देश के लिए समाज के लिए

September 1964

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हमारे देश के एक राजनयिक प्रतिनिधि इंग्लैंड गए हुए थे। उस समय वहाँ पैट्रोल पर कन्ट्रोल था। सरकारी कूपन से ही पैट्रोल मिल सकता था। उन्होंने भी सरकारी कार्यालय से कूपन प्राप्त कर लिए और एक टैक्सी किराए पर लेकर अपने काम पर निकले। कई दिनों तक वे अपने काम पर घूमते रहे। जब उन्हें स्वदेश रवाना होना था उनके पास बहुत से कूपन शेष रह गये। उन्होंने अपनी उदारता दिखाते हुए वे कूपन टैक्सी वाले को देते हुए कहा- ये आजकल बड़ी कठिनाई से मिलते हैं। इन्हें रखो काम आएंगे।” यह सुनकर टैक्सी वाले की आँखें चढ़ गईं। गुस्से के साथ वह बोला क्या आपने मुझे इतना नीच समझा है जो मैं चोरी के अनधिकृत कूपनों से लाभ उठाऊँ। जितना पैट्रोल मुझे नियमित रूप से मिलता है मैं उससे तनिक भी अधिक नहीं ले सकता यह तो अपनी सरकार के साथ, अपने देश के साथ धोखा है। क्या आपके यहाँ इसे बुरा नहीं समझा जाता।”

भारतीय राज पुरुष बड़े शर्मिन्दा हुए उन्होंने टैक्सी वाले से क्षमा माँगी। टैक्सी वाले ने आगे कहा- “मैं गत माह 10 दिन बीमार रहा इसीलिये जब पहली तारीख को कूपन लेने गया तो जितने कूपन मेरे पास बचे थे वे अपने कोटे में से कटवा दिए।”

घटना सामान्य-सी लगती है किन्तु उसमें कितनी देश भक्ति, सामाजिक, नागरिक उत्तरदायित्व की भावना सन्निहित है। शायद इसी प्रबल देशभक्ति और राष्ट्रीय भावना के कारण ब्रिटेन ने बड़ी-बड़ी लड़ाइयों में अपना बहुत कुछ गंवाकर भी अपने अस्तित्व को पूर्ववत् कायम रखा अपने देश के गौरव को जीवित रखा।

राजनैतिक दृष्टि से हम स्वतंत्र हो गये लेकिन अभी तक राष्ट्रीय भावना, नागरिक जिम्मेदारियों के प्रति हम सचेत नहीं हो पाये हैं। यही कारण है कि कन्ट्रोल के समय हमारे यहाँ काला बाजार जोरों से चलता है। अनाज के भण्डार भरे रहने पर भी कृत्रिम महंगाई पैदा करके अत्याधिक मुनाफा हम लोग कमाते हैं। और तो और सार्वजनिक निर्माण कार्यों में लगने वाले सामान यथा-सीमेन्ट, लोहा, कोलतार, लकड़ी आदि बहुत-सा सामान चोर बाजारों में बेच दिया जाता है और हमीं लोग सस्ता पाकर उसे खरीद लेते हैं, फिर भारी मुनाफे के साथ उसे बेचते हैं। कई महत्त्वपूर्ण वस्तुएँ, दबा, मशीनें आदि जो बड़ी कठिनाई से प्राप्त विदेशी मुद्रा खर्च करके प्राप्त की जाती हैं हमारे यहाँ वे भी काले बाजार में पहुँच जाती हैं। ऐसी स्थिति में क्या हम एक स्वतन्त्र देश के उत्तरदायी नागरिक कहला सकते हैं?

सन् 1948 की बात है कि हमारे देश के एक केन्द्रीय मन्त्री राष्ट्रमण्डलीय सम्मेलन में भाग लेने इंग्लैण्ड गये थे। सभी प्रतिनिधियों को एक दिन भारत की ओर से दूसरे दिन इंग्लैण्ड की ओर से दावत दी गई। इनमें एक ही कम्पनी की एक ही किस्म की सिगरेटें काम में लाई गई थीं लेकिन दोनों दिन उनके स्वाद में बड़ा अन्तर था। बाह्य फर्क सिर्फ इतना था कि एक दिन काम में लाये गये पैकेट भारत से खरीदे थे जो अच्छे थे दूसरे पैकेट इंग्लैण्ड से ही खरीद कर आये थे। कम्पनी एक ही थी उसकी शाखा भारत में भी थी। पूछने पर ब्रिटेन के प्रतिनिधि ने बताया “महायुद्ध के कारण हमारे तम्बाकू के खेत बहुत नष्ट हो गये। हमारे पास थोड़ी-सी तम्बाकू रही है। उसमें से हम अच्छी किस्म को अलग से निकाल कर विदेशों में जाने वाली सिगरेटों के काम में लाते हैं ताकि बाहर हमारी साख नष्ट न हो। घटिया किस्म की तम्बाकू हम अपने ही देश में उपयोग करते हैं। इसीलिए आपको यह फर्क मालूम पड़ता है।”

कैसी उद्दात्त भावना है अपने देश के नाम व उसकी साख की रक्षा के लिए। यही कारण है कि आज भी इंग्लैण्ड संसार के बाजार में बहुत कुछ छाया हुआ है। वहाँ की बनी चीजें प्रामाणिक और मजबूत समझी जाती हैं। एक हमारे देश का उद्योगपति है जिसका उद्देश्य घटिया वस्तु तैयार करके अधिक मुनाफा कमाना अपना अधिकार और धर्म समझना है। कुछ समय पहले की बात है रूस ने करोड़ों रुपये के जूते इसलिए लौटा दिए क्योंकि वे दिखाए गए नमूने से बहुत ही घटिया किस्म के थे। जब भी हम बाजार में जाते हैं तो कई वस्तुओं की मजबूती, असलियत के बारे में विश्वास ही नहीं होता। कैसी विडम्बना है?

जहाँ एक ओर हमारे कन्धे पर अपनी स्वतन्त्रता का भार है, अपने देश की आन और साख का उत्तरदायित्व है वहाँ हमारी निम्न उत्पादन नीति, मिलावट, नकली सामान तैयार करना क्या एक बहुत बड़ा अपराध नहीं है?

इतना ही नहीं आवश्यकता पड़ने पर देश के लिए अपनी आवश्यकताओं को सीमित बनाना पड़ता है, थोड़े में गुजारा करना पड़ता है। कई वस्तुएं जिनके बिना हमारे जीवन क्रम में कोई विशेष बाधा न पड़े उनका त्याग भी करना पड़ता है। रूस में क्रान्ति हुई। देश प्राचीन सामन्तवादी शासन से मुक्त हुआ। जन- प्रतिनिधि के रूप में लेनिन ने देश की बागडोर अपने हाथों सम्भाली। उसके सामने देश का नव-निर्माण, औद्योगिक विकास का बहुत बड़ा काम था जो मशीनों वैज्ञानिक उपकरणों से ही सम्भव था। यह सब इंग्लैण्ड और अमेरिका के बाजारों में थे। इसके लिए रूस के पास विदेशी मुद्रा की कमी थी। अब रूस के सामने एक ही रास्ता था जंगली जानवर, लकड़ी, खाल, माँस, पनीर आदि पश्चिमी बाजारों में बेचकर विदेशी मुद्रा अर्जित की जाय और उससे मशीनें, उपकरण आदि मँगाये जायें। लगभग दस वर्ष तक रूसी जनता को तुला हुआ भोजन और मोटे कपड़े पर गुजारा करना पड़ा। बिना डॉक्टर के सर्टिफिकेट के किसी को पावभर दूध भी नहीं मिलता था। यहाँ तक कि बीमार प्रिंसक्रो-पाटकिन को भी दूध नहीं मिला था।

निस्सन्देह एक स्वतन्त्र देश के नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि अपने आराम के लिये, वह समाज की शक्ति को दुर्बल न करे। वरन् उसे परिपुष्ट करने के लिए अपनी बहुत सी आवश्यकताओं का स्वेच्छा से त्याग करने के लिए भी उद्यत रहे। आजकल हमारे देश में चीनी का संकट चल रहा है और एक हम हैं कि इस पर भी बड़ी दावतें, प्रतिभोज, शादी, विवाह पर खूब खर्च करते हैं।

जीवन निर्वाह की सीमित आवश्यकताओं के अतिरिक्त भोग-विलास, मौज-मजे, आराम-सुख-चैन की जिन्दगी बिताने के नाम पर हमारे यहाँ कितना अपव्यय होता है, सम्पत्ति, पदार्थों का कितना नाश होता है। लेकिन हम नहीं जानते कि व्यर्थ ही नष्ट किए जाने वाले पदार्थों को, बड़े भारी अपव्यय को रोककर यदि उसे हम राष्ट्र निर्माण की दिशा में लगावें तो कोई सन्देह नहीं कि कुछ ही समय में हमारा देश संसार में समृद्ध देशों की पंक्ति में खड़ा हो सकने योग्य बन जाय। भारत अपने आप में कोई गरीब नहीं है, पहले भी इसे सोने की चिड़िया कहा जाता था और आज भी सम्पदाओं की कोई कमी नहीं है हमारे यहाँ। यदि उत्पादन की उपयुक्त व्यवस्था, खर्च करने का सही ढंग और वस्तुओं का सदुपयोग भली प्रकार हो तो हमारे अभाव सब नष्ट हो जायें। किसी भी कारण हमारे देश के विकास क्रम में गतिरोध पैदा नहीं हो सकता।

एक स्वतन्त्र देश के नागरिक की हैसियत से हमें ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए, जिससे देश कमजोर हो, हमारे समाज की क्षमता नष्ट हो। चोरबाजारी, अधिक मुनाफाखोरी, घटिया उत्पादन, फिजूलखर्ची, वस्तु-पदार्थों का दुरुपयोग ये सभी हमारे लिए कलंक की बात हैं। इनसे देश का सामर्थ्य कमजोर होता है। ये हमारे गौरव और सम्मान के लिए विष हैं। इन्हें तो हमें छोड़ना-ही-छोड़ना है, आवश्यकता पड़ने पर अपना सब कुछ भी देश की समाज की बलिवेदी पर अर्पण करने में नहीं चूकना चाहिए। यही देशभक्ति का सबसे बड़ा तकाजा है।


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