तत्कर्म यन्नबन्धाय सा विद्या सा विमुक्तये।
आयासाया परं कर्म, विद्याऽन्या शिल्पनैपुणम्॥
- विष्णु पुराण
कर्म वही है जिससे बन्धन टूटें, नहीं तो वह प्रयास मात्र है। विद्या वही है, जिससे मुक्ति प्राप्त हो, नहीं तो वह शिल्प - निपुणता मात्र है।
सात्विकता की अभिवृद्धि होने से आत्मा में असाधारण शान्ति, सन्तोष, प्रसन्नता और प्रफुल्लता का आनन्द छाया रहता है। सदाचरण से जीवन का प्रत्येक क्षेत्र फलता - फलता दिखाई देता है। सत्कर्म मनुष्य को ऊँचे उठाते हैं। सभी प्रकार के सुखों और सफलताओं की कुँजी यह आत्म - निरीक्षण की प्रवृत्ति जिसने अपना ली उसका कायाकल्प होते देर न लगेगी। मनुष्य शरीर में भी देवत्व के दर्शन यदि कहीं सम्भव हो सकते हैं तो वे शीलवान् पुरुष में प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं, इसलिए अपना प्रत्येक कार्य सतोगुणी हो। भावनाओं में लोक-कल्याण सन्निहित हो। ऐसा कर सकें तो हमारे शरीर और मन का रोग मुक्त, शाँत एवं संतुलित रहना संभव हो सकता है।
स्वाध्याय सन्दोह -