क्रान्तिकारिणी - भीकाजी कामा

September 1964

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भारत के राष्ट्रीय तिरंगे झण्डे को जन्म देने वाली भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की मशाल जलाने वालों की प्रथम पंक्ति में गिनी जाने की अधिकारिणी श्रीमती भीकाजी कामा के कार्यकलापों से आज की पीढ़ी के लोग कम ही परिचित हैं। पर इससे क्या, उनका जीवन बलिदान इतना शानदार है कि इतिहास उसे भुला किसी भी प्रकार न सकेगा।

वे उन दिनों जन्मीं जिन दिनों काँग्रेस बड़े लोगों के राजनैतिक मनोरंजन का एक रंग-मंच मात्र थी। गाँधी जी एक साधारण वकील की तरह काम कर रहे थे। जवाहरलाल नेहरू स्कूल में पढ़ रहे थे। सन् 21 और 30 और 42 के आन्दोलन में जिन नेताओं ने नेतृत्व किया वे या तो जन्मे हो न थे या अपने निजी कामों में लगे हुए अन्य नागरिकों की तरह अपने - अपने धन्धों में लगे थे। उन दिनों स्वराज्य का नाम लेना भी अपराध समझा जाता या। ऐसी परिस्थितियों में भी इस निर्भीक महिला ने- परिवार के लोगों का विरोध सहन करते हुए क्रान्तिकारी संगठन आरम्भ किया। संगठन के सदस्यों को बम बनाना सिखाया। घर से बहिष्कृत हुईं। जेल गईं। पुलिस की कठिन यातनाएँ सहीं और अन्त में देश निकाले की सजा में जीवन का अधिकाँश समय बिताने को विवश की गईं। उन्होंने सारा योरोप छान डाला, भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के लिये सहानुभूति ही नहीं धन-राशि भी उन्होंने इकट्ठी की और विदेशों में रहकर भी भारत की स्वतंत्रता के लिये मृत्यु पर्यन्त अबाध गति से काम करती रहीं।

श्रीमति भीकाजी कामा के पिता सेठ सोराबजी फ्रामजी पटेल बम्बई के एक मध्यम श्रेणी के पारसी व्यापारी थे। उन्होंने अपनी कन्या को शिक्षा ही नहीं दी वरन् यह भी सिखाया कि मनुष्य का जीवन एक महत्वपूर्ण वस्तु है और उसका सदुपयोग विचारशील दूरदर्शी दृष्टिकोण के साथ ही किया जाना चाहिए। किशोरी कामा अपने पिता के साथ 1885 का प्रथम काँग्रेस अधिवेशन देखने गईं। वहाँ उनने परतन्त्रता के अभिशाप का स्वरूप समझा और संकल्प किया कि वे खाने सोने की जिन्दगी नहीं जीएँगी वरन् राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के लिये काम करेंगी।

अधिवेशन से लौटकर सबसे पहले नारी संगठन को हाथ में लिया। उन दिनों पर्दे का बहुत जोर था, नारी शिक्षा की बात उपहासास्पद समझी जाती थी अशिक्षा और अन्धविश्वासों से ग्रस्त भारतीय नारी दयनीय स्थिति में पड़ी थी। कामा ने सोचा उन्हें नारी जागरण और संगठन के लिए काम करना चाहिए। अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए वे घर-घर जातीं। उनमें शिक्षा और संगठन की प्रेरणा भरतीं। आरम्भ में उनका उपहास और विरोध होता रहा पर पीछे कितनी ही सुशिक्षित नारियाँ उनके संगठन में सम्मिलित होकर महिला सुधार का कार्य तेजी से आगे बढ़ाने लगीं। अनेकों रात्रि पाठशालाएँ कन्या विद्यालय, चलते-फिरते नारी पुस्तकालय, सिलाई संस्थान शिशु मन्दिर तथा चिकित्सा केन्द्र उन्होंने चलाये, जिनसे महिला समाज पर बड़ा प्रभाव पड़ा और उनका संगठन तथा नवजागरण का मिशन ठीक प्रकार चल निकला।

उनकी ही तरह कितने ही नवयुवक भी स्वतन्त्रता संग्राम की आरम्भिक तैयारी के रूप में जागरण और संगठन के कार्य में लगे थे। कामा ने उन्हें भी प्रोत्साहन और मार्ग दर्शन देना आरम्भ कर दिया। इस प्रकार उनका घर सार्वजनिक प्रवृत्तियों का अड्डा बनने लगा। सरल प्रकृति के पिता इससे घबराये। वे नहीं चाहते थे कि लड़की इस हद तक राजनैतिक कार्यों में लगे कि उन्हें सरकार का कोप भाजन बनना पड़े। इसलिये उनका एक धनी पारसी परिवार के रुस्तमजी कामा के साथ विवाह कर दिया। बचपन का उनका नाम भीकाजी पटेल था अब वे भीकाजी रुस्तमजी कामा कहलाने लगीं।

गृहस्थ के कर्त्तव्यों को वे खुशी से निबाहती थीं, पर उनकी रुचि स्वतन्त्रता आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार करने में थी। वे अधिक समय अपने जीवनोद्देश्य के लिये लगाना चाहती थीं। नारी जागरण का कार्य जो उन्होंने हाथ में ले रखा था वह उन्हें अत्यन्त प्रिय था। ससुराल वाले अपनी बहू की गतिविधियाँ घर की चारदीवारी तक सीमित रखना चाहते थे। मतभेद बढ़ता गया और बात यहाँ तक पहुँची कि उन्हें ससुराल से बहिष्कृत होना या सार्वजनिक कामों में से एक चुन लेने का फैसला करने को विवश होना पड़ा। ससुराल में वे व्यक्तिगत सुख की अधिकारिणी बनी रह सकती थीं पर भारत माता अपने जागृत बच्चा-बच्ची से उद्धार की जो आशा कर रही थी, उसे निराश ही करना पड़ता। उतने मातृभूमि की सेवा के लिए आत्मदान करना उचित समझा और दाम्पत्ति सुख को छाती पर पत्थर रखकर तिलाँजलि दे दी। अब वे परित्यक्ता थीं। रुस्तमजी ने उन्हें तलाक दे दी। अब वे पूरे मनोयोग के साथ निश्चिन्तता पूर्वक संगठन कार्य में जुट गईं।

अधिक परिश्रम के कारण वे बीमार पड़ीं, बीमारी भयंकर थी और उनका बड़ा आपरेशन होना था। वैसी व्यवस्था उन दिनों भारत में न थी, इसलिए उन्हें लन्दन जाना पड़ा। आपरेशन सफल रहा और वे धीरे-धीरे स्वास्थ्य लाभ करने लगीं। उसी बीच लन्दन में उनकी भेंट भारत के क्रान्तिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा से हो गई। वे ब्रिटेन के प्रगतिशील लोगों में प्रचार करके भारत की स्वतन्त्रता के लिए सहानुभूति एकत्रित कर रहे थे। श्रीमती कामा उनके कार्य से प्रभावित हुई और उनके कार्य में सहायता करने लगीं। हाइड पार्क में उनके भाषण सुनने वाले अंग्रेजों की भीड़ दिन - दिन बढ़ने लगी। ब्रिटिश सरकार उनके कार्यों को खतरनाक मानने लगी और श्रीमती कामा की गिरफ्तारी का वारन्ट जारी कर दिया।

वे बड़ी चतुराई से ब्रिटिश चैनल पार कर चुपके से फ्राँस जा पहुँचीं और छोटा-सा ‘बोर्डिंग हाउस’ खोलकर अपना काम चलाने लगीं। यों बाहर से देखने वाले के लिए यह एक मामूली बोर्डिंग हाउस मात्र था, पर वस्तुतः योरोप में भारतीय पक्ष का प्रसार करने और सहानुभूति एकत्रित करने के लिए यह एक क्रान्तिकारी केन्द्र ही बना हुआ था। वहाँ से आन्दोलन के संदर्भ में बुलेटिन छपते और प्रसारित होते और क्रान्तिकारियों का जमघट वहाँ जुड़ा रहता। योरोपीय देशों की जनता तथा सरकारों के अभिमत वे चुपके- चुपके भारतीय क्रान्तिकारियों को पहुँचातीं और उन्हें उधर से धन राशि भी भिजवातीं। इन्होंने स्वयं भी सारे योरोप में दौरा किया और भारतीय स्वतन्त्रता के पक्ष में प्रबल वातावरण बनाया। उन्होंने ‘वन्देमातरम्’ नामक एक पत्र का प्रकाशन भी आरम्भ किया।

ब्रिटेन सरकार की आँखों में उनके कार्य कलाप काँटे की तरह चुभ रहे थे। फ्राँस सरकार पर दबाव डालकर कामा को गिरफ्तार करके उसे सौंप देने के लिए बहुत दबाव डाला गया, पर जब इससे सफलता न मिली तो एक आर्डिनेन्स जारी करके उन्हें ‘फरार’ घोषित कर दिया।

1908 में अन्तर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन जर्मनी में हुआ। उसमें श्रीमती कामा भारत के प्रतिनिधि के रूप में आमन्त्रित की गईं। सम्मेलन में भारतीय पक्ष उन्होंने बड़ी खूबी से प्रस्तुत किया और वहीं अपनी साड़ी में से खोल कर भारत का राष्ट्रीय झण्डा फहराया, जिसका उपस्थित जनता ने भारी हर्ष - ध्वनि के साथ स्वागत और अभिनन्दन किया। राष्ट्रीय तिरंगे झण्डे का जन्म यहीं से हुआ। यह कल्पना श्रीमती कामा की ही है। बाद में उसके स्वरूप में थोड़े सुधार भी होते रहे।

प्रथम महायुद्ध आरम्भ होते ही, मित्र राष्ट्रों का गठबन्धन हो गया और ब्रिटिश सरकार की इच्छानुसार उन्हें फ्राँसीसी गवर्नमेंट ने गिरफ्तार करके किसी पुराने किले में कैद कर दिया। जेल की यातनाएँ सहते हुए वे इस अज्ञातवास में भी भारतीय स्वतन्त्रता का मंत्र जपती रहीं।

इस प्रकार 35 वर्षों तक फरार घोषित की गईं श्रीमती कामा विदेशों में देश निकाले की स्थिति में पड़ी रहीं। उनका शरीर बाहर रहा पर मन भारत में पड़ा रहा और स्वाधीनता के लिये वे इतना काम करती रहीं जितना कोई कर सकता है। उन्होंने बम बनाने की कला का भारतीय पुरुषों को प्रशिक्षण करने के लिए फाँस रहते हुए भी व्यवस्था बना ली। फलस्वरूप भारत में अनेक बम विस्फोट हुए और सरकार को आतंकित किया जाता रहा।

फ्रांसीसी जेल में से वे जर्जर शरीर होकर लौटीं। उनके स्वास्थ्य ने जवाब दे दिया। मृत्यु निकट आने लगी। वे अन्तिम समय भारत माता के दर्शन करना चाहती थीं और उसी की गोदी में अपना प्राण त्यागना चाहती थीं। अतएव उन्होंने भारत के वायसराय से प्रार्थना की कि मुझे मरने के लिए भारत भूमि में पहुँचने की आज्ञा दी जाय। उन्हें आज्ञा तो मिली पर इस शर्त पर कि किसी राजनैतिक कार्य से सरोकार न रखेंगी। इस प्रकार वे भारत लौट सकीं और बम्बई के अस्पताल में कुछ दिन रहकर 16 अगस्त 1936 में स्वर्गवासिनी बन गई।

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की अमर - सेनानी श्रीमती कामा अपनी लगन और निष्ठा के सहारे मातृ - भूमि के लिए त्याग और बलिदान का जो आदर्श उपस्थित कर सकीं वह किसी भी देश भक्त के लिए अनुकरणीय हो सकता है। भारत की जनता अनन्त काल तक उनकी सच्ची तपस्या के लिए उनके चरणों पर अपनी भाव-भरी श्रद्धाँजलि अर्पित करती रहेगी।


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