धन्यो गृहस्थाश्रमः

September 1964

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गृहस्थ - धर्म अन्य सभी धर्मों से अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। महर्षि व्यास के शब्दों में “गृहस्थ्येव हि धर्माणा सर्वेषाँ मूल मुच्यते” गृहस्थाश्रम ही सर्व धर्मों का आधार है। “धन्यो गृहस्थाश्रमः” चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम धन्य है। जिस तरह समस्त प्राणी माता का आश्रय पाकर जीवित रहते हैं, उसी तरह सभी आश्रम गृहस्थाश्रम पर आधारित हैं।

परिवार-संस्था सहजीवन के व्यावहारिक शिक्षण की प्रयोगशाला है। इसीलिए कुटुम्ब समाज संस्था की इकाई माना जाता है। गृहस्थ में बिना किसी संविधान, दण्ड-विधान, सैनिक शक्ति के ही सब सदस्य परस्पर सहयोगी सह-जीवन बिताते हैं। माता, पिता, पुत्र, पति-पत्नी, नाते-रिश्तों के सम्बन्ध किसी दण्ड के भय अथवा कानून की प्रेरणा पर कायम नहीं होते, वरन् वे स्वेच्छा से कुल धर्म कुल परम्परा, आनुवंशिक संस्कारों पर निर्भर करते हैं। प्रत्येक सदस्य अपनी-अपनी मर्यादाओं का पालन करने में अपनी प्रतिष्ठा, कल्याण, गौरव की भावना रखकर खुशी-खुशी उन्हें निभाने का प्रयत्न करता है। कुटुम्ब के साथ सह-जीवन में आवश्यकता पड़ने पर प्रत्येक सदस्य अपने व्यक्तिगत सुख स्वार्थों का त्याग करने में भी प्रसन्नता अनुभव करता है। यही सह-जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता होती है। बिना अपने स्वार्थों का त्याग किये, कष्ट सहन किये सह- जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती और उसमें भी विशेषता यह है कि यह त्याग-सहिष्णुता स्वेच्छा से खुशी के साथ वहन की जाती है। सह-जीवन के लिए ऐसा शिक्षण और कहाँ मिल सकता है?

कुटुम्ब के निर्माण के लिए फिर किसी कृत्रिम उपाय, संकल्प विधान की आवश्यकता नहीं होती। परिवार अपने आप में ‘स्वयं-सिद्ध’ संस्था है। माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-ताऊ, पुत्र आदि के चुनाव करने की आवश्यकता नहीं होती। जहाँ गृहस्थ है, वहाँ ये सब तो हैं ही। और इन सम्बन्धों को स्थिर रखने के लिए किसी कृत्रिम उपाय की भी आवश्यकता नहीं होती। कुटुम्ब तो सहज आत्मीयता पर चलते हैं।

कहावत है-”पानी की अपेक्षा खून अधिक गाढ़ा होता है, इसलिए एक ही जलाशय के पास बसने वालों की अपेक्षा एक ही कुटुम्ब में बँधे लोगों के सम्बन्ध अधिक प्रगाढ़ आत्मीय, अभेद्य होते हैं।” कितना ही बैर भाव क्यों न पैदा हो जाय लेकिन खून का असर आदमी के दिल और दिमाग से हट नहीं सकता। एक खून का व्यक्ति अपने साथी से स्वयं लड़ लेगा लेकिन दूसरे का आक्रमण बर्दाश्त नहीं करता। दुनिया में सब सम्बन्ध परिस्थिति वश टूट सकते हैं लेकिन खून का नहीं। कोई पुत्र अपने पिता से यह नहीं कह सकता कि मैं तुम्हारा बेटा नहीं। कोई भाई अपनी बहन से यह सिद्ध नहीं कर सकता कि “मैं तुम्हारा भाई नहीं।” खून का सम्बन्ध स्वयं सिद्ध है। एक माता-पिता अपने पुत्र के लिए जितना सोच सकते हैं, उतना हृदयपूर्वक अन्य नहीं सोच सकता। इसमें कोई सन्देह नहीं कि एक ही खून से सींची हुई कुटुम्ब संस्था गृहस्थ जीवन का अलौकिक चमत्कार है।

गृहस्थ का आधार है, वैवाहिक जीवन। स्त्री और पुरुष विवाह-संस्कार के द्वारा गृहस्थ जीवन में प्रवेश करते हैं। तब वे गृहस्थाश्रमी कहलाते हैं। स्मरण रहे विवाह संस्कार का अर्थ दो शरीरों का मिलन नहीं होता। हमारे यहाँ विवाह स्थूल नहीं, वरन् हृदय की, आत्मा की, मन की एकता का संस्कार है। जो विवाह को शारीरिक निर्बाध कामोपभोग का सामाजिक स्वीकृति-पत्र समझते हैं, वे भूल करते हैं। वे अज्ञान में हैं। विवाह का यह प्रयोजन कदापि नहीं है। भारतीय जीवन पद्धति में उसका उद्देश्य बहुत बड़ा है, दिव्य है , पवित्र है। विवाह के समय वर कहता है-

“द्यौरहं पृथ्वी त्वं सामाहम्हक्त्वम्।

सम्प्रिदौ रोचिष्णू सुमनस्यमानौजीवेव शरदः शतम्॥”

“मैं आकाश हूँ, तू पृथ्वी है। मैं सामवेद हूँ, तू ऋग्वेद है। हम एक दूसरे पर प्रेम करें। एक दूसरे को सुशोभित करें। एक दूसरे के प्रिय बनें। एक दूसरे के साथ निष्कपट व्यवहार करके सौ वर्ष तक जियें।”

यही कहीं नहीं कहा है कि पति और पत्नी दो शरीर हैं। उन दोनों शरीरों का मिलन ही विवाह है अथवा भोगासक्त जीवन बिता कर अल्प- मृत्यु प्राप्त करना ही विवाह है।

आकाश और पृथ्वी का सहज मिलन पति पत्नी के सम्बन्धों का अपूर्व आदर्श है। विवाह ज्ञान और कला का संगम है। प्रेम के लिए एक दूसरे को अर्पण कर देने का विधान है, दो हृदयों को निष्कपट- खुले व्यवहार सूत्र में पिरोने का विधान है। विवाह संयमपूर्वक लेकिन आनन्दमय जीवन बिताकर पूर्ण आयु प्राप्त करने का सहज मार्ग है।

गृहस्थ का उद्देश्य स्त्री - पुरुष एवं अन्य सदस्यों का ऐसा संयुक्त जीवन है जो उन्हें शारीरिक सीमाओं से ऊपर उठा कर एक दूसरे के प्रति निष्ठा, आत्मीयता, एकात्मकता की डोर में बाँध देता है। यह डोर जितनी प्रगाढ़ - पुष्ट होती जाती है, उतनी ही शारीरिकता गौण होती जाती है। ऐसी परिस्थिति में शरीर भले ही रोगी, कुरूप हो जावे लेकिन पारस्परिक निष्ठा कम नहीं होती।

एक स्त्री ही संसार में सबसे सुन्दर और गुणवती नहीं होती, लेकिन पति के लिए सृष्टि में उसके समान कोई नहीं। संसार में सभी माँ एक सी नहीं होतीं, लेकिन प्रत्येक माँ अपने बच्चे के लिए मानो ईश्वरी वात्सल्य की साकार प्रतिमा है। एक गरीब कंजर अशिक्षित माँ के अंक में बालक को जो कुछ मिल सकता है, वह किसी दूसरी स्त्री के पास नहीं मिल सकता। प्रत्येक बालक के लिए माँ उसकी जननी ही हो सकती हैं और काना, कुरूप, गन्दा, अविकसित बालक भी माँ के लिए सबसे अधिक प्रिय होता है। धर्म की बहन कितनी ही बना ली जाएं लेकिन भाई के लिए जो उमड़ता-घुमड़ता हृदय एक सहोदर बहन में हो सकता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इस तरह हम देखते हैं कि गृहस्थाश्रम शारीरिक सम्बन्धों पर टिका हुआ नहीं है। अपितु स्नेहमय, दिव्य, सूक्ष्म आधार स्तम्भों पर इस पुण्य भवन का निर्माण होता है। पारिवारिक जीवन में परस्पर सम्बन्धों की यह दिव्यता ही गृहस्थ जीवन की आत्मा है।

गृहस्थाश्रम वृत्तियों का शोधन करना जीवन की साधना की एक रचनात्मक प्रयोगशाला है। मनुष्य की काम वासना को पति-पत्नी में एक दूसरे के प्रति कर्त्तव्य, निष्ठा, प्रेम में परिवर्तित कर कामोपभोग को एक साँस्कृतिक संस्कार बनाकर सामाजिक मूल्य में बदल देना गृहस्थाश्रम की ही देन है। स्मरण रहे गृहस्थाश्रमी शरीर-निष्ठ अथवा रूप-निष्ठ नहीं होता। कर्त्तव्य, उत्तरदायित्व, प्रेम की निष्ठा ज्यों-ज्यों बढ़ती है, शारीरिकता नष्ट होने लगती है और क्रमशः पूर्णरूपेण शारीरिकता का अन्त होकर उक्त दिव्य आधार मुख्य हो जाते हैं। कामुकता भी नष्ट हो जाती है। इसलिए गृहस्थाश्रम कामोपभोग का प्रमाण-पत्र नहीं, अपितु संयम-ब्रह्मचर्य मूलक है। संयम का एक क्रमिक लेकिन व्यावहारिक साधना स्थल है। सेवा-शुश्रूषा, पालन-पोषण, शिक्षण एक दूसरे के प्रति प्रेम, त्याग, सहिष्णुता के माध्यम से मनुष्य की कामशक्ति संस्कारित, निर्मल होकर मनुष्य को व्यवस्थित संगत, दिव्य बनाने का आधार बन जाती है।

गृहस्थ तप और त्याग का जीवन है। गृहस्थी के निर्वाह-पालन के लिये किए जाने वाला प्रयत्न किसी तप से कम नहीं है। कुटुम्ब का भार वहन करना, परिवार के सदस्यों को सुविधापूर्ण जीवन के साधन जुटाना, स्त्री, बच्चे, माता, पिता, अन्य परिजनों की सेवा करना बहुत कठिन तपस्या है। गृहस्थ में स्वयमेव मनुष्य को अपनी अनेकों प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना पड़ता है। कोई भी गृहस्थ स्वयं कम खा लेता है, पुराना कपड़ा पहन लेता है, लेकिन परिवार के सदस्यों की चिकित्सा, वस्त्र, भोजन, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के लिए सब प्रबन्ध करता है। पेट काट कर भी माँ-बाप बच्चों को पढ़ाते हैं। फटा कपड़ा स्वयं पहनकर बच्चों को अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनाते हैं। गृहस्थ में जिम्मेदार व्यक्ति के सामने अन्य सदस्यों को सुखी सन्तुष्ट रखने का ध्यान प्रमुख होता है, स्वयं का गौण। उधर गृहिणी सबसे पीछे जो बच जाता है, वह खा लेती है। सबकी सेवा में दिन-रात लगी रहती है। बिना किसी प्राप्ति की इच्छा से सहज रूपेण। सचमुच गृहस्थाश्रम एक यज्ञ है तप और त्याग का। प्रत्येक सदस्य उदारतापूर्वक सहज ही एक दूसरे के लिए कष्ट सहता है, एक दूसरे के लिए त्याग करता है।

गृहस्थाश्रम समाज को सुनागरिक देने की खान है। भक्त, ज्ञानी, सन्त, महात्मा, महापुरुष, विद्वान, पण्डित, गृहस्थाश्रम से ही निकल कर आते हैं। उनके जन्म से लेकर शिक्षा-दीक्षा, पालन-पोषण, ज्ञान-वर्धन गृहस्थाश्रम के बीच ही होता है। परिवार के बीच ही मनुष्य की सर्वोपरि शिक्षा होती है।

गृहस्थाश्रम की सर्वोपरि उपलब्धि है उसका आतिथ्य धर्म। आतिथ्य धर्म कितना बड़ा सामाजिक मूल्य है। जिसे कहीं भोजन न मिले, जो संयोग से ही पहुँच जाय उसे भोजन कराये बगैर गृहस्थी भोजन नहीं करता। गाँव के पास -पड़ौस में कोई भूखा न रह जाय, इसके लिए प्रतिदिन नियम पूर्वक किसी अतिथि को भोजन कराये बिना कुछ भी न खाना, हमारे यहाँ गृहस्थाश्रम की अभूतपूर्व देन है। असंख्यों असमर्थ, अपाहिज अथवा अन्य उच्च कार्यों में लगे त्यागी तपस्वी, संन्यासी, सेवकों का जीवन निर्वाह गृहस्थाश्रम से ही होता है।

गृहस्थाश्रम समाज के संगठन, मानवीय मूल्यों की स्थापना, समाज निष्ठा, भौतिक विकास के साथ-साथ मनुष्य के आध्यात्मिक-मानसिक विकास का क्षेत्र है। गृहस्थाश्रम ही समाज के व्यवस्थित स्वरूप का मूलाधार है।


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