प्रेम ही परमेश्वर है।

September 1964

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भले-बुरे, सत्य-असत्य, कल्याण-अकल्याण की तर्क बुद्धि इस संसार में प्रायः हर मनुष्य में समान रूप से पाई जाती है किन्तु कोई ऐसी स्थिर वस्तु दिखाई नहीं देती जिसे हम प्रत्येक परिस्थिति में सत्य मानते रहें। आज देखते हैं कि अपना एक परिवार है, माँ है, स्त्री है, बच्चे हैं, घर, जमीन, जायदाद सभी कुछ है। इन पर आज अपना पूर्ण स्वामित्व है। क्या मजाल कि इन्हें कोई हमारी मर्जी के बिना अपने अधिकार में ले ले। क्योंकि यह हमारी सम्पत्ति और विभूतियाँ हैं। इसमें कहीं असत्य नहीं कोई सन्देह नहीं। किन्तु कल परिस्थितिवश जमीन बेचनी पड़ी, घर गिरवी रख दिया, कौन जाने कब किस प्रियजन की मृत्यु हो जाय। ऐसी दशा में कोई सत्य वस्तु समझ में नहीं आती है। यह घर किसी का न रहा अन्त में अपना भी न रहेगा। यह संसार परिवर्तनशील है। इसकी प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण अपना स्वरूप बदलती रहती है।

किन्तु एक अन्तिम सत्य भी है इस संसार में। वह है प्रेम। प्रेम अपने परिजनों पर, विचारों और सिद्धान्तों का प्रेम, स्वत्व और सम्मान के प्रति देश और राष्ट्र- धर्म और संस्कृत के प्रति व्यक्ति को अगाध प्रेम होता है। इसी के बल पर संसार के सभी क्रिया व्यवसाय चलते हैं। यह सारा संसार व्यवस्थित ढंग से चल रहा है। सभी जानते है कि यह संसार मिथ्या है, भ्रम है किन्तु सभी जी रहे हैं, मरने से सभी डरते हैं केवल प्रेम के लिये। यह अलग बात है कि उनका प्रेम साँसारिक है, वस्तु या पदार्थ के प्रति है अथवा प्रेम - स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति के लिये। दिशायें दो हो सकती हैं किन्तु आस्था एक है। इसी पर सारा संसार टिका है। इसी से विधि- व्यवस्था भली भाँति चल रही है।

प्रेम मानव - जीवन की महान् कसौटी है। इससे मनुष्य के दृष्टिकोण हृदय की विशालता एवं बुद्धि की सूक्ष्मता का पता चलता है। जिसके हृदय में प्रेम का प्रकाश जगमगाता है वह मनुष्य उत्कृष्ट होता है। मनुष्य शरीर में देवत्व प्राप्त करने का सौभाग्य उन्हें मिलता है जो प्रेम करना जानते हैं। प्रेम मानव जीवन की सर्वोदय प्रेरणा है। शेष सभी भाव आश्रित भाव हैं। स्वाधीन और सद्गति दिलाने वाली आन्तरिक प्रेरणा प्रेम है जिसमें संसार की रचना होती है। जीवन समृद्ध बनता है और मानव जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति होती है।

प्रेम हृदय की उस पवित्र भावना का शब्द रूप है जो अद्वैत का बोध कराती है। मैं और तुम का विलगाव का भाव वहाँ नहीं होता। इसलिए समष्टिगत विशाल भावना का नाम प्रेम माना गया है। यह विशुद्ध बलिदान है। त्याग और आत्मोत्सर्ग की भावना है जिसमें मनुष्य अपने हितों को अपने प्रेमी के लिये हवन करते हुए असीम तृप्ति का अनुभव करता है। बदले की भावना से नहीं जो केवल प्रेम के लिये प्रेम करता है वही सच्चा प्रेम है।

साधारण तौर पर अपनी प्रेरणा का आधार अपना स्वार्थ होता है। अपने “स्व” या “अहम्” की पूर्ति के लिए सब कुछ करते हैं, भूख मिटाने, शृंगार सजावट करने, महल उठाने, जायदाद जमा करने की सम्पूर्ण चेष्टाओं के पीछे अपने स्वार्थ काम किया करते हैं। किन्तु अन्तःकरण का वह आध्यात्मिक भाव जागृत नहीं होता जिसमें प्रेम का स्वाद चखा जा सके। यह लेन-देन जीवन का साधारण नियम है। जब हम इससे आगे बढ़ते हैं और लेने के संकीर्ण भाव को समाप्त कर देते हैं तो प्रेम का उदय होता है। इसमें सब देना ही देना है। प्रेम का पुरस्कार केवल प्रेम है। और किसी दूसरी वस्तु से इसे खरीदा या बेचा नहीं जा सकता।

मनुष्य का जीवन लक्ष्य निर्धारित करते समय यह ध्यान दिया जाता है कि उसकी स्वाभाविक वृत्तियों की ऐसी व्यवस्था हो जो उसे उत्थान, अभ्युदय और विकास की ओर अग्रसर करे। उसी को चरित्र निर्माण कह सकते हैं। यह भाव मनुष्य में तभी आ सकता है जब वह अपने सच्चे स्वरूप को पहचाने और आत्म-ज्ञान प्राप्त करे। जब ऐसी प्रक्रिया जीवन में चल पड़ती है तो दीनता और हीनता के बुरे भाव समाप्त होकर आत्मा का प्रकाश दिखाई देने लगता है। उस ज्योति से एक साधारण तत्व प्रेम उमड़ने लगता है। इस सुख का एक कण भी जिसे मिलता है उसे चरित्र निर्माण करते देर नहीं लगती। इसीलिये यह कहा गया है मनुष्य जीवन का लक्ष्य प्रेम स्वरूप की प्राप्ति है।

यह भाव जितना विस्तृत होता जाता है मनुष्य का व्यक्तित्व भी उसी क्रम से परिष्कृत होने लगता है। आरंभ में यह भाव अपने ऊपर तक रहता है जो कुछ खायें वह हम खायें, जो अच्छा हो वह हम पहनें आदि की स्वार्थपूर्ण भावनाओं से मनुष्य अपने को ही जब तक प्राथमिकता देता रहता है तब तक वह प्रेम की अनुभूति नहीं कर पाता। इसलिये तब तक बड़ी अस्थिरता चंचलता और अशान्ति बनी रहती है। धीरे- धीरे इसका परिष्कार होने लगता है। धर्मपत्नी आ जाती है तो अपने स्वार्थों में कटौती करते हैं। अब प्रेम का प्रादुर्भाव होता है। अपनी व्यष्टि जितनी ही समाप्त होती जाती है उतनी ही प्रेमपूर्ण भावनायें बढ़ने लगती हैं। पुत्रों के प्रति गाँव और समाज, देश और जाति के प्रति धर्म और संस्कृति के प्रति अपने स्वार्थों का त्याग करते करते पूर्ण आन्तरिक परिष्कार हो जाता है और हम इस योग्य हो जाते हैं कि विश्वात्मा का सान्निध्य सुख प्राप्त कर सकें।

जब यह उत्सर्ग की भावना प्राणिमात्र के प्रति जागृत होने लगती है तो सच्चे प्रेम की अनुभूति होने लगती है। इसलिए गीताकार ने सन्देश दिया हैं :--

आत्मानाँ सर्वभूतेषु सर्वभूतानि चात्मनि।

ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शिनः ॥

अर्थात् “सभी भूत प्राणियों में एक ही आत्मा समाया हुआ है इसलिए सभी को समभाव से देखते हुए सभी के साथ प्रेम करना चाहिए।”

प्रेम संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। जिसे बड़ी -बड़ी मशीनें, अस्त्र- शस्त्र और बलवान् मनुष्य नहीं जीत पाये उन्हें प्रेम की कोमल भावनायें जीतने में समर्थ हुई है।

महापुरुष ईसा ने लिखा है -- “हमें एक दूसरे से प्रेम करना चाहिए, क्योंकि प्रेम ही ईश्वर है। ईश्वर को वही जानता है जो प्रेम करता है।” परमात्मा की उपासना का मूल आधार प्रेम है। जो अपने सजातियों से प्रेम करता है, वही सच्चा ईश्वर भक्त है।

भगवान कृष्ण ने जिस कर्मयोग की आवश्यकता पर गीता में अधिक बल दिया है उसका आधार भी प्रेम ही है। यह निश्चित बात है कि जब तक स्वार्थपूर्ण भावनाओं का उन्मूलन नहीं होता तब तक विशुद्ध कर्त्तव्य भावना का उदय नहीं होता। इसलिये जैसे ही हम फल की भावना से रहित होकर केवल कर्त्तव्य की दृष्टि से काम करने लगते हैं वैसे ही अपने अन्तःकरणों में प्रेम का प्रादुर्भाव होने लगता है। प्रेम के बिना कर्म की पूर्णता में विश्वास नहीं किया जा सकता। कर्म-कौशल, जो प्रेम की प्रेरणा से हो वही योग है।” ऐसा भगवान् कृष्ण ने गीता में प्रतिपादित किया है। इन शब्दों से प्रेम के स्वयं योग होने की बात पुष्ट होती है अर्थात् परमात्मा को प्राप्त करने का सबसे सीधा रास्ता और सरल उपाय विशुद्ध प्रेम ही है।

किन्तु आत्म-बलिदान का मार्ग कठिन भी उतना ही है। संसार में पुरुष- प्रेम, नारी -प्रेम, देश, जाति या संस्कृति का प्रेम कोई भी क्यों न हो उसके लिए एक परीक्षा निश्चित है। जो इस परीक्षा में अन्त तक धैर्यपूर्वक टिके रहते है उन्हें ही लक्ष्य की प्राप्ति होती है। महापुरुषों ने सदैव ही यह परीक्षा दी है, उन्होंने मार्ग पर बिछे हुए काँटों को भी फूलवत् हँस- हँसकर चुना है। कठिनाइयों, मुसीबतों और आपदाओं को अपनी छाती से लगाया है। तब कहीं जाकर उन्हें महान् कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ। कृष्ण - प्रेम में मतवाली मीरा को यमुना में फेंका गया, विष दे दिया गया, घर से निष्कासित कर दिया किन्तु उसकी निष्ठा में राई रत्ती भर भी कमी नहीं आई। तब कहीं मीरा महान् बनी। देश - प्रेम के दीवाने राणाप्रताप जंगलों- जंगलों भटके, मिट्टी के बरतनों में घास की रोटियाँ खाई। किन्तु अकबर की दासता उन्होंने स्वीकार नहीं की। राणा प्रताप इस तितीक्षा पर कस कर धन्य हुए।

इस संसार में आये दिन लोग जन्म लेते हैं और सैंकड़ों की तादाद में रोज मरते रहते हैं किन्तु जिन्होंने अपने सिद्धान्तों पर दृढ़तापूर्वक विश्वास किया, जो अपनी आस्थाओं के प्रति सदैव ईमानदार बने रहे, जिन्होंने प्रेम किया और जीवन की आखिरी साँस तक अपने व्रत का निर्वाह किया, उनके हाड़ माँस का तन भले ही नष्ट हो गया हो, पर उनका यश- शरीर युग-युगान्तरों तक लोगों को प्रेरणा व प्रकाश देता रहता है।

चरित्र की उत्कृष्टता प्रेम है। यह मानवता की सर्वश्रेष्ठ साधना है, जिससे आत्म बल प्राप्त होता है। निर्भीकता, दृढ़ता, साहस, पवित्रता, त्याग, सत्यनिष्ठा और कर्त्तव्य- भावना का आधार शुद्ध और पवित्र प्रेम है। इसे अपने जीवन में धारण करने वाला पुरुष मानव न रहकर महामानव और देवता बन जाता है। जाति का जीवन खिल उठता है। ऐसे कर्त्तव्य - निष्ठ नागरिकों के बाहुल्य से ही राष्ट्रों के हित फलते फूलते रहते हैं। प्रेम मानव- जीवन की सार्थकता है। प्रेमविहीन जीवन तो पशुओं का भी नहीं होता।

प्रेम एक निर्मल झरना है। उसके प्रवाह में जो भी आ जाता है, वह निर्मल हो जाता है पात्र और कुपात्र ही की घृणा जैसे झरने के स्वच्छ प्रवाह में नहीं होती है वैसे ही प्रेमी अन्तःकरण में किसी प्रकार की ईर्ष्या- विद्वेष या घृणा की भावनायें नहीं होतीं। महात्मा गाँधी अपने आश्रम में अपने हाथों से एक कोढ़ी की सेवा - शुश्रूषा किया करते थे। इसमें उन्हें कभी भी घृणा पैदा नहीं होती थी। प्रेम की विशालता में ऊपर से जान पड़ने वाली मलीनतायें भी वैसे ही समा जाती हैं जैसे हजारों नदियों का कूड़ा-कबाड़ समुद्र के गर्भ में विलीन हो जाता है। प्रेम आत्मा के प्रकाश से किया जाता है। आत्मा यदि मलीनताओं से ग्रसित है तो भी उसकी नैसर्गिक निर्मलता में अन्तर नहीं आता है यही समझकर उदारमना व्यक्ति अपनी सहानुभूति से किसी को भी वंचित नहीं करते।

प्रेम साधन की वस्तुएं नहीं माँगता। धर्मपत्नी को चाहे जिस स्थिति में रखें, वह अपने पति के प्रेम में कम या अधिक की दुर्बल वृत्ति से दूर बनी रहती है। पति की जितनी आय साधन और परिस्थितियाँ होती हैं उन्हीं में सच्चा सुख मानती है। जिन दम्पत्तियों में ऐसी भावनायें होती हैं, वे अनेकों अभाव रहते हुए भी असीम सुख का अनुभव करते रहते हैं। प्रेम की सच्ची परख भी यही है कि अभाव और अयोग्यता के कारण भी सहृदयता और कर्त्तव्य भावना में किसी प्रकार का विक्षेप उत्पन्न न हो।

सच कहें तो मानव जीवन का आज तक जो भी विकास हुआ है, वह सब प्रेम का संबल पाकर हुआ है। घृणा और ईर्ष्या - द्वेष के कारण लोगों के दिल - दिमाग बेचैन उदास और खिन्नमना बने रहते हैं। निर्माण कर्त्ता प्रेम है, जिससे विशुद्ध कर्त्तव्य - भावना का उदय होता है। हम यदि इस भाव को अपने जीवन में धारण कर पायें तो अमीरी हो या गरीबी, शहर में रहते हों या गाँव में, मकान पक्का हो अथवा कच्चा, एक ऐसा जीवन जी सकते हैं, जिसे सुखी जीवन कह सकें। कहते हैं परमात्मा की उपासना से बड़े सुख मिलते हैं। यह सुख प्रेम का ही प्रसाद है। प्रेम की पूजा ही परमात्मा की पूजा है। फिर हम भी प्रेमी ही क्यों न बनें?

कषाय वस्त्रधारी स्वामी विवेकानन्द अमेरिका के शिकागो नगर में सड़क पर जा रहे थे। उनका यह वेष अमेरिका निवासियों के लिए कौतूहल की वस्तु था।

पीछे आ रही एक अमेरिकन महिला ने अपने साथी पुरुष से कहा -- ‘जरा इन महाशय की इस अजीब पोशाक को तो देखो।’

स्वामीजी ने वह व्यंग सुना। जरा- सा रुके और मुड़कर उस महिला से कहा -- ‘देवि, आपके देश में सभ्यता के उत्पादक दर्जी और सज्जनता की कसौटी कपड़े माने जाते हैं। पर जिस देश से मैं आया हूँ उसमें कपड़ों से नहीं, मनुष्य के चरित्र से उसकी पहचान की जाती है।

स्वामीजी ने वह व्यंग सुना। जरा- सा रुके और मुड़कर उस महिला से कहा -- ‘देवि, आपके देश में सभ्यता के उत्पादक दर्जी और सज्जनता की कसौटी कपड़े माने जाते हैं। पर जिस देश से मैं आया हूँ उसमें कपड़ों से नहीं, मनुष्य के चरित्र से उसकी पहचान की जाती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118