवश्यकता है संयम की। संयमी ही स्वावलम्बी हो सकता है।

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्वावलम्बी बनने का प्रयत्न करें। कर्म क्षेत्र में व्यावहारिक जीवन में आप अपना जितना बोझ अपने ऊपर उठायेंगे उतने ही आपके ‘अकेले’ की शक्ति बढ़ती जायगी, उतनी ही आपकी क्षमतायें उर्वर होंगी। अपने प्रत्येक कार्य को स्वयं पूर्ण करें। किसी भी काम को दूसरे पर न छोड़ें। दूसरे के सहारे की आशा तनिक भी न रखें। अपने लिये ऐसे कार्यों का चुनाव करें जिन्हें आप स्वयं अपने बल बूते पर पूरा कर सकें। दूसरों के भरोसे कल्पना के बड़े - बड़े महल न बनावें। बालकों की तरह दूसरों के कंधे पर चढ़कर चलने की वृत्ति का त्याग करें। दूसरों के बलबूते आपको स्वर्ग का भी राज्य, अपार धन सम्पत्तियों का अधिकार, उच्च पद प्रतिष्ठा भी मिले तो उसे ठुकरा दें। अपने आत्म- सम्मान के लिए, अन्तर्ज्योति को प्रज्ज्वलित रखने के लिए, स्वावलम्बी बनने के लिए। अपने प्रयत्न से आप छोटी - सी झोंपड़ी में रहकर, धरती पर विचरण करके, मिट्टी खोदकर कड़ा जीवन भी बिता लेंगे तो वह बहुत बड़ी सफलता होगी, आपके अपने लिए। इससे आपके अकेले के स्वत्व में वह शक्ति क्षमता पैदा होगी जो किसी भी वरदान प्राप्त शासक, पदाधिकारी, सम्पत्तियों के स्वामी को दुर्लभ होती है।

जगत के कोलाहल के बीच, तथाकथित अपने कहाने वालों के बीच, साथियों के बीच भी अपने अकेलेपन को न भूलिए। जगत के व्यवहार के बीच भी अपने को अकेला समझने का अभ्यास अवश्य करते रहें। नियमित रूप से आप ऐसा समय निकाल सकते हैं जब अपने अकेलेपन पर आप विचार कर सकें। अपनी अन्तर्ज्योति से सान्निध्य प्राप्त कर सकें। उस पर विश्वास कर सकें।

लेकिन यह भी ध्यान रखने की बात है कि अकेले चलने का अर्थ व्यक्तिवादी स्वार्थी होना नहीं है, तो अहंकारी बनना भी नहीं। जहाँ व्यक्तिवाद और अहंकार पैदा हुआ कि मनुष्य अपने श्रेयपथ से भटक जाता है गलत काम कर बैठता है जो उसे पतन की ओर अग्रसर कर देते हैं। अकेलेपन का अर्थ लोक- व्यवहार को तोड़ बैठना अथवा सामाजिक उत्तरदायित्व से आँख मूँद लेना, परस्पर सहयोग सहायता मेल - जोल से हाथ धो बैठना भी नहीं है। अकेले स्वत्व का अर्थ है मनुष्य जीवन और जगत में विचरण करने के लिए बाह्य वस्तु, पदार्थों पर दूसरे लोगों की सहायता पर ही अवलम्बित न रहें। वरन् उसकी इस यात्रा का शक्ति स्रोत उसके अन्तर से बहे। अन्तःप्रेरणा पर चलने वाले ही सफल होते हैं। बाह्य अनुभव, ज्ञान, दूसरों के दृष्टिकोण विचारों को हेय समझने की गुंजाइश नहीं है यहाँ आवश्यकता इस बात की है कि बाह्य ज्ञान, अनुभव, विचारों को अन्तर्दीप के प्रकाश में देखें। आँख मूँद कर उनको न मान लें। इस तरह स्वतन्त्र निर्णय करने वाला व्यक्ति ही जीवन में सही तथ्य तक पहुँच सकता है।

जीवन में अकेले चलने की क्षमता पैदा करें। क्योंकि एक न एक दिन आपको अकेले ही चलना होगा। कोई भी अपने कन्धों पर आपको मंजिल तक नहीं पहुंचा सकता। परावलम्बी,पराधीन, पिछलग्गू का भी कोई जीवन है? प्रकृति ने आपको स्वतन्त्र बुद्धि दी है, स्वतन्त्र शरीर दिया है। ऐसी शक्तियाँ दी हैं जो किसी दूसरे के सहारे काम नहीं करती। अपनी इन मौलिक शक्तियों, क्षमताओं का उपयोग कीजिए, स्वतन्त्र जीवन बिताइए, स्वावलम्बी बनिए। इसी में आपका गौरव है, शान है, आपका स्वत्व है।


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