विश्व-कवि-रवीन्द्रनाथ टैगोर

September 1964

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“जन-गण-मन अधिनायक जय हे, भारत भाग्य विधाता” राष्ट्र-गीत के निर्माता रवीन्द्रनाथ टैगोर ने जीवन-भर पद-दलित मानवता को ऊँचा उठाने के लिए मानव को मानव बन कर रहने की प्रेरणा देने के लिए संघर्ष किया। वे जानते थे क्रान्ति तोपों और बन्दूकों से नहीं, विचार परिवर्तन से होती है। भावनाएं न बदलें तो परिस्थितियों में स्थायी हेर-फेर नहीं हो सकता । फिर यदि विचार बदल जायें तो बिना दमन या दबाव के भी सब कुछ बदल सकता है। उनने कुरूप परिस्थितियों को सुन्दर बनाने के लिए एक सच्चे कलाकार की तरह साधना की। कला को कला के लिए सीमित नहीं रखा जा सकता। उसे सत्यं, शिवं, सुंदरं की सेवा के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिए। इस तथ्य को उन्होंने मूर्तमान करने के लिए जो तपस्या की उसे चिर-काल तक भुलाया न जा सकेगा।

रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्व - कवि माने जाते हैं। उनकी कविताएं मानवता का प्रतिनिधित्व करती हैं, उनकी कला में मानवता की उत्कृष्टता उभर कर आती है। कलाकार विश्व मानव की सुसज्जा में कितना उत्तरदायित्व उठा सकता है, इसका अनुपम उदाहरण उन्होंने अपने सारे जीवन को काव्यमय बनाकर प्रस्तुत किया।

7 मई 1861 में कलकत्ता में वे जन्मे। उनके पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर बंगाल के महर्षि कहे जाते हैं। उनने अपने सद्गुणों और उद्दात्त भावनाओं को इस छोटे बालक में कूट - कूट कर भरने का प्रयत्न किया। वे चाहते तो दूसरे पिताओं की तरह अपने पुत्र को ‘कमाऊ’ बनाने के लिए भी लगाये रह सकते थे, पर उनने सोचा पिता वही धन्य है, जिसने अपनी सन्तान को मानवता की सेवा कर सकने योग्य बना सकने में सफलता प्राप्त की। देवेन्द्र बाबू जब तक जिये प्रयत्न करते रहे कि उनका पुत्र संसार के श्रेष्ठ नागरिकों में गिना जा सकने योग्य बने और विश्व मानव का गौरव बढ़ाने में कुछ महत्वपूर्ण योग- दान करे। उनने बालक को इसी दृष्टि से शिक्षित और सुसंस्कृत बनाने का प्रयत्न किया और उनके प्रयत्न सफल भी हुए। विश्व-कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपना जीवन-क्रम जिस प्रकार ढाला, उससे उनके पिता की आत्मा सन्तुष्ट होकर ही गई।

काम चलाऊ पढ़ाई पढ़ने के बाद क्लर्क ढालने वाली शिक्षा से उन्हें घृणा हो गई और वे नये युग का नया साहित्य लिखने में लग गये। ग्रेजुएट बनने का विचार उन्होंने छोड़ दिया। माता सरस्वती की साधना ही उनका लक्ष्य बन गया। छोटी आयु में ही उनकी कविताएं प्रकाशित होने लगीं। कविताएं ही नहीं, नाटक, उपन्यास और निबन्ध भी उन्होंने लिखने आरम्भ किये। मनोयोग, अध्ययन और सदुद्देश्यपूर्वक लिखी गई उनकी रचनाएं सम्मान प्राप्त करने लगीं। यौवन के द्वार में प्रवेश करते-करते उनने बहुत कुछ लिख डाला । इन कृतियों ने पराधीनता के बन्धन काटने के लिए जहाँ तड़प पैदा की, वहाँ यह प्रकाश भी दिया कि हमें आखिर करना क्या है, जाना कहाँ है? स्वाधीनता की सार्थकता तभी है, जब उसका उपयोग व्यक्ति को सुसंस्कृत और समाज को सुविकसित करने के लिए हो सके। बदलने वाले युग के उद्गाता की तरह उन्होंने यह सब कुछ पाया। उनका गायन जन- मानस को झंकृत करने में सफल हुआ ही मानना पड़ेगा।

जमींदारी का काम देख- भाल करने की जिम्मेदारी सौंपी गई, पर रोजी - रोटी का प्रश्न जब बिना उनके सिर खपाये भी हल हो सकता था तो वे क्यों पिसे को पीसने में अपना समय बर्बाद करते। जमींदारी का काम घर के दूसरे लोगों पर छोड़कर वे कमाने में नहीं, मानवता का शृंगार करने में जुट गये। उनने एक से एक अभिनव रचनाओं का निर्माण आरम्भ कर दिया। बंगला भाषी जनता उनकी प्रेरणाओं से भाव विभोर हो उठी।

उनके कन्धे जितने मजबूत होते गये उतने ही उत्तरदायित्वों का भार भी लदता गया। ‘भारती’ मासिक पत्रिका का सम्पादन आरम्भ किया। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का बन्द पड़ा हुआ ‘बंग दर्शन’ अपने सम्पादकत्व में पुनः प्रकाशित किया तथा अनेक पत्र- पत्रिकाओं में अपने विचारों को छपाना आरम्भ कर दिया। नव-जीवन संचार की धारा अजस्र रूप से बहने लगी।

टैगोर की भावना उनकी लेखनी में ही नहीं, कृतियों में भी उभर - उभर कर ऊपर आती थी। भारत के अनेक क्षेत्रों में प्लेग फैला तो वे एक सच्चे लोक - सेवी की तरह उनकी सेवा, सहायता में जुट गये। ‘चिर कुमार सभा’ का संगठन करके रचनात्मक कार्यों में अनेक नव-युवकों को लगाया। बिहार भूकम्प के समय पीड़ितों की सहायता के लिए उन्होंने दिन- रात एक करके बहुत काम किया। बंगीय साहित्य सम्मेलन के प्रान्तीय राजनैतिक सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने अपने समय में जो कार्य किया उससे उनकी सेवा साधना में चार चाँद लग गये।

उन्होंने शान्ति निकेतन कला मन्दिर बनाया, जो छोटे रूप में आरंभ होकर विश्व-विद्यालय के रूप तक विकसित हुआ। इस विश्व भारती ने भारत के लिए ही नहीं, संसार भर के लिए सच्चे कला साधकों का-लोक सेवियों का-निर्माण करने में महत्वपूर्ण योग-दान दिया है।

संसार के प्रमुख देशों में भ्रमण करके उनने अपने विचारों का प्रचार यूनान, मिश्र, आस्ट्रेलिया, हंगरी, रुमानिया, इटली, जापान, जर्मनी, स्वीडन, कनाडा, रूस में किया। इंग्लैण्ड, अमेरिका आदि देशों के विश्व-विद्यालयों में उनके भाषण हुए जो बहुत ही पसन्द किये गये। सन् 1913 में उनकी कविता के संग्रह ‘गीताँजलि’ पुस्तक पर ‘नोबेल पुरस्कार’ मिला, उस कविता पुस्तक का अनुवाद संसार की प्रायः सभी भाषाओं में हो चुका है। भारत में तथा भारत से बाहर उन्हें अनेक विश्व विद्यालयों ने ‘डॉक्टर’ की उपाधि दी और भारत सरकार ने भी उन्हें “सर” की उपाधि से सम्मानित किया।

1919 में जलियावाला में जो नृशंस हत्याकाण्ड हुआ उससे उन्हें भारी क्षोभ हुआ। उनके सभापतित्व में इस काण्ड के विरुद्ध एक बड़ी सभा होने वाली थी पर सरकारी प्रतिबन्ध के कारण वह न हो सकी। फिर भी वे अपना क्षोभ प्रकट करते रहे और ‘सर’ की उपाधि वापिस कर दी। वे इंग्लैण्ड दौड़े गये और ब्रिटिश सरकार के भारत मन्त्री से भारतीय जनता का क्षोभ व्यक्त किया। अमेरिका गये और वहाँ की जनता तथा सरकार को अंग्रेजों की दमन नीति से परिचित कराके भारतीय स्वाधीनता के लिए सहानुभूति अर्जित की।

स्वतन्त्रता आन्दोलन को अनुचित नीति से दमन करने की सरकारी नीति के वे दिन-दिन विरुद्ध होते गये। अपना प्रभाव डालकर वे सरकार को ‘अति’ बरतने से रोकते रहे और खुले शब्दों में अपना रोष लेखों और भाषणों में व्यक्त करते रहे। यों रवीन्द्र विशुद्ध रूप से कवि थे, पर कवि केवल गीतकार ही नहीं होता, अनीति को देखकर व्यथित होना भी उसकी सहृदयता की कसौटी होती है। टैगोर सच्चे कवि की तरह अनीति का विरोध करने में कभी पीछे नहीं रहे। अपनी शक्ति के अनुसार उनने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए अपने ढंग से बहुत कुछ किया। सन्त ऐंड्रूज और एनी बेसेन्ट को कवि का पूर्ण सहयोग प्राप्त होता रहा।

साहित्य को उन्होंने नई दिशा में मोड़ा। पाशविक प्रवृत्तियों का चित्रण करके पाठक के पशुत्व को भड़काना उन्होंने एक अनैतिक कार्य समझा और उन लोगों को लताड़ते रहे तो जनता की निम्नगामी रुचि के अनुरूप वस्तुएँ लिखकर सस्ती ख्याति तथा पाप की कौड़ी कमाना चाहते हैं। कवि और साहित्यकार का कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व जनमानस को पतन की ओर से मोड़कर उत्थान की ओर अभिमुख करना है। कुण्ठाओं को हटाकर आशा का प्रकाश उत्पन्न करना है। कर्त्तव्यनिष्ठा कवि ने बहुत लिखा है। कभी-कभी अपने नाटकों में स्वयं भी अभिनय किया है। उनकी कृतियों पर कई फिल्में बनी हैं। उनके उपन्यासों को श्रद्धापूर्वक पढ़ा जाता है और गीतों को भावनापूर्वक गाया जाता है। इस लोक-प्रियता के पीछे कवि का वह महान् व्यक्तित्व और कर्तृत्व काम करता है, जिसने मानवता की सेवा को ही अपना लक्ष्य रखा और उसी के लिए अपने को खपा दिया।


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