लोक-मानस की शुद्धि कौन करेगा?

July 1961

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

संसार के सभी महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिये एक विशेष योग्यता और शक्ति की आवश्यकता होती है। अनेक व्यक्ति कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य करने की आकांक्षा तो करते हैं पर उनकी पूर्ण करने के लिये जिस क्षमता एवं शक्ति की आवश्यकता है उसे सम्पादित नहीं करते, फलस्वरूप उन्हें सफलता से भी वंचित ही रहना पड़ता है। जिनने भी कोई बड़ा पुरुषार्थ किया हैं, बड़ी विजय प्राप्त की है उनने तात्कालिक परिस्थितियों से ही सब कुछ नहीं कर लिया होता वरन् उनकी पूर्ण तैयारी ही उस सफलता का मूल कारण रही होती है।

आसुरी प्रकृति से बढ़ने और फैलने की शक्ति, दैवी प्रकृति में अधिक हैं। कुविचारों और कुकर्मों की ओर मन जितनी आसानी से आकर्षित होता है उतना सद्विचारों और सत्कर्मों की ओर नहीं। बुराइयों में उठे हुये अपने प्रत्यक्ष आचरण द्वारा बुराइयों को बढ़ाने और फैलाने वाले व्यक्ति संख्या और सक्रियता की दृष्टि से अग्रगामी रहते हैं। इसके विपरीत अच्छाइयों से परिपूर्ण, उच्च मनोभूमि वाले ऐसे व्यक्ति बहुत ही कम होते हैं जो अपने साथी बनाने और बढ़ाने के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहें। परिणाम यह होता है कि संसार में धीरे-धीरे बुराइयाँ बढ़ती रहती हैं, अच्छाइयों की तुलना में उनकी मात्रा बहुत अधिक हो जाती है। तब नाना प्रकार के क्लेश, कलह, और शोक संताप बढ़ते है और सर्वत्र दुःख दरिद्र की अधिव्याधि की परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती है। इन्हें देख कर सहृदय सत्पुरुष द्रवित होते हैं और उस विषय परिस्थितियों का समाधान करने का प्रयत्न करते है।

ऋषि, मुनि, संत महात्मा नेता, सुधारक, देवदूत, लोक सेवी प्रकृति के मनुष्य सदा यही प्रयत्न करते हैं कि संसार में बुराइयाँ घटे और उनके पर अच्छाइयों की अभिवृद्धि हो, ऐसे प्रयत्न सफल भी होते है और उनके सत्प्रयत्नों से काफी समय तक के लिये शान्तिमय सतोगुणी वातावरण उत्पन्न हो जाता है। आनंद और उल्लास का सभी को अनुभव होता हैं।

जन मानस में से दुष्प्रवृत्तियों को हटा कर उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियों की स्थापना करना अत्यंत ही उच्च कोटि का, अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण कार्य हैं। इसकी तुलना में और सभी सत्कार्य तुच्छ बैठते है। विवेकशील उच्च आत्माएँ समय-समय पर इस आवश्यकता को अनुभव करती हैं और वे लोक मानस में सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने के लिये प्राणपण से प्रयत्न करती रहती है। यह कार्य जितना ही महान् है उतनी ही महान् क्षमता और शक्ति भी इसके लिये अपेक्षित होती है। यदि उसका अभाव रहा तो इस प्रकार की कामना और भावना रहते हुये भी कुछ विशेष सफलता नहीं मिलती।

आज का वातावरण बहुत हद तक दूषित ही चला है। उसमें आसुरी तत्त्व एक बड़ी मात्रा में उत्पन्न हो गये हैं। अनीति, अन्याय, अधर्म और अकर्म का चारों ओर बोलबाला हैं। स्वार्थ, पाप, वासना, तृष्णा, ममता और अहंकार की तूती बोल रही है। एक दूसरे को शोषण करके, सताकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने में कटिबद्ध हो रहे है। प्रेम की, उदारता, सहृदयता, सेवा और सज्जनता की मात्रा दिन-दिन घटती जा रही है, फलस्वरूप ऐसी घटनाओं की बाढ़ आ रही है जिनमें चीत्कार एवं हाहाकार की भरमार रहती है। लगता है कि यह प्रवृत्तियाँ बढ़ती रही तो मानव सभ्यता ही खतरे में पड़ जायेगी। विज्ञान ने मनुष्य के हाथ में विनाश की भी एक बड़ी शक्ति दे दी है। एटम शक्ति के आधार पर किसी सिर फिरे का एक छोटा-सा पागलपन कुछ ही क्षणों में सारे संसार के लिये तबाही उत्पन्न कर सकता है। ऐसे जमाने में इस बात की अत्याधिक आवश्यकता है कि लोग सज्जनता और मानवता के आवश्यक गुणों से सम्पन्न हों अन्यथा विज्ञान से प्राप्त हुई शक्ति के सहारे दुर्गुणों से ग्रसित मानव शाक संताप के गहन गर्व में आसानी से पाने की बात में डूब मरने की परिस्थिति पैदा कर लेगा।

इस ओर विवेकशील लोगों का ध्यान गया हैं। वे लोक सुधार के लिये अपने-अपने ढंग से काम भी कर रहे है। प्रवचन और लेख द्वारा यह कार्य सरल हो सकता है। उस विचार से अनेकों उपदेश प्रवचनकर्ता, लेखक, पत्रकार बहुत प्रयत्न कर रहे है। अनेकों सभा साँसाइटियाँ इसी उद्देश्य के लिये विविध-विधि मनोरंजक आयोजनों की व्यवस्था करती रहती हैं। सरकारें भी इसके लिये सनेष्ट है। राजनैतिक कर्ण धार जनता को सज्जनता अपनाने की अपील करते रहते हैं। उनके प्रचार साधन, रेडियो, चलचित्र, बुलेटिन विज्ञप्ति, पत्रिकाएँ आदि कार्य भी इसी उद्देश्य के लिये बहुत व्यय और प्रयत्न करते हैं। किन्तु जब विचारपूर्वक इन सब कार्यों के परिणामों को देखा जाता है तो भारी निराशा होती हैं। लगता है कि प्रयत्न की तुलना में परिणाम की मात्रा बहुत ही नगण्य है। बुराइयाँ जितनी तेजी से बड़ रही है और सुधार के प्रयत्न जिस प्रकार निष्फल से सिद्ध हो रहे हैं उसे देखते हुये हर विचारशील व्यक्ति के मन में व्यथा होना स्वाभाविक है।

यह प्रश्न बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि लोक मानस में से दुष्प्रवृत्तियों को हटा कर उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियों को स्थापित करने का वास्तविक उपाय क्या है? इसके उत्तर ढूँढ़ने के लिये हमें इतिहास के पृष्ठ उलटने पड़ेंगे और यह देखना पड़ेगा कि जिन महापुरुषों ने इस प्रकार की विषम परिस्थितियों से अपने समय में जन मानस को सुधारा था उनमें क्या विशेषता थी जिसके कारण वे स्वल्प साधनों से ही चमत्कार उत्पन्न कर सके, जब कि हमारे आज के सुधारक विविध विधि साधनों से सम्पन्न होने पर भी कुछ कर नहीं पा रहे है।

पूर्व काल में लाखों करोड़ों वर्षों तक सतयुग की सुख शान्ति भरी परिस्थितियाँ इस संसार में बनी रही है। इसका कारण एक ही रहा है कि इस समय के लोक नायक, मार्ग दर्शक आत्म शक्ति से सम्पन्न रहे और वाणी से नहीं अपनी आन्तरिक महानता की किरणें फेंक कर जन मानस को प्रभावित करते रहे। मस्तिष्क की वाणी मस्तिष्क तक पहुँचती है और आत्मा की आत्मा तक। कोई सुशिक्षित व्यक्ति अपनी ज्ञान शक्ति का लाभ सुनने वालों की जानकारी बढ़ाने के लिये दे सकता है पर अन्तःकरण में जमी हुई आस्था में हेर फेर करने का कार्य ज्ञान से नहीं आत्मिक शक्ति से ही सम्पन्न होना संभव है। प्राचीन काल के लोक नायक ऋषि मुनि इस तथ्य को भली-भाँति जानते थे इसलिये वे दूसरों के उपदेश देने में उनकी बाह्य सेवा करने में जितना समय खर्च करते थे उससे कहीं अधिक प्रयत्न वे अपना आत्म बल बढ़ाने के लिये तप करने में लगाते थे। तप से ही वह आत्म शक्ति प्राप्त होती है जिसकी प्रेरणा से किसी के मन पर जमे हुए बुराइयों के आकर्षक कुसंस्कारों को हटा कर अच्छाइयों के कष्टसाध्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी जा सके।

उस समय में जब कि लोकनायकों ने जनता के विचारों और कार्यों को उच्च स्तर पर स्थिर रखने में वास्तविक सफलता प्राप्त की थी, तप साधना का महत्व भली प्रकार समझा जाता था। प्रत्येक ऋषि इस ओर दत्त चित्त रहता था। वह जानते थे कि यदि तप के अभाव में हमारी आत्मा दुर्बल रही तो प्रवचन मात्र से कुछ प्रयोजन सिद्ध न होगा। आज के उपदेशक जिस प्रकार अपनी चतुरता, योजना, दौड़-धूप संगठन शक्ति या भाषण शैली पर विश्वास करके उन्हीं के सहारे सब कुछ कर लेने की बातें सोचते हैं और स्वतः विलासी जीवन बिताते हुये जनता को अन्धी भेड़ों की तरह चाहे जिधर हाँक ले जाने की बात सोचता हैं। प्राचीन काल में कोई उस तरह नहीं सोचता था। जो कोई भी नेता बनने की महान् जिम्मेदारी अपने कंधे पर लेने की बात सोचता था वह सबसे पहले अपने आपको तपस्या से तपा डालने की तैयारी करता था। इस माध्यम से वह अपने की जितना ही पवित्र करता चलता था उतना ही कदम लोक सेवा के लिये मानस को उत्कृष्ट बनाने के लिये उठाता था।

प्राचीन काल के इतिहास पुराणों में यह तथ्य बिलकुल स्पष्ट है। पिछले दो हजार वर्षों में भी इसी आधार पर जन मानस का सुधार एवं परिवर्तन करना संभव होता रहा है। भगवान बुद्ध के मन में अपने तथा संसार के दुखों का निवारण करने की आकांक्षा जगी इसके लिये वे 25 वर्ष की आयु में घर से निकल पड़े और 20 साल तक निरन्तर विभिन्न स्थानों पर आत्म निर्माण एवं तप साधना में संलग्न रहे। 41 वर्ष की आयु में उनने अपने अन्दर परिपक्वता अनुभव की तो दूसरों को शिक्षा देने के कार्य में हाथ लगाया। भगवान महावीर ने अपनी आयु का तीन चौथाई भाग तप में और एक चौथाई भाग धर्मोपदेश में लगाया। इन दोनों महापुरुषों ने उपदेश उतने नहीं दिये जितने आज के मामूली उपदेशक दे लेते हैं। फिर भी उनका प्रभाव पड़ा और आज भी संसार की एक चौथाई जनता उनकी शिक्षाओं पर आस्था रखती है।

जगद्गुरु शंकराचार्य ने उत्तराखण्ड में जोशीमठ स्थान पर उग्र तप किया था। वे बत्तीस वर्ष की आयु लेकर आये थे। विद्या पढ़ने के बाद लगभग 11 वर्ष उनके जीवन में काम करने के लिये शेष थे इसमें से भी आधा समय उनने तप में लगाया और शेष 6-8 वर्षों में ही अपनी आत्म शक्ति के बल पर वैदिक धर्म के उद्धार के लिये अत्यन्त प्रभावशाली कार्य कर डाला। गुरु नानक की तपश्चर्या प्रसिद्ध है। गुरु गोविन्दसिंह ने हिमालय में लोकपत स्थान पर जहाँ घोर तप किया था वह स्थान आज की सिख धर्मानुयायियों का तीर्थ बना हुआ है। यदि इन गुरुओं के पास तप की पूँजी न रही होती तो वे दुर्धैर्य यवन काल में हिन्दू धर्मं की रक्षा के लिये इतना अछूत कार्य कर सकने में कदापि समर्थ न हो सके होते।

समर्थ गुरु रामदास ने छत्रपति शिवाजी सरीखे कितने ही महापुरुष तैयार किये थे। इतिहास के पृष्ठों पर उनमें से अकेले शिवाजी ही चमके पर उस तरह के सैकड़ों धर्म सैनिक उनने बना कर दिये थे। इस निर्माण में उनकी आत्मा का प्रभाव ही प्रधान रूप से काम करता था। स्वामी दयानन्द 19 वर्ष की आयु में घर से निकले और 42 वर्ष की आयु में अपने आपको धर्म प्रसार के योग्य बना सके। संवत् 1924 के कुंभ में हरिद्वार में उनने पाखण्ड खण्डिनी पताका फहराई और धर्मोपदेश दिये पर उनका कुछ विशेष प्रभाव न पड़ा। इसका कारण, उनने अपने आत्मबल की न्यूनता समझा और तीन वर्ष के लिये पुनः तप करने उत्तराखण्ड के अज्ञात स्थानों को चले गये। गंगोत्री के पास कराली की गुफाओं में रह कर उनने तपस्या की और जब अन्दर प्रकाश देखा तो कार्य क्षेत्र में उतरे। उस समय उनकी वाणी में दैवी तेज था। उसी के बल पर वे अकेले ही इतना कार्य कर गये जितना अनेकों संगठित सभाएँ मिलकर भी आज नहीं कर पा रही हैं।

रामकृष्ण परमहंस 49 वर्ष की आयु में स्वर्गवासी हुये 40 वर्ष की आयु तक वे विशुद्ध रूप से साधना रत रहे। एक दिन उन्हें लगा कि उन्हें शिष्य प्राप्त होने वाले हैं। एक वर्ष वे शिष्यों की प्रतीक्षा करते रहे। अन्त में उन्हें ब्रहाँनंद, शिवानन्द और विवेकानन्द जैसे थोड़े से प्रतिभा सम्पन्न शिष्य घर बैठे प्राप्त हुये और उन्हीं के सहारे उनकी आत्मा ने संसार को हिन्दू संस्कृति का महान् संदेश दिया। स्वामी विवेकानंद का धर्म प्रचार कार्य प्रसिद्ध है पर उससे पहले उनने भी रामकृष्ण परमहंस के बताये अनुसार कई वर्ष तपश्चर्या करके आत्मा को तपाया था।

योगी अरविन्द घोष, महर्षि रमण, स्वामी रामतीर्थ की तपश्चर्या प्रसिद्ध है। वैष्णव आचार्यों में से रामानुजाचार्य, निम्बाकाचार्य, माधवाचार्य, प्रभृति आचार्यों ने जितना ज्ञान संचय किया था उतनी ही तप साधना भी की थी।

संसार के अन्य वे महापुरुष जिनने लोगों की आत्मा को उच्च भूमिका की ओर बढ़ाया निश्चित रूप से तपस्वी थे। महात्मा ईसा के जीवन में 27 वर्ष तपश्चर्या में लगे। मुहम्मद ने 25 साल की आयु में साधना की ओर कदम बढ़ाया और 40 साल तक वे उसी में संलग्न रहे। 65 वर्ष की आयु में उनने धर्मोपदेश और इस्लाम की स्थापना का कार्य आरंभ किया। यहूदी धर्म के संस्थापक यहोवा और पारसी धर्म के देवदूत जरदुश्त की दीर्घकालीन कठोर तपश्चर्याएँ प्रसिद्ध है।

इसी प्रकार संसार में आदि काल से लेकर अब तक एक ही तथ्य समय-समय पर स्पष्ट होता रहा है कि तपश्चर्या द्वारा आत्मबल सम्पादित करने वाली आत्मायें ही संसार का सच्चा मार्ग दर्शन करने और जन मानस को शुद्ध करने में समर्थ हो सकती हैं।

आज का लोक मानस निम्न से निरन्तर स्तर की ओर तेजी से गिरता जा रहा है। उसे संभालने और सुधारने की नितान्त आवश्यकता है। पर यह कार्य आत्मबल से रहित, तपश्चर्या से विहीन व्यक्तियों द्वारा सम्पन्न नहीं हो सकता भले ही वे सभा सुसाइटियों के द्वारा, भाषणों, लेखों योजनाओं प्रदर्शनों के द्वारा इसके लिये सिर तोड़ प्रयत्न करते रहें। यह महान् कार्य महान्


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118