वह कार्य जो हमें करना ही होगा

September 1964

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नव निर्माण के लिए अनेक रचनात्मक प्रवृत्तियों को प्रचलित और विकसित करने की आवश्यकता पड़ेगी। साथ ही कुरीतियों, अनैतिकताओं और अन्ध मान्यताओं के विरुद्ध संघर्ष भी आरम्भ करना होगा। दूध में से मक्खन निकालने के लिए ‘रई’ को उल्टी तथा सीधी ओर दोनों ही तरह घुमाना पड़ता है। उसी प्रकार एक ओर हमें निर्माणात्मक कार्यों के लिए प्रयत्न करना होगा तथा दूसरी ओर अवाँछनीयता पर प्रहार करना होगा। झाड़ झंखाड़ों को उखाड़कर ही सुरम्य उपवन लगाये जाते हैं यही नीति हमें भी अपनानी होगी।

किन्तु इससे पूर्व यह आवश्यक है कि इन दोनों कार्यों के लिए अभीष्ट शक्ति संग्रह कर ली जाय। यह शक्ति जन संगठन की ही हो सकती है। संघशक्ति के बिना लोक -मानस का परिष्कार कर सकना सम्भव न होगा। दोनों प्रकार के रचनात्मक और ध्वंसात्मक - कार्यक्रम जन-शक्ति के आधार पर ही सम्पन्न होंगे। अतएव हमारा प्रारम्भिक प्रयास यह है कि अपने छोटे से कुटुम्ब को- अखण्ड-ज्योति परिवार को - एक सुगठित संगठन के रूप में विकसित कर लिया जाय और फिर उन योजनाओं को इस छोटे क्षेत्र में प्रारम्भ किया जाय जिन्हें आगे चलकर देशव्यापी एवं विश्वव्यापी बनाना है।

संगठन के मूल में कोई दिशा, प्रेरणा, आस्था एवं कार्य पद्धति होनी चाहिये। ‘अखण्ड-ज्योति’ नियमित रूप से पढ़ने वालों की विचारधारा, आस्था, अभिरुचि एवं कार्य-प्रणाली एक विशेष दिशा में ढलती है, यह निश्चित है। इस पत्रिका के पृष्ठों पर जो ज्वलन्त प्रेरणाएँ बिखरी पड़ी रहती हैं वे पाठक की मनोभूमि पर एक गहरा प्रभाव डालती हैं यह अनुभव सिद्ध तत्व है। इस लिए युग -निर्माण जैसे महान् कार्य का शुभारम्भ करने के लिए सर्वप्रथम उन लोगों को लिया गया है जो इसके आवश्यक मनोभूमि उपलब्ध कर चुके हैं। अखण्ड-ज्योति के पाठकों को इसी श्रेणी के विशिष्ट व्यक्तियों में माना जा सकता है। अतएव इस महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए सर्व प्रथम उन्हें ही संगठित एवं शृंखलाबद्ध किया गया है।

अखण्ड-ज्योति के सदस्यों को ही युग -निर्माण का सदस्य माना गया है। इन तीस हजार व्यक्तियों को सुसंगठित करना हमारा प्राथमिक एवं आधारभूत कार्य है। जहाँ, जितने अखण्ड-ज्योति के सदस्य हैं, उन्हें इकट्ठे होकर एक शाखा के रूप में परिणत हो जाना चाहिए और पाँच व्यक्तियों की एक कार्य समिति उन्हीं में से चुन लेनी चाहिए। उन्हीं में से एक शाखा संचालक चुना जाय। यह अनुरोध गत कई महीनों से किया जाता रहा है। कितनी ही जगह संगठन बन भी गये हैं, पर अब यह आवश्यक समझा गया है कि जहाँ भी अखण्ड-ज्योति के सदस्य हैं, वहाँ इसी महीने संगठन कार्य पूरा कर लिया जाय। युग-निर्माण योजना का द्वितीय वर्ष आरम्भ होते ही पहला काम हमें यही पूरा कर लेना है। सन्तोष की बात है कि गुरु पूर्णिमा के दिन सैकड़ों स्थानों पर शाखाओं की विधिवत् स्थापना हो गई। पाँच व्यक्तियों की कार्य समितियाँ बन गई और एक शाखा संचालक नियुक्त हो गया। इन स्थापनाओं के संवाद युग-निर्माण योजना पाक्षिक में छपेंगे। जहाँ अभी तक इस प्रकार का संगठन नहीं बना है, वहाँ अब इस अगस्त मास में उसे पूरा कर लिया जाना चाहिए। इन पंक्तियों के द्वारा प्रत्येक अखण्ड-ज्योति परिजन से हमारा आग्रहपूर्वक अनुरोध है कि संगठन की उपेक्षा न की जाय। इस युग की सबसे बड़ी शक्ति संगठन है। जहाँ जितने अखण्ड-ज्योति के सदस्य हैं वे इसी महीने संगठन सूत्र में आबद्ध हो जायेंगे, ऐसी आशा है।

हमारा कार्य है- शाखा कार्यालय की- युग -निर्माण केन्द्र की स्थापना। इसके लिए एक नियत स्थान निश्चित कर लेना चाहिए, सदस्य - गण समय - समय पर जहाँ इकट्ठे होते रहें, परस्पर प्रेम - भाव बढ़ाते रहें और आगे स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार क्या गतिविधियाँ अपनाई जायें, उसका निश्चय करते रहें। इतना प्रारम्भिक कार्य पूरा हो जाने पर आगे के लिए कुछ ठोस कार्य भी हो सकने की आशा की जा सकती है। जड़ जमेगी तो पत्ते भी निकलेंगे। जहाँ जड़ ही न होगी, वहाँ पत्तों की क्या आशा? जहाँ संगठन का स्वरूप और स्थान सामने आ जाता है, वहाँ निश्चित रूप से कुछ कार्य भी होने लगता है।

स्थापना के उपरान्त जो रचनात्मक कार्य सर्व प्रथम आरम्भ करना है, वह है - युग निर्माण पुस्तकालय की स्थापना। इसके लिए सदस्य-गण परस्पर मिल-जुलकर कम से कम पाँच रुपया मासिक का चन्दा होते रहने की व्यवस्था कर लें। इस धन से युग-निर्माण उद्देश्यों की पूर्ति करने वाली पुस्तकें मँगानी आरम्भ कर देनी चाहिएं। प्रारम्भ में कुछ अधिक चन्दा इकट्ठा हो सकता हो तो वैसा करना चाहिए, ताकि शुरुआत में कुछ अधिक साहित्य मँगाया जा सके।

इस पुस्तकालय की यह विशेषता होगी कि परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने मित्रों, स्वजनों, परिचितों के घरों पर इस साहित्य को पहुँचाने और वापिस लाने के लिए एक स्वयं-सेवक की तरह- धर्म -प्रचारक की तरह समय दान - श्रम दान भी करे। आज लोगों में एक तो वैसे ही पढ़ने की रुचि नहीं, जो पढ़ते हैं वे मनोरञ्जन के लिए ओछा साहित्य पढ़ते हैं। जीवन निर्माण के लिए विचारोत्तेजक पुस्तकें आम तौर से लोगों को रूखी लगती हैं। उनकी ओर अभिरुचि एवं आकर्षण पैदा करना साधारण नहीं, असाधारण कार्य है।

पुस्तकालय स्थापना का उद्देश्य तभी पूरा होगा, जब अभिरुचि उत्पन्न करने के लिए सदस्य - गण प्राण से प्रयत्न करें। लोगों के घरों पर जा -जाकर - दर-दर की ठोकरें खाकर, युग -निर्माण साहित्य पढ़ने के लिए आकर्षण पैदा करें। प्रयत्न करने पर एक सदस्य एक महीने में एक नये व्यक्ति में इस प्रकार की अभिरुचि अवश्य पैदा कर सकता है। शाखा में यदि दस सदस्य हों और वे वर्ष में बारह न सही, दस ही नये व्यक्तियों को सत्साहित्य पढ़ने की -- स्वाध्याय की अभिरुचि उत्पन्न करने में सफल हो सकें तो यह दस व्यक्तियों का प्रयत्न सौ नये व्यक्तियों को योजना की भावनाओं से प्रभावित कर सकता है। उन्हें योजना का सहायक माना जा सकता है। आगे चलकर यह ही सदस्य बन सकते हैं और अपना संगठन दस से बढ़कर सौ का हो सकता है। जिस शाखा में सौ सदस्य हों, सो भी भावनाशील और विचारशील, तो यह निश्चित है कि वे उस नगर के लिए एक अग्रिम पंक्ति का नेतृत्व उपस्थित कर सकेंगे और जनता को अपनी विचारणा, योजना एवं कार्य-पद्धति से आशाजनक सीमा तक प्रभावित कर सकते हैं।

प्रगति के इतने चरण जो शाखा पार कर लेगी, वह एक प्रचण्ड शक्ति के रूप में प्रकट होगी और आगे चलकर नव-निर्माण के महान अभियान में ऐतिहासिक भूमिका प्रस्तुत करेगी। अखण्ड-ज्योति के सदस्यों से गुरु पूर्णिमा की श्रद्धाँजलि के रूप में यही योजना की गई है। जिनमें कुछ जीवट हो वे इतना कर डालने के लिए उठ खड़े हों। कार्य बहुत सरल है। कठिनाई केवल अपने आलस्य, संकोच और अनुत्साह की है। इन तीनों को हटाकर आज की महत्वपूर्ण घड़ी में कुछ कर गुजरने की आशा उन सब स्वजनों से की जा रही है, जिनमें जीवन का अंश मौजूद है। विश्वास यही है कि यह आशा पूर्ण होगी।


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