सत्य से बढ़कर और कुछ नहीं

September 1964

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सत्य ही सर्वोपरि है -

सत्य से परे कुछ नहीं। जिस प्रकार प्रकाश के बिना कोई वृक्ष फल - फल नहीं सकता, उसी प्रकार सत्य के बिना जीवन सफल तथा सार्थक नहीं हो सकता। जिस घर की दीवारें सीधी खड़ी न हों उसके किसी भी क्षण गिरने की सम्भावना बनी ही रहेगी। इसी प्रकार सत्य - विहीन जीवन में पतन की आशंका का बना रहना स्वाभाविक है।

सच्चाई की खातिर अपने सुख-दुःख, मान- अपमान, हानि-लाभ तथा हार-जीत की परवाह न करो। अपने व्यक्तित्व से सम्बन्ध रखने वाली वस्तुओं को अकारण भली और दूसरे से सम्बन्ध रखने वाली वस्तुओं को बुरी समझने का स्वभाव त्याग दो। स्वमत को इसलिये बड़ाई मत दो कि वह तुम्हारा मत है। इसी प्रकार दूसरों के मत को भी निरपेक्ष भाव से देखा करो। अपनी स्तुति सुनकर न फूलो और न अपनी आलोचना सुनकर या पढ़कर क्रोध करो। अपनी स्तुति, निन्दा पर दृष्टि न रखते हुए केवल सत्य का अनुसन्धान किया करो। यही ज्ञानालोक पाने का रहस्य है।

सत्य में ही हर एक की और सभी की भलाई है। यह सारा जगत सत्य के प्रकाश के लिए ऐसा ही साधन है जैसा कि अग्नि के लिए ईंधन। विश्व, जगत सत्य के लिए ही है। इसलिए चरित्रवान पुरुष फल की परवाह न करता हुआ अटल निश्चय रखता है कि अन्त में, सत्य में ही सबका हित और कल्याण है।

-चरित्र - विकास

शाब्दिक सत्यता बनाम आन्तरिक सत्यता -

सच्ची सत्यता तो अन्तःकरण की ही होती है, केवल शब्दों की नहीं। कई बार तो लोग केवल शब्दों पर वितण्डावाद किया करते हैं और उसी से अपने को सत्यवादी सिद्ध करना चाहते हैं। उदाहरणार्थ कोई व्यक्ति भोजन करके बाहर आया और किसी ने पूछा कि ‘रोटी खा आए?’ “उसने उत्तर दिया --”नहीं।” वास्तव में बात यह ठीक थी कि उसने केवल चावल खाया था, रोटी नहीं खाई थी। पर पूछने वाले का आशय ‘रोटी’ से भोजन का ही था। यह शाब्दिक वितण्डावाद नहीं तो क्या है? ऐसे शब्दों के वितण्डावाद से असत्य का दोष दूर नहीं हो सकता। इसमें शब्द सत्य होने पर भी भाव झूठे हो सकते हैं। इसलिए शाब्दिक सत्यता ही सत्यता नहीं, वास्तविक सत्यता भावों की, अन्तःकरण की होनी चाहिए।

प्रधान सत्यता व्यावहारिक है, चाहे उसके लिए प्रत्यक्ष कर्म करना पड़े या न पड़े - प्रत्यक्ष बोलना पड़े या न पड़े। जिस समुदाय या समाज में केवल शाब्दिक सत्यता का मान होगा और व्यावहारिक सत्यता का विचार न रहेगा, वह अधोगति में ही पड़ा रहेगा, उसकी नैतिक स्थिति सुधरने की आशा नहीं।

-सत्य की श्रेष्ठता

सत्य में ‘प्राचीन’ और ‘नवीन’ का झंझट क्यों ?

सत्य के यथार्थ खोजी के सामने जो भी प्रश्न आये उसे बिना पक्षपात के उन पर विचार करना चाहिए। राग-द्वेष से रहित होकर, बिना लालच या भय से वशीभूत हुए आपको अपनी विचार शक्ति से काम लेना चाहिए। प्रत्येक प्रश्न से सम्बन्धित प्रमाणों को, तर्कों को ईमानदारी से बुद्धि की तराजू पर रखकर तोलना चाहिए, ऐसी तराजू पर जो रागद्वेष से प्रभावित न हो। आपको किसी शब्द प्रमाण (शास्त्रीय वचन) की, किसी बड़े नाम की, परम्परा की या सिद्धान्त की परवाह नहीं करनी चाहिए। आपको ऐसी किसी चीज की परवाह न करनी चाहिये जिसे आपकी बुद्धि सत्य न मानती हो।

सत्य का यथार्थ खोजी किसी ‘प्राचीन’ बात को ‘प्राचीन’ होने के कारण स्वीकार नहीं कर सकता और न ‘नवीन’ बात को नवीन होने के कारण अस्वीकार करता है। वह किसी बात को केवल इसलिए स्वीकार नहीं करता कि वह मर चुकी है, और न वह किसी के कथन का केवल इसलिए खण्डन करता है कि वह जीवित है। इसलिए आप प्रत्येक कथन का मूल्य इसी आधार पर लगाइए कि वह कितना तर्कानुकूल है। इस बात पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं कि वह बात किसने कही है। बात कहने वाला एक राजा भी हो सकता है और एक गुलाम भी हो सकता है -- एक दार्शनिक भी हो सकता है और एक नौकर भी हो सकता है। पर इससे किसी कथन की सत्यता अथवा तर्कानुकूलता न तो बढ़ती है, न घटती है। कथन का मूल्य कहने वाले के यश अथवा पद से सर्वथा स्वतन्त्र है। इसलिए आप उसी को स्वीकार करें जिस पर वास्तव में आपको विश्वास हो कि यह सत्य है।

-स्वतंत्र चिन्तन

सच्ची सफलता का एक मात्र साधन

ईमानदारी सफलता का सबसे प्रधान साधन है। एक दिन ऐसा जरूर आता है। जब बेईमान आदमी दुःख और विपत्ति में फँसकर अपनी बेईमानी पर पश्चाताप करने लगता है। लेकिन ऐसा कोई भी आदमी नहीं जिसे अपनी ईमानदारी पर पश्चाताप करना पड़ा हो। हालाँकि कभी-कभी ईमानदार आदमी भी असफल हो जाते हैं, क्योंकि वे मितव्ययिता, योजना तथा व्यवस्था जैसे तीन स्तम्भों का निर्माण करने में असफल रहते हैं। परन्तु उनकी असफलता इतनी अधिक दुखदायी नहीं होती जितनी की बेईमान व्यक्ति की होती है, कम-से-कम उन्हें इतना सन्तोष तो होता है कि उन्होंने कभी किसी व्यक्ति को धोखा नहीं दिया। अपने जीवन के अन्धकारयुक्त क्षणों में भी वे अपनी आन्तरिक पवित्रता पर सन्तोष अनुभव कर सकते हैं।

अज्ञानी लोग यह सोचते हैं कि समृद्धि प्राप्त करने के लिये बेईमानी ही सबसे सीधा मार्ग है। ऐसा इसलिये होता है कि वे पहले से ही बेईमानी पर आचरण करने वाले होते हैं। बेईमान आदमी नैतिकता की दृष्टि से अदूरदर्शी होता है। जिस प्रकार एक शराबी केवल तात्कालिक आनन्द को ही देखता है, उसके अन्तिम परिणाम को नहीं देखता। वह नहीं समझ पाता कि इस प्रकार के आचरण से उसका चरित्र नष्ट होता है और वह अपनी व्यापार या नौकरी का विध्वंस कर लेता है। इसी प्रकार दूसरों के प्राप्य धन को अपनी जेब में रखकर भले ही हम यह सोच लें कि कितनी चालाकी और सफलता के साथ हमने दूसरे को ठग लिया, लेकिन उस समय हम इस यथार्थता को नहीं समझ पाते कि वास्तव में हमने अपने को ही छला है। बेईमानी से प्राप्त पैसे को मय सूद के जाना पड़ेगा, और इस न्याय से हम किसी प्रकार न बच सकेंगे। जिस प्रकार आकाश में फेंका हुआ पत्थर आकर्षण शक्ति के सिद्धान्तानुसार पृथ्वी पर ही लौटकर आता है उसी प्रकार नैतिक गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त भी अटल रूप से काम करता रहता है।

- सफलता के आठ साधन

सच्चे आदर्शों का प्रतिपालन ।

मनुष्यों के उच्च ध्येय और आदर्शों का सम्बन्ध सिद्धान्तों से बहुत अधिक है। सारे नैतिक नियम आदर्श ही होते हैं। सत्य बोलो, चोरी मत करो, परस्त्री समागम पाप है, उपकार करना धर्म है, विपत्ति में धैर्य रखना चाहिए, इत्यादि नियम जीवन के आदर्श हैं। ऐसे नियमों के विषय में अनेक लोग शंकाएं उठाया करते हैं कि हाँ, देखने में तो नियम बहुत अच्छे हैं, पर ये व्यवहार में नहीं आ सकते। ऐसे लोगों को जानना चाहिए कि बहुसंख्यक लोग इन नियमों का न्यूनाधिक परिमाण में पालन करते हैं और तभी कुटुम्ब, समाज और राज्य स्थिर रहते हैं। इनको न मानने वालों की संख्या थोड़ी है। हम सबकी स्पष्ट इच्छा रहती है कि सब लोग सदैव इन नियमों के अनुसार चलें। जब कभी इनके विपरीत कोई बात देख पड़ती है, तो हम अपनी अप्रसन्नता प्रदर्शित करते हैं। इस कारण ठीक विचार न कर सकने वाले लोगों को ऐसा जान पड़ता हैं कि इन नियमों का वास्तविक रूप में पालन नहीं होता और न हो सकना सम्भव है। परन्तु यह उनके उथले मन का भ्रम है। यह मानना पड़ेगा कि मनुष्य में कमजोरियाँ हैं, वह कभी-कभी मनोविकारों के अधीन हो जाता है, और उस समय वह इन नियमों को भंग करने लगता है। परिणाम स्वरूप उसकी अधोगति हो जाती है। मनुष्य उच्च बना रहे और समाज का कार्य ठीक- ठीक चलता रहे, इसके लिए ऐसे आदर्श नियमों की बड़ी आवश्यकता है।

- नीति निबन्धावली


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