आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध

September 1964

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आत्मा - परमात्मा का ही अंश है। जिस प्रकार जल की धारा किसी पत्थर से टकराकर छोटे छींटों के रूप में बदल जाती है, उसी प्रकार परमात्मा की महान सत्ता अपने क्रीड़ा विनोद के लिए अनेक भागों में विभक्त होकर अगणित जीवों के रूप में दृष्टिगोचर होती हैं। सृष्टि सञ्चालन का क्रीड़ा कौतुक करने के लिए परमात्मा ने इस संसार की रचना की। वह अकेला था। अकेला रहना उसे अच्छा न लगा, सोचा एक से बहुत हो जाऊँ। उसकी यह इच्छा ही फलवती होकर प्रकृति के रूप में परिणित हो गई। इच्छा की शक्ति - महान है। आकाँक्षा अपने अनुरूप परिस्थितियाँ तथा वस्तुयें एकत्रित कर ही लेती है। विचार ही कार्य रूप में परिणित होते हैं और उन कार्यों की साक्षी देने के लिए पदार्थ सामने आ खड़े होते हैं। परमात्मा की एक से बहुत होने की इच्छा ने ही अपना विस्तार किया तो यह सारी वसुधा बन कर तैयार हो गई।

परमात्मा ने अपने आपको बखेरने का झंझट भरा कार्य इसलिए किया कि बिखरे हुए कणों को फिर एकत्रित होते समय असाधारण आनन्द प्राप्त होता रहे। बिछुड़ने में जो कष्ट है उसकी पूर्ति मिलन के आनन्द से हो जाती है। परमात्मा ने अपने टुकड़ों को - अंश, जीवों को बिखेरने का विछोह कार्य इसलिए किया कि वे जीव परस्पर एकता, प्रेम, सद्भाव, संगठन, सहयोग का जितना - जितना प्रयत्न करें उतने आनन्दमग्न होते रहें। प्रेम और आत्मीयता से बढ़कर उल्लास शक्ति का स्रोत और कहीं नहीं है। अनेक प्रकार के बल इस संसार में मौजूद हैं पर प्राणियों की एकता के द्वारा जो शक्ति उत्पन्न होती है उसकी तुलना और किसी से भी नहीं की जा सकती। पति-पत्नी, भाई - भाई, मित्र - मित्र, गुरु- शिष्य, आदि की आत्मीयता जब उच्च स्तर तक पहुंचती है तो उस मिलन का आनन्द और उत्साहवर्धक प्रतिफल इतना सुन्दर होता है कि प्राणी अपने को कृत्य - कृत्य मानता है।

कबीर का एक दोहा प्रसिद्ध है --

राम बुलावा भेजिया कबिरा बीना रोय।

जो सुख प्रेमी संग में, सो बैकुण्ठ न होय॥

इस दोहे में बैकुण्ठ से अधिक प्रेमी के सान्निध्य को बताया गया है। कबीर प्रेमी को छोड़कर स्वर्ग जाने में दुख मानते और रोने लगते हैं। वस्तु स्थिति यही है। सच्चे प्रेम में ऐसा ही आनन्द होता है। जहाँ मनुष्य - मनुष्य के बीच में निष्कपट, निःस्वार्थ, आन्तरिक और सच्ची मित्रता होती है, वहाँ गरीबी आदि की कठिनाइयाँ गौण रह जाती हैं और अनेक अभावों एवं परेशानियों के रहते हुए भी व्यक्ति उल्लास भरे आनन्द का अनुभव करता है।

उपासना में प्रेम का अभ्यास एक प्रमुख आधार है। ईश्वर की भक्ति करने का अर्थ है - आदर्शवाद। प्रेम के विकास का आधार भी यही है। सच्चे और ईमानदार मनुष्यों के बीच ही दोस्ती बढ़ती और निभती है। धूर्त और स्वार्थी लोगों के बीच तो मतलब की दोस्ती होती है वह जरा- सा आघात लगते ही काँच के गिलास की तरह टूट -फूट कर नष्ट हो जाती है। लाभ में कमी आते ही तोते की तरह आंखें फेर ली जाती हैं। यह दिखावटी धूर्ततापूर्ण मित्रता तो एक प्रवंचना मात्र है, पर जहाँ जितने अंगों में सच्चा मैत्री भाव होगा वहाँ आनन्द, सन्तोष और प्रफुल्लता की निर्झरिणी निरन्तर झरती रहेगी। यदि कुछ लोगों का परिवार या संगठन प्रेम के उच्च आदर्शों पर आधारित होकर विकसित हो सके तो वहाँ उस परिवार के सभी सदस्यों को विकास एवं हर्षोल्लास का परिपूर्ण अवसर मिलता रहेगा। जिस समाज में सच्ची मित्रता, उदारता, सेवा और आत्मीयता का आदर्श भली प्रकार फलने - फूलने लगता है वहाँ निश्चित रूप में स्वर्गीय वातावरण विनिर्मित होकर रहता है। देवता जहाँ कहीं रहते होंगे वहाँ उनके अच्छे स्वभाव ने प्रेम का वातावरण बना रखा होगा और उस भाव - प्रवाह ने वहाँ स्वर्ग की रचना कर दी होगी। स्वर्ग यदि कहीं हो सकता है तो उसकी सम्भावना वहीं होगी जहाँ सज्जन पुरुष प्रेमपूर्वक मिल-जुल कर आत्मीयता, उदारता, सेवा और सज्जनतापूर्वक रह रहे होंगे।

ईश्वर उपासना से स्वर्ग की प्राप्ति का जो महात्म्य बताया गया है उनका आधार यही है कि उपासना करने वाले को भक्ति का मार्ग अपनाना पड़ता है। परमात्मा को, आत्मा को, आदर्शवाद को जो भी प्यार करना सीख लेगा उसे अनिवार्यतः प्राणिमात्र से प्रेम का अभ्यास होगा और इस कारण के रहते हुए उसका निवास स्थान एवं समीपवर्ती वातावरण स्वर्गीय अनुभूतियों से ही भरापूरा रहेगा। उपनिषद् का वचन है -- “रसो वैस” अर्थात् प्रेम ही परमात्मा है। बाइबिल में भी इसी तथ्य की पुष्टि की है और मनुष्य को प्रेमी स्वभाव का बनने पर जोर देते हुए कहा है कि जो प्रेमी है वही ईश्वर का सच्चा भक्त कहलायेगा। भक्ति की महिमा से आध्यात्म - शास्त्र का पन्ना - पन्ना भरा पड़ा है। भक्ति से मुक्ति मिलने की प्रतिष्ठापना की गई है। भक्त के वश में भगवान को बताया गया है। इन मान्यताओं का कारण एक ही है कि प्रेम की हिलोरें जिस अन्तरात्मा में उठ रही होंगी उसका स्तर साधारण न रहेगा। जिसमें दिव्य गुण, दिव्य स्वभाव का आविर्भाव होगा, वह दिव्य कर्म ही कर सकेगा। ऐसे ही व्यक्तियों को देवता कहकर पुकारा जाता है। जहाँ देवता रहेंगे वहाँ स्वर्ग तो अपने आप ही होगा।

प्रेम का अभ्यास ईश्वर को प्रथम उपकरण मानकर किया जाता है। कारण यही है कि उसमें स्वार्थ भी दोष नहीं है। सूक्ष्म ब्रह्म की उपासना जिन्हें कठिन पड़ती है वे साकार प्रतिमा बनाकर अपनी भावनाओं को किसी पूजा प्रतीक पर केन्द्रित करते हैं, फलस्वरूप निर्जीव होते हुए भी वह माध्यम सजीव हो उठता है। मूर्ति - पूजा का तत्वज्ञान यही है। यह बात हर कोई जानता है कि देव प्रतिमायें पत्थर या धातु की बनी निर्जीव होती हैं। उनके सजीव होने की बात कोई सोचता तक नहीं। पर यह आध्यात्मिक तथ्य मूर्ति पूजा के माध्यम से प्रकाश में लाया जाता है कि जिस किसी से सच्चा प्रेम किया जायेगा जिसके लिए भी आस्था और श्रद्धा का प्रयोग किया जायेगा वह वस्तु चाहे निर्जीव हो या सजीव, भक्त की भावना के अनुरूप फल देने लगेगी। मूर्ति पूजा करते हुए साकार उपासना करने वाले अगणित भक्तजन जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर सकने में सफल हुये है। मीरा, सूर, तुलसी, रामकृष्ण परमहंस आदि की साकार उपासना निरर्थक नहीं गई। उन्हें परमहंस तक पहुँचा सकने में ही समर्थ हुई।

रबड़ की गेंद दीवार पर मारने से लौटकर फैंकने वाले के पास ही पीछे को लौटती है। पक्के कुँए में मुँह करके आवाज लगाने से प्रतिध्वनि गूँजती है। उसी प्रकार इष्ट देव को दिया हुआ प्रेम लौटकर प्रेमी के पास ही आता है और उस प्रेम प्रवाह से रससिक्त हुआ अन्तरात्मा ईश्वर मिलन, ब्रह्म साक्षात्कार एवं भगवत् कृपा का प्रत्यक्ष अनुभव करता है। एकलव्य भील की बनाई हुई मिट्टी की द्रोणाचार्य की प्रतिमा उसे उतनी शस्त्र - विद्या सिखाने में समर्थ हो गई जितनी कि गुरु द्रोणाचार्य स्वयं भी नहीं जानते थे। मिट्टी के द्रोणाचार्य में एकलव्य की जो अत्यन्त निष्ठा थी उसके कारण ही वह प्रतिक्रिया सम्भव हो सकी कि वह भील बालक उस युग का अनुपम शस्त्र चालक बन सका। ईश्वर के साकार व निराकार स्वरूप का ध्यान पूजन, जप, अनुष्ठान करते हुए साधक अपनी प्रेम भावना, श्रद्धा और निष्ठा को ही परिष्कृत करता है। इस मार्ग में वह जितनी प्रगति कर सके उतनी ही ईश्वरानुभूति का परमानन्द उसे उपलब्ध होने लगता है।

साधना यदि सच्ची हो, सच्चे उद्देश्य से की गई हो तो उसका परिणाम यह होना ही चाहिए कि उपासक के मन में प्रेम की धारा प्रवाहित होने लगे वह प्राणी मात्र को अपनी आत्मा में और अपनी आत्मा को प्राणिमात्र में देखे। दूसरों का दुःख उसे अपने निज के दुःख जैसा कष्टकारक प्रतीत हो और दूसरों को सुखी, समुन्नत देखकर अपनी श्री समृद्धि की भाँति ही सन्तोष का अनुभव करे। प्रेम का अर्थ है -- आत्मीयता और उदारता। जिसके साथ प्रेम भाव होता है उसके साथ त्याग और सेवापूर्ण व्यवहार करने की इच्छा होती है। प्रेमी अपने को कष्ट और संयम में रखता है और अपने प्रेमपात्र को सुविकसित, सुन्दर एवं सुरम्य बनाने का प्रयत्न करता है। सच्चे प्रेम का यही एकमात्र चिन्ह है कि जिसके प्रति प्रेम भावना उपजे उसे अधिक सुन्दर, अधिक उज्ज्वल एवं प्रसन्न करने का प्रयत्न किया जाय।


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