छोटे-छोटे काम भी उपेक्षणीय नहीं

September 1964

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दैनिक जीवन के कर्म, कर्त्तव्य और व्यवहार में अनेकों ऐसी छोटी - छोटी बातें होती हैं, जिनकी प्रायः लोग उपेक्षा किया करते हैं। आहार -विहार, रहन-सहन, बातचीत में कई बातें ऐसी होती हैं, जिनको अत्यन्त छोटी मानकर लोग उनकी ओर से उदासीन बने रहते हैं। किन्तु कई बार इनके परिणाम इतने गम्भीर होते हैं कि बाद में भारी पछतावा होता है। इसलिए यह आवश्यकता होती है कि जो भी काम करें चाहे वह देखने में कितना ही छोटा क्यों न हो, भली प्रकार से सोच- विचार करके किया जाना चाहिए। छोटी बातों का महत्व कम नहीं होता। जीवन की सर्वांगपूर्णता भी इन्हीं में सन्निहित होती हैं।

संसार की प्रत्येक वस्तु छोटे-छोटे परमाणुओं से मिलकर बनती है। वैज्ञानिकों का कथन है कि इस संगठन में किसी सूक्ष्म परमाणु का भी विस्फोट हो जाय तो संसार में बड़े विनाशकारी दृश्य उपस्थित हो सकते हैं। सूर्य-चन्द्रमा तथा सभी छोटे-बड़े ग्रह-उपग्रह भी अपनी नियत व्यवस्था के अनुसार क्रियाशील हैं। इनकी गति में कहीं अवरोध उत्पन्न हो जाय तो सारे संसार में प्रलय हो सकती है। इसलिए छोटी वस्तुओं की उपेक्षा न करना ही व्यवस्था की दृष्टि से उचित है।

बड़ी वस्तुओं की पूर्ति छोटी वस्तुओं से होती है। मिट्टी का एक - एक कण मिलकर पृथ्वी बनी है। एक - एक सींक मिलकर बुहारी का काम देती है। श्रमिकों के सामूहिक प्रयासों से बड़े - बड़े मिल - कारखाने चलते हैं। किसी मशीन का एक छोटा - सा पुर्जा निकाल दें तो उसका चलना बन्द हो सकता है। इंजन में बाइलर का जितना महत्व है, पिस्टन का उससे कम नहीं। इसी प्रकार जीवन की सम्पूर्ण क्रियाशीलता भी छोटे - छोटे कर्मों में विभक्त है। इनमें से एक को भी छोड़ दें तो उसका न्यूनाधिक प्रभाव दूसरे कर्मों पर पड़ता है। आहार लेते समय एक रोटी अधिक खा लें तो पाचन-क्रिया का खराब होना निश्चित है। पेट की खराबी, दस्त, बुखार आदि अनेकों उपद्रव खड़े हो जाने का कारण एक छोटी-सी भूल, एक रोटी अधिक खा जाने पर यदि पहले ही विचार कर लिया जाय तो बाद में उठ खड़े होने वाले उपद्रवों तथा गम्भीर प्रतिक्रियाओं से सहज ही में बचा जाना सम्भव है।

“तू” और “तुम” या “आप” में ऊपर से देखने में कोई बड़ा भारी अन्तर दिखाई नहीं देता। किन्तु इनके प्रयोग से सामने वाले व्यक्ति की मनः स्थिति पर जो प्रभाव पड़ता है, वह विचारणीय है। आप किसी को सम्बोधन करते समय “आप” शब्द उच्चारण करते हैं -- आइये आप यहाँ बैठ जाइए, आपने भोजन कर लिया क्या? इन शब्दों से द्वितीय पुरुष पर आपके शिष्ट - आचार का प्रभाव पड़ेगा। इसमें उसे प्रसन्नता भी होगी और आपके व्यवहार से सन्तुष्टि भी। आत्मीयता, मृदुलता और सज्जनोचित व्यवहार का यही तरीका है कि सम्बोधन करते समय आदर पूर्ण शब्दों का अधिक से अधिक प्रयोग करें।

रूखे और कर्कश संभाषण से सुनने वाले की आन्तरिक भावनाओं पर चोट लगती है, वह आपका कितना ही निकट का सम्बन्धी, प्रियजन या परिवार का ही व्यक्ति क्यों न हो, आपका बुरा मान जायेगा और बदले में स्वयं भी अभद्र व्यवहार करेगा। यदि आपके प्रभाव के कारण ऐसा न भी करे तो भी आपका हृदय से सम्मान नहीं करेगा। दबी हुई भावनायें जब भी अवसर पायेंगी, वह आपकी बुराई करने लगेगा। ईर्ष्या, द्वेष, कलह और कटुता के अधिकांश दृश्य इन छोटी - मोटी भूलों के परिणाम स्वरूप ही उठ खड़े होते हैं। इनसे सदैव बचने का प्रयत्न करना चाहिए और अपने सम्भाषण में मिठास भरे मृदुल शब्दों का ही प्रयोग करना शिष्टाचार और बड़प्पन का चिन्ह है।

छोटा काम भी निर्लिप्त भाव से, मन लगाकर उत्साहपूर्वक करने में बड़ा सुख मिलता है। इससे काम करने की आन्तरिक-शक्ति प्राप्त होती है। महापुरुष गेटे का कथन है- “हमारे दैनिक कामों और कर्त्तव्यों को मनोयोगपूर्वक पूरा करने में वे रहस्य छिपे पड़े हैं, जिनसे मनुष्य के सुख और शान्ति के द्वार खुलते हैं। उस सितारे की भाँति जो दूर आकाश में अनवरत चमक रहा है, जो न दम लेता है, न ठहरता है, प्रत्येक व्यक्ति को इस प्रकार अपने दैनिक कर्त्तव्यों को पूरा करने में अपने सम्पूर्ण साहस और दृढ़ता के साथ लगा रहना चाहिए।”

दिनभर किसी बड़े काम को ही करते रहने से भी आनन्द नहीं मिलता। छोटे, कम महत्व के सहायक कर्मों को पूर्ण रुचि के साथ करने से भी व्यक्तित्व के परिष्कार में सहायता मिलती है। प्रातःकाल उठकर नित्य कर्म, स्नान, घर और कपड़ों की सफाई, भोजन, टहलना, मिलना जुलना, हँसना - खेलना आदि सभी में सावधानी रखने, संयत रहने से ही आप दिनभर प्रसन्न चित्त रह सकते हैं। दातौन न करने अथवा स्नान न करने से किसी की मृत्यु नहीं हो जाती है, यह ठीक है। किन्तु मुँह से निकलने वाली बदबू और शारीरिक दुर्गन्ध के कारण फूट पड़ने वाली कष्टदायक बीमारियों का संचालन यहीं से होता है, यह आपने नहीं विचारा क्या? दाँत साफ न करने का परिणाम अन्त में पायरिया ही हो सकता है। शरीर साफ न रहे तो त्वचा के रोगों का हो जाना निश्चित ही समझिए।

घर में कई वस्तुएँ बिखरी हुई अस्त-व्यस्त पड़ी होती हैं। आपकी दृष्टि में वे न आती हों, यह बात नहीं है, पर हर बार आप उन्हें सुव्यवस्थित बनाने की बात टाल जाते हैं। दैनिक आवश्यकता की वस्तुएँ जैसे- कलम, दवात, कपड़े, चप्पल आदि नियत स्थानों पर रखे रहा करें तो आवश्यकता के समय जो हड़बड़ी, दौड़-धूप, हो- हल्ला मचता है, उससे बचने में कितना सहारा मिल जाय? हम देख तो लेते हैं कि आँगन में कीलें बिखरी पड़ी हैं, पर थोड़े-से आलस्य या उपेक्षावश उन्हें उठाते नहीं है। किन्तु यही जब बच्चे के पाँव में चुभ जाती हैं तो आप अपनी पत्नी या दूसरे सदस्यों पर बरसने लगते हैं। आपने थोड़ी सावधानी की होती और पहले ही उन्हें सँभाल कर रख दिया होता तो बेचारे बच्चे को यह दुःख क्यों उठाना पड़ता। पत्नी, बच्चों को डाँटने-मारने से जो घर के वातावरण में कटुता और क्षुब्धता आ गई उससे भी बचाव हो जाता। इसलिए अपनी दृष्टि सदैव इतनी पैनी होनी चाहिए कि कोई भी वस्तु दिखाई दे तो ठीक ढंग से सँभाल कर रख दें। इससे व्यवस्था भी बनी रहती है और सहूलियत भी।

लोग बड़े आदमी इसलिए बन जाते हैं कि वे छोटे से छोटे काम को भी जी लगाकर करते हैं। कई व्यक्ति स्वयं तो कुछ नहीं करना चाहते और दूसरों की बाल में खाल निकालते रहते हैं। इससे मनुष्य का ओछापन प्रकट होता है। सुसंस्कृत व्यक्ति अपने सभी छोटे - बड़े काम इस प्रकार पूरे करते रहते हैं, मानो इन कर्त्तव्यों में ही उनका सारा सुख वैभव और आनन्द -भाव छिपा हुआ है। बड़ा काम करना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् यह भी आवश्यक है कि सामने आया हुआ काम कितना ही साधारण क्यों न हो, उसे भी अच्छी तरह और मनोयोगपूर्वक पूरा किया जाये। महात्मा गाँधी दूसरों को गन्दगी से बचाने के लिए अपने मल पर स्वयं मिट्टी पटक देते थे। यही शिक्षा वे अपने अनुयाइयों को भी दिया करते थे।

प्रत्येक कार्य को पूर्ण तत्परता और निर्लिप्तता के साथ पूरा करने से ही मनुष्य के अन्दर प्राकृतिक ढंग से बड़े - बड़े कामों और कर्त्तव्यों को पूरा करने की शक्ति आती है। छोटे कार्यों की सुचारु रूप से सम्पन्नता के द्वारा ही इच्छा शक्ति का परिपाक होता है। यह दृढ़ता जब जीवन में उतरती है, तो बड़े कर्त्तव्य निभाने की अन्तःप्रेरणा स्वतः उठने लगती है। एकाग्रता और इच्छा-शक्ति को बढ़ाने के लिए कई बाह्य उपचार भी लोग प्रयोग में लाते हैं। प्राणायाम, आसन, त्राटक आदि के द्वारा लोग यह अभ्यास करते हैं, किन्तु इससे आँशिक सफलता मात्र प्राप्त करते हो सकती है। दत्तचित्त होकर सम्पूर्ण कार्यों को एक व्यवस्था क्रम से निभाने से यह आवश्यकता स्वयमेव पूरी हो जाती है।

समर्थ व्यक्तियों का प्रभाव छोटे बच्चों और कम समझ के व्यक्तियों पर पड़ता है। इससे वे भी इन बुराइयों को अपने जीवन में प्रवेश की स्वीकृति दे देते हैं और बिना किसी प्रशिक्षण के वे भी इन घृणित कर्मों में लग जाते हैं। इसलिए भावी पीढ़ी के निर्माण के लिए भी यह परमावश्यक है कि लोग अपने स्वभाव, आचरण, बातचीत और व्यवहार की इन छोटी-छोटी कमजोरियों की उपेक्षा न किया करें।


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