भारतीय-संस्कृति महान है

September 1964

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यद्यपि संस्कृति सम्पूर्ण मानव समुदाय के विकास क्रम की सम्यक् चेष्टाओं का भण्डार है और इसीलिए इसे किसी सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता तथापि स्थान विशेष पर यदि इस तरह के विकास की कोई लम्बी परम्परा रहती है तथा उसमें अपनी कोई विशेषता होती है तो उसका नाम स्थान विशेष से जुड़ जाता है। अरबी घोड़ा, नागौरी बैल, लखनवी खरबूजा, मगही पान आदि नामकरण इन वस्तुओं के उत्पत्ति स्थान से इसलिए जुड़े हुए हैं कि वहाँ इनमें अपनी एक विशेषता है। इसी तरह की विशेषताओं के कारण संस्कृति का भी नाम करना होता है। “भारतीय संस्कृति” यद्यपि विश्वमानव की संस्कृति है सम्पूर्ण मानव समुदाय के विकास में आदि काल से इसका महत्वपूर्ण योगदान रहा है तथापि भारत भूमि में, जो एक ओर हिमालय की पर्वत मालाओं से तथा तीन ओर समुद्र से घिरी हुई है, विकास करने वाले समाज ने जीवन जीने की, अपने आचार- विचारों की, सामाजिक व्यवस्थाओं की, ज्ञान-विज्ञान की जो विशिष्ट प्रणाली विकसित की है वही भारतीय संस्कृति है। इसकी अपनी विशेषतायें हैं। अपना इतिहास है अपनी गाथा है। भारत के कोटि- कोटि जनों में चाहे उनकी उपासना पद्धति, खान-पान, जीवनचर्या भिन्न भिन्न हो सकती है किन्तु भारतीय संस्कृति का प्रवाह सरलता से देखा जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है। क्योंकि वैदिक काल से लेकर अब तक यह प्रवाहमान धारा की तरह हमारे जीवन को स्पर्श करती आ रही है, हमें प्रेरणा देती रही है।

भारतीय संस्कृति की महत्ता और विशेषता को व्यक्त करते हुए बापू ने लिखा है -- “मेरा तो यह निश्चित मत है कि दुनिया में किसी भी संस्कृति का भण्डार इतना भरा पूरा नहीं है जितना हमारी संस्कृति का।”

मैक्समूलर ने कहा है --- “मनुष्य के मस्तिष्क में जीवन के सबसे बड़े सिद्धाँत और सबसे बड़ी युक्तियाँ भारतवर्ष ने ही खोज निकाली हैं।” उन्होंने तो भारतीय संस्कृति का गुण-गान करते हुए यहाँ तक लिख दिया है -- “यदि मुझ से पूछा जाय कि आकाश के नीचे मानव मस्तिष्क ने कहाँ मुख्यतम गुणों का विकास किया, जीवन की महत्वपूर्ण समस्याओं पर सबसे अधिक गहराई से सोच-विचार किया और ऐसे महत्वपूर्ण तथ्य खोज निकाले जिनकी ओर उन्हें भी ध्यान देना चाहिए जो प्लेटो और कान्ट के अनुयायी हैं, तो मैं भारतीयों की ओर ही संकेत करूंगा।”

“ यदि मैं अपने आप से पूछूँ कि हम यूरोपीय किस संस्कृति का आश्रय लेकर वह सुधारक वस्तु प्राप्त कर सकते हैं जिसकी कि हमें अपने जीवन को अधिक सार्थक महत्वपूर्ण विस्तृत और व्यापक बनाने में आवश्यकता है, न केवल इस जीवन के लिए अपितु बदले हुए अनन्त जीवन के लिए, तो मैं फिर आपको भारत की ओर ही संकेत करूंगा।”

काउन्ट जोन्स जेनी के शब्दों में -- “भारतवर्ष केवल हिन्दुओं का ही घर नहीं, वरन् वह संसार की सभ्यता और संस्कृति का आदि भण्डार है।”

भारतीय संस्कृति ऐसे गुरु गम्भीर सत्यों पर आधारित है जिनकी विश्व मानव को सदा- सदा आवश्यकता रहेगी। और इसीलिए भारतीय संस्कृति सदा-सदा अजर - अमर रहेगी। राष्ट्र मिटते रहेंगे, सभ्यतायें बदलती रहेंगी, जातियों का स्वरूप भी नष्ट होता रहेगा, सामाजिक व्यवस्थाएं बदलती रहेंगी लेकिन भारतीय संस्कृति अपनी महान विशेषताओं का सन्देश सदा सुनाती रहेगी।

संसार का कोई भी तो विषय नहीं है जो हमारी संस्कृति से अछूता रहा हो आज जो कुछ भी विश्व में वर्तमान है उसका सूत्रपात, श्रीगणेश भारतीय संस्कृति से ही हुआ ऐसा इतिहास के विद्वान बताते हैं।

प्रसिद्ध इतिहासज्ञ प्रो. बेवर ने कहा है कि अरब में ज्योतिष विद्या का विकास भारतवर्ष से हुआ। डॉ. पीबो ने लिखा है- संसार रेखा गणित के लिए भारत का ऋणी है यूनान का नहीं। कोलबुक ने कहा है- भारतवर्ष ने ही चीन और अरब को ज्योतिष शास्त्र और अंकगणित दिया ।

‘यूरोप के प्राचीन इतिहास’ में लिखा है - “दर्शन विज्ञान और सभ्यता सम्बन्धी सारी बातें यूनान ने भारत से सीखीं और यहाँ से वे सारे संसार में फैली। अरब और यूरोप में जो ज्ञान का प्रकाश फैला वह भी भारत से ही। वर्तमान भूगोल, इतिहास और पुराने चिन्हों की खोज स्पष्टतया प्रकट करती है कि भारतीयों ने कला-कौशल ज्ञान- विज्ञान का प्रचार पश्चिम के देशों में जाकर किया।”

प्रो. लुई रिनाड ने लिखा है- “संसार में भारतवर्ष के प्रति लोगों का प्रेम और आदर, उसकी बौद्धिक नैतिक और आध्यात्मिक सम्पत्ति के कारण ही है।”

प्रसिद्ध विद्वान रोम्या रोलाँ ने कहा है -”अगर संसार में कोई एक देश है जहाँ जीवित मनुष्य के सभी सपनों को उस प्राचीन काल से जगह मिली है , जब से कि मनुष्य के अस्तित्व का सपना प्रारम्भ हुआ, तो वह भारत है।”

ज्ञान-विज्ञान, कला - कौशल, युद्ध - विद्या विभिन्न वस्तु पदार्थ, प्रणालियों का सर्व-प्रथम भारत से ही सूत्रपात हुआ। डफ ने लिखा है -- “भारतीय विज्ञान इतना विस्तृत है कि यूरोपीय विज्ञान के सब अंग वहाँ मिलते हैं।”

कर्नल रश ब्रुक विलियम ने कहा है- “सीसे की गोलियों और बन्दूकों के प्रयोग का वर्णन विस्तार से यजुर्वेद में मिलता है। भारत में वैदिककाल में ही बन्दूक तोपों का प्रचलन हो गया था।”

भारतीय संस्कृति के बारे में अपना मत प्रकट करते हुए मि. डेलमार (न्यूयार्क) ने लिखा है - “पश्चिमी संसार जिन बातों पर अभिमान करता है वे असल में भारतवर्ष से ही वहाँ गई हैं। और तो और तरह- तरह के फल-फूल, पेड़-पौधे, जो इस समय यूरोप में पैदा होते हैं हिन्दुस्तान में लाकर वहाँ उगाये गये थे। मलमल रेशम, घोड़े, टीन इनके साथ -साथ लोहा ओर सीसे का प्रचार भी यूरोप में भारत से ही हुआ। केवल इतना ही नहीं ज्योतिष, वैद्यक अंकगणित, चित्रकारी ओर कानून भी भारत वासियों ने ही यूरोप को सिखलाया। “

भारतीय संस्कृति ने संसार को वस्तु पदार्थ आदि बाहरी ज्ञान विज्ञान ही विश्व को नहीं दिया अपितु मानव - जीवन एक चिरन्तन सत्य, मूल रहस्य उससे सम्बन्धित आत्म-ज्ञान की महान देन भी दी। पदार्थों के स्थूल विज्ञान से अधिक अन्वेषण हमारे यहाँ आध्यात्म विज्ञान में हुआ और तत्सम्बन्धी जो कुछ भारत ने विश्व को दिया उसका वह सदा-सदा ऋणी रहेगा।

भारतीय संस्कृति के प्रवाह का उद्गम वे चिरन्तन शाश्वत और सनातन सत्य रहे है, जिनकी अनुभूति महान आर्य जाति के ऋषियों ने अपने तप के द्वारा की थी।

विक्टर कोसिन लिखते हैं -- “जब हम पूर्व शिरोमणि भारत की साहित्यिक एवं दार्शनिक कृतियों का अवलोकन करते हैं तब हमें ऐसे गंभीर सत्यों का पता चलता है जिनकी उन निष्कर्षों से तुलना करने पर जहाँ पहुँचकर यूरोपीय प्रतिभा कभी - कभी रुक गई है, हमें पूर्व के तत्वज्ञान के आगे घुटने टेक देना पड़ता है।”

फ्रेडरिक शेलिंग ने कहा है -- “भारतीय आध्यात्मवाद के प्रचुर प्रकाश पुँज की तुलना में यूरोपवासियों का उच्चतम तत्वज्ञान ऐसा ही लगता है जैसे मध्याह्न सूर्य के व्योम व्यापी प्रताप की पूर्ण प्रखरता में टिमटिमाती हुई अनलशिखा की कोई आदि किरण, जिसकी अस्थिर और निस्तेज ज्योति ऐसी हो रही हो मानो अब बुझी कि अब बुझी।”

खेद का विषय है कि हम भारतवासी अपनी इतनी महान, व्यापक, समर्थ संस्कृति को आज भूल गये। इसका परिणाम यह हुआ कि संसार की गति से हम पिछड़ गये। हमारे यहीं से गए हुए ज्ञान - विज्ञान को आधार बनाकर विश्व की बहुत सी जातियाँ हमसे आगे बढ़ गईं। भारतीय संस्कृति के मूल भूत सत्यों को भुलाकर हमने पतन का मार्ग अपनाया। भारतीय जीवन समाज का पिछड़ापन, अविकसितता तब तक नहीं मिट सकेगी जब तक हम अपनी संस्कृति के गौरव को नहीं समझेंगे। उसके सत्यों को जीवन में न उतारेंगे। उनके सम्बन्ध में अन्वेषण अनुसन्धान जो सदियों से बन्द हो गये हैं शुरू नहीं करेंगे। आज भारतीय समाज का सबसे बड़ा कर्तव्य है अपनी संस्कृति का उद्धार करना, उसको विकास की दिशा प्रदान करना। हम सभी को इसी चुनौती को स्वीकार करने के लिए तत्पर होना चाहिए।


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