युग -निर्माण का सत्साहित्य

September 1964

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जिसे प्रत्येक घर में, प्रत्येक पुस्तकालय में रहना ही चाहिए

परिवार की पूँजी और प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए लोग जमीन, जायदाद, व्यवसाय, सोना, चाँदी आदि बनाते और बढ़ाते हैं। शरीरों और मनों के सुख के साधन जुटाते हैं। इसी तरह यह भी आवश्यक है कि परिवार के सदस्यों की मनोभूमि को विकसित, दृष्टिकोण को परिष्कृत, विवेक को जागृत, जीवनक्रम को व्यवस्थित और गतिविधियों को सुसंस्कृत बनाने के साधन भी जुटाये जायें।

जिस प्रकार धन मनुष्य के बाह्य जीवन की आवश्यकताएं पूरी करता है उसी प्रकार आन्तरिक जीवन की आवश्यकताएं ज्ञान से पूरी होती हैं। धन की तरह ही मनुष्य जीवन में सद्ज्ञान का भी महत्व है। प्रत्येक विवेकशील व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह भौतिक जीवन को अभावग्रस्त न रहने देने के लिए जिस प्रकार धन उपार्जन करता है, उसी तरह आन्तरिक जीवन को सुसंस्कृत बनाने के लिए सद्ज्ञान का संग्रह करता रहे। मनुष्य शरीर ही नहीं आत्मा भी है, इसलिए उसको केवल शरीर के बारे में ही नहीं कुछ आत्मा के बारे में भी सोचना चाहिए और आत्मिक प्रगति के लिए भी कुछ करना चाहिए।

जीवन कैसे जियें? इस प्रश्न का विवेकसंगत उत्तर देना ही सद्ज्ञान का उद्देश्य है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए ‘अखण्ड -ज्योति’ ने युग -निर्माण साहित्य प्रकाशित करना आरम्भ किया है। प्रथम वर्ष में जो पुस्तकें छपी हैं, उनकी सूची अगले पृष्ठ में दी है। इन्हें स्वाध्याय - साहित्य कहना चाहिए। पुस्तकों की एक - एक पंक्ति आशा, स्फूर्ति, साहस और आदर्श की प्रेरणा से ओत -प्रोत रखने का प्रयत्न किया गया है। सभी में बढ़िया 28 पौण्ड ग्लेज कागज, मोनो टाइप की सुन्दर छपाई, कार्ड - बोर्ड के तिरंगे टाइटल पेज तथा 100 पृष्ठ हैं। मूल्य प्रत्येक का एक - एक रुपया रखा गया है। पुस्तकें इतनी सुन्दर और नयनाभिराम बन पड़ी हैं कि उन्हें देखते ही बनता है और पढ़ने में तो वे जादू भरी हैं ही।

हममें से प्रत्येक को अपनी पारिवारिक पूँजी के रूप में एक घरेलू युग- निर्माण पुस्तकालय बनाना चाहिए। जिसमें यह साहित्य रहे। परिवार के स्त्री - पुरुष, बाल - वृद्ध, स्वजन - सम्बन्धी तथा पड़ौसी इन्हें पढ़ा या सुना करें। इससे जीवन - निर्माण की पृष्ठ भूमि तैयार होगी और इस सद्ज्ञान के संपर्क में आने वाला तेजी से मानवता के आदर्श अपनाने के लिये अग्रसर होगा। युग -निर्माण केन्द्रों के सामूहिक पुस्तकालयों के लिए तो यह साहित्य एक अनिवार्य आवश्यकता के रूप में अभीष्ट है।

आप अपनी दैनिक आवश्यकताओं में से कुछ बचाइए और परिवार की सच्ची पूँजी के रूप में घर में युग -निर्माण पुस्तकालय स्थापित कीजिए। इस वर्ष 45 पुस्तकें छपी हैं, अगले वर्षों में भी यह क्रम जारी रहेगा, जिससे पुस्तकालय की पूँजी हर वर्ष बढ़ती रहेगी। यह व्यवस्था भी हमें परिवार की अनिवार्य आवश्यकताओं में ही सम्मिलित कर लेनी चाहिए।

इस प्रथम वर्ष की 44 पुस्तकों का विषयानुसार वर्गीकरण इस प्रकार है :--

हर घर में रहने लायक व नव प्रकाशित पुस्तकें ---

आध्यात्मिक, दार्शनिक एवं साधनात्मक

ईश्वर और उसकी प्राप्ति

अपना उद्धार आप करें

आत्म - कल्याण का राजमार्ग

पंथ अनेक लक्ष्य एक

वेदों का दिव्य सन्देश

जिन्दगी कैसे जिएँ?

आप सर्व शक्तिमान हैं

मनुष्य का मूल्याँकन

आशा की जीवन -ज्योति

विचारों की अलौकिक शक्ति

संकल्प शक्ति के अद्भुत चमत्कार

प्रगति के पथ पर

इन दुर्गुणों को छोड़िए

कविता और गायन

युग सन्देश

युग गायन

युग वीणा

उद्बोधन

दोहा - अंताक्षरी

आरोग्य रक्षा और प्राकृतिक चिकित्सा

आरोग्य रक्षा के रहस्य

क्या खाएँ? कैसे खाएँ?

प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान

कब्ज कैसे दूर हो?

बलवर्धक व्यायाम

शक्ति का स्रोत प्राणायाम

तम्बाकू एक घातक विष है

पारिवारिक समस्याओं का हल

परिवार और उसका निर्माण

मितव्ययी बनिए - सुखी रहिए

सुख शान्तिमय गृहस्थ

सुसंतुलित परिवार

बाल - निर्माण साहित्य

शिशु जन्म से पूर्व

शिशु और अभिभावक

हमारे महान् उत्तराधिकारी

बच्चों को कैसे सुधारा जाए

बच्चे और उनका मनोविज्ञान

बाल विकास की समस्याएं

नव - निर्माण के दर्शन एवं मार्ग

हम बदलें तो दुनिया बदले

समाज की अभिनव रचना

समस्त समस्याओं का एक ही हल

नये युग का सूत्रपात

हमारी युग- निर्माण योजना

कथा, इतिहास और जीवन चरित्र

धर्म पुराणों की सत्कथाएं

चरित्र निर्माण की कथाएं

बड़ों की बड़ी बातें

भारत की महान् विभूतियाँ

संसार के महापुरुष

नोट - प्रत्येक पुस्तक का मूल्य एक रुपया है। 10) रु॰ से अधिक की पुस्तकें लेने पर डाकखर्च माफ । 10) रु॰ से कम की पुस्तकें लेने पर डाक खर्च भी देना पड़ेगा। पूरा सैट मँगाना हो तो अपने रेलवे स्टेशन का नाम भी लिखें। अपना नाम व पता पूरा और स्पष्ट अक्षरों में हिन्दी या अंग्रेजी में लिखना चाहिए।

पता - अखण्ड - ज्योति संस्थान, मथुरा । (यू॰ पी॰)


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles