विज्ञानवेत्ता-लियो जिलार्ड

September 1964

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अणु विस्फोट में सबसे पहले जो चार वैज्ञानिक सफल हुए उनमें से एक लियो जिलार्ड भी थे। इस आविष्कार का पेटेण्ट भी अमेरिका में जिलार्ड और उनके एक साथी फरमी के नाम से ही हुआ था। अणु शक्ति के व्यावहारिक उपयोग और उसकी महती संभावनाओं से सुप्रसिद्ध विज्ञानवेत्ता आइंस्टीन को जिलार्ड ने ही परिचित कराया था। आगे चलकर उसी आधार पर मैनहटन योजना को स्वीकार करते हुए प्रेसीडेण्ट रुजवेल्ट ने अणु बम बनाने की स्वीकृति दी थी और तभी से संसार में यह नया आतंक जन्मा।

अणु अन्वेषणों के सम्बन्ध में निरन्तर संलग्न रहते हुए उनका शरीर किसी प्रकार रेडियो सक्रियता से प्रभावित हो गया और उन्हें ऐसे केन्सर से ग्रस्त होना पड़ा, जिसका कोई इलाज न था। डॉक्टर उन्हें असाध्य घोषित कर चुके थे, मृत्यु उनकी सुनिश्चित हो चुकी थी, इस सर्वविदित तथ्य से परिचित हो जाने पर कभी-कभी उनके मित्रगण विदाई की भेंट करने के लिए आया करते थे।

इन भेंट करने वाले मित्रों ने जिलार्ड की मृत्यु के उपरान्त जो संस्मरण लिखे हैं, उनसे विदित होता है कि अन्तिम समय तक निराशा, खिन्नता और उदासी उन्हें स्पर्श तक कर सकने में असमर्थ रहीं। वे अपने डाक्टरों को अपनी चिकित्सा के सम्बन्ध में परामर्श देते और वे जो भूल करने वाले थे उसे समझाते हुए “रेडियोलोजी” के रहस्यों को समझाते हुए बताते कि इस तरह के रोगों में क्या उपचार कितना उपयोगी और कितना निरुपयोगी हो सकता है? डॉक्टर उनकी उपचार व्यवस्था करने से पूर्व अणु रोगों की चिकित्सा के बारे में भी सिद्धान्तों का निर्धारण उन्हीं के परामर्श से करते।

नार्मन कजिन्स ने अपनी मुलाकात का वर्णन करते हुए लिखा है- उनकी मेज पर अनेकों महत्वपूर्ण कागजों का ढेर लगा था। जिनमें निशस्त्रीकरण अभियान सम्बन्धी साहित्य की पाण्डु लिपियाँ, संस्करण, शोध कार्यों की पृष्ठभूमि तथा अनेक वैज्ञानिक विवेचनाओं की रूप-रेखाएँ भरी पड़ी थीं। वे उन ग्रन्थों को नियमित रूप से लिखते और संसार भर के वैज्ञानिकों की विभिन्न जिज्ञासाओं से भरे उनके पत्रों के लम्बे उत्तर स्वयं ही लिखते। कोई मिलने वाला आता तो चुटकुले सुनाकर उसे हँसाते और उस हँसी में स्वयं भी खो जाते। सहानुभूति प्रकट करने, सान्त्वना देने के उद्देश्य से आने वाले मित्र वहाँ दूसरा ही वातावरण देखते तो दंग रह जाते। वहाँ मौन की मनहूसी नहीं, वरन् जिन्दगी की अठखेलियाँ काम कर रही होतीं, जिनका स्पर्श करके सहानुभूति का प्रदर्शन करने आने वाले आगन्तुक उल्टे सहानुभूति के पात्र होकर वापिस लौटते।

जिलार्ड ने विज्ञान की शोध के लिए जीवन भर बहुत काम किया। उन्होंने प्राणि-शास्त्र, जीव - विज्ञान, भूगर्भ, अणु विज्ञान एवं रेडियोलौजी के सम्बन्ध में अनेक तथ्यों की शोध की और उन खोजों से विज्ञान क्षेत्र में भारी लाभ उठाया गया। जीवन के अन्तिम दिनों में वे अणु शस्त्र की विभीषिका और उसके कारण मानव जाति के होने वाले अहित की चेतावनी संसार को देने में लगे हुए थे। उनका मत था कि अणु शक्ति को विश्व संघ द्वारा ऐसे नियन्त्रण में रखा जाय जिससे उसका उपयोग ध्वंसात्मक कार्यों में नहीं, वरन् रचनात्मक प्रयोजनों के लिए ही किया जाय। विज्ञान का विस्तार करना ही नहीं, उसका सदुपयोग भी उन्हें अभीष्ट था।

इस महान् वैज्ञानिक ने अपनी अन्तिम साँसें काम करते करते ही पूरी कीं। जब तक उनका शरीर कुछ भी करने योग्य रहा वे बराबर अपने महान् विज्ञान के लिए काम करते रहे। बिस्तर पर पड़े-पड़े भी वे दूसरे वैज्ञानिकों को परामर्श देते और उनका मार्ग दर्शन करते, ग्रन्थ लिखते और विचारणा द्वारा शोध में निमग्न रहते। मरने के अंतिम क्षण तक वे हँसते मुस्कुराते रहे और आगे क्या करना है, इसी की चर्चा करते रहे। मृत्यु का भय उन्हें छू भी न सका। निराशा और खिन्नता को उन्होंने पास भी न फटकने दिया क्योंकि वे जिन्दगी का स्वरूप जानते थे और समझते थे कि जब आत्मा की मृत्यु होती ही नहीं, शरीर मात्र ही बदलता है तो मरने से डरने की बात ही क्या रह जाती है। विज्ञान केवल भौतिक पदार्थों के ही नहीं, जीवन विद्या के क्षेत्र में भी प्रवेश करता है। सच्चे वैज्ञानिक की तरह उनने जिन्दगी को भी वैज्ञानिक ढंग से ही जी कर दिखाया।


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