धर्म पुराणों की सत्कथाएँ

July 1961

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द्वेष बुद्धि का दुष्परिणाम

वसिष्ठ और विश्वामित्र प्राचीन युग के सुप्रसिद्ध ऋषि थे। ये दोनों ही परम ज्ञानी और विद्या बुद्धि के भंडार थे, पर इनमें ऐसी शत्रुता का भाव उत्पन्न हो गया था कि एक दूसरे को देखते ही अपशब्द कहने लगते थे। एक बार वशिष्ठ इन्द्र के यज्ञ में जाने के लिए जैसे ही आश्रम से बाहर निकले कि उनका विश्वामित्र से सामना हो गया। दोनों एक दूसरे पर अपशब्दों की बौछार करने लगे और अन्त में वशिष्ठ ने विश्वामित्र ने भी आप देकर उनको ‘आडी’ नाम का पक्षी बना दिया। वे दोनों ही एक सरोवर के तट पर घोंसला बना कर रहने लगे और पूर्व बैर को स्मरण करके नित्य प्रति युद्ध करने लगे। उनके जो बच्चे और सम्बन्धी थे वे भी लड़ाई में भाग लेने लगे। यह युद्ध बहुत वर्षों तक चलता रहा जिसके कारण वह रमणीक सरोवर और आस पास का दर्शनीय प्रदेश घृणित रूप में परिवर्तित हो गया। इस दुर्दशा को देखकर पितामह ब्रह्मा वहाँ पधारे और उन्होंने वशिष्ठ तथा विश्वामित्र दोनों को शाप मुक्त करके बहुत डाँटा- फटकारा कि तुम ज्ञानी और तपस्वी होकर यह कैसा मूर्खों का सा कार्य कर रहे हो जिससे असंख्यों व्यक्ति दुःख पा रहे हैं और निन्दा कर रहे हैं। उन्होंने दोनों को खूब समझा दिया कि इस प्रकार की द्वेष बुद्धि रखना बड़ी अधर्मता की बात है। ज्ञानी तो दूसरे की दो अनुचित बातें भी सहन कर लेता है और क्षमा वृत्ति से काम लेता है। ब्रह्मा जी का आदेश को मानकर वे दोनों प्रेम पूर्वक मिले और भविष्य में कभी ऐसे निर्बुद्धिता का कार्य न करने की प्रतिज्ञा की।

महाराज सगर की न्यायशीलता

सूर्य वंश में महा सगर बड़े प्रतापी और विख्यात नरेश हो गये है। संतान के लिए उन्होंने अनेक साधु सन्तों की सेवा की तो उनको संतान की प्राप्ति हुई। पर भाग्यवश उनका बड़ा पुत्र बड़े दुष्ट स्वभाव का निकला। वह बालकों को पकड़कर अकारण ही सरयू नदी में डुबा देता था। जब प्रजा ने इस बात की शिकायत राजा से की तो उन्होंने राजपुत्र को न्यायालय के समक्ष बुलाया। यद्यपि मंत्रियों ने उसे पागल बताकर क्षमा करने का आग्रह किया, पर राजा ने उसे दोषी पाकर अपने राज्य से निकाल दिये जाने का दण्ड दिया। साथ ही उन्होंने यह भी आज्ञा दे दी कि “जो कोई उसे ठहरा कर उसकी किसी प्रकार की सहायता करेगा वह भी दण्डनीय होगा।” राजा की दूसरी रानी से और भी बहुत से पुत्र हुये थे पर वे कपिल मुनि से दुर्व्यवहार करने के कारण भस्म किये जा चुके थे। रानियों ने इस पुत्र को क्षमा करने के लिए बहुत कहा पर सगर न्याय पथ से विचलित न हुए उनने पुत्र को देश निकाला दे ही दिया। राजा सगर ने असमंजस के पुत्र अंशुमान् को बुलाकर अपने पराये का विचार न करते हुए उसे अच्छी तरह शिक्षा दी और राज्य सिंहासन का उत्तराधिकारी नियत किया। अन्याय मूलक काम चाहे अपने सगे सम्बन्धियों द्वारा ही क्यों न किया जाय, उसे सहन करना अन्याय को प्रोत्साहन देना है।

अतिथि सत्कार की महिमा

दुर्दान्त नाम का व्याध एक दिन जंगल में शिकार को गया। अनेक व्यक्तियों को मार कर तथा कुछ को पकड़कर वह संध्या समय घर वापस जाने लगा तो अचानक बड़े जोर का तूफान आया और ओलों की वर्षा होने लगी। इस विपत्ति का देखकर वह भागा और बहुत कष्ट सहकर एक पेड़ के नीचे जाकर गिर गया। उसकी दुर्दशा देखकर पेड़ के ऊपर रहने वाले एक कबूतर को तरस आया। उसकी कबूतरी को पहले ही व्याद्या ने पकड़ रखा था। फिर भी कबूतर ने अतिथि धर्म को स्मरण करके उसको ठंड से बचाने के लिए इधर उधर से आग लाकर उसे जला दिया। फिर यह देखकर कि वह भूखा भी है कबूतर और कबूतरी दोनों यह कहकर अग्नि में गिर गये कि आप इस समय हमारे अतिथि हो हम आपकी और कोई सेवा तो कर नहीं सकते, पर आप हमारे शरीर को ग्रहण करके अपनी क्षुधा निवारण करो। उनके इस अपूर्व त्याग के प्रभाव से देवताओं का आसन हिल गया और स्वर्ग से एक विमान उनको ले जाने को उतरा। इस घटना को देखकर व्याध भी चकित रह गया और उन दोनों से अपने उद्धार का मार्ग पूछने लगा। कबूतर से कहा अब तुम निर्दयता के कार्ये को त्याग भगवान की आराधना करो और सदैव यथाशक्ति अतिथि सत्कार का ध्यान रखो। जो निःस्वार्थ बुद्धि से अतिथि सेवा में संलग्न रहता है वह अवश्य ही भव सागर से पार होता है।

अध्ययन की महिमा

देवरात का पुत्र ब्रह्रारात बाल्यावस्था से ही बड़ा मेधावी, कुशाग्र बुद्धि और कर्मशील था। उसकी माता ने उसे विद्याध्ययन के लिए अपने भाई वैशम्पायन ऋषि के पास भेज दिया था। वहाँ कुछ ही समय में उसने समस्त शिक्षा प्राप्त कर ली और गुरु की सेवा भी इतनी संलग्नता के साथ की कि वे उस पर बड़े प्रसन्न रहने लगे। एक दिन घटना वंश गुरु जी को ऋषि सभा में जाने में देर हो गई और जब वे जल्दी जल्दी जाने लगे तो भूल से एक छोटे शिशु पर पैर पड़ जाने से वह मर गया। इस पाप का प्रायश्चित करने की आज्ञा उन्होंने शिष्यों को दी। ब्रह्रारात ने प्रार्थना की कि ये शिष्य असमर्थ है अगर आज्ञा हो तो मैं अकेला ही प्रायश्चित को पूर्ण कर दूँ। उसकी बात को अभिमान पूर्ण समझ कर वैशम्पायन बड़े क्रोध में आये और बोले कि तुझमें ऐसी ही सामर्थ्य है तो मेरी पढ़ाई यजुर्वेद विद्या को वापस कर दे। ब्रह्रारात ने उसे वमन कर दिया जिसे अन्य शिष्य तीतर बनकर चुग गये जिससे उसका नाम ‘तैत्तिरीय’ शाखा पड़ गया। तत्पश्चात ब्रह्ररात ने मानव गुरुओं से विरक्त होकर सूर्य की उपासना से स्वयं ही वेद विद्या को प्राप्त किया और उसका नाम माध्यन्दिनी शाखा रखा। उस समय से ब्रह्रारात का नाम याज्ञवल्क्य हो गया और वे अपने समय के सर्वश्रेष्ठ वेदवेदान्त और ब्रह्मविद्या के ज्ञाता माने गये। बाद में श्रेष्ठ ज्ञानी राजा जनक ने उनको अपना गुरु बनाया। उन्होंने अपने उदाहरण से दिखला दिया कि जो व्यक्ति अध्ययन और मनन में निरन्तर संलग्न रहेगा, वह सब प्रकार के ज्ञान को निश्चय ही प्राप्त कर सकता है।

मोह का दुष्परिणाम

विद्याधर नाम के पंडित के तीन पुत्रों में से धर्म शर्मा सबसे छोटा था। घर में सब प्रकार से सुख पूर्वक रहने के कारण उसका मन विद्याध्ययन में नहीं लगता था और अवसर आने पर भी वह पढ़ने के लिए गुरुकुल में प्रविष्ट नहीं हुआ। इस पर उसके पिता ने उस की बहुत भर्त्सना की और आस-पास के लोग भी उसकी बुराई करने लगे। तब उसने साधु सेवा का व्रत लिया और उन्हीं की सत्संगति से उसे शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान हो गया। कहाँ तो वह मूर्ख माना जाता था और कहाँ अब बहुसंख्यक व्यक्ति उससे शिक्षा प्राप्त करने आने लगे। एक दिन एक व्याध एक तोते के बच्चे को लेकर उसके पास आया। बच्चा उसे बड़ा सुन्दर लगा और उसने उसे खरीद लिया। तोता ऐसा चतुर था कि वह शीघ्र ही स्पष्ट रूप से मानव भाषा बोलने लगा और तरह तरह से वार्तालाप करके धर्म शर्मा को प्रसन्न रखने लगा। धीरे-धीरे धर्म शर्मा को तोते से ऐसा प्रेम हो गया कि उससे बढ़कर संसार में उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। एक दिन जब वह स्नान को गया अकस्मात् किसी प्रकार पिंजड़े के खुल जाने से एक बिलाव तोते को पकड़ ले गया और खा डाला। इस घटना से धर्मशर्मा को इतना खेद हुआ कि उस तोते के लिए शोक करते करते ही उसने प्राण त्याग दिये, और परिणाम स्वरूप दूसरे जन्म में उसका जन्म तोते की योनि में ही हुआ। अति मोह किसी का भी अच्छा नहीं होता और बुद्धिमानों को उससे बचकर ही रहना चाहिए।

उपकार का बदला चुकाना

च्यवन ऋषि बहुत बड़े तपस्वी थे और वर्षों तक एक ही स्थान पर ध्यान में बैठे रहने के कारण उनका शरीर मिट्टी से ढक गया था। एक बार अयोध्या के राजा शर्याति अपनी कन्या को जिसका नाम सुकन्या था, लेकर उसी स्थान में भ्रमण करते हुए पहुँच गये। जिस समय सुकन्या घूमते हुए उस मिट्टी के ढेर के पास जा पहुँची, जिसमें दबे हुए च्यवन ऋषि ध्यानमग्न थे। उनके नेत्रों को मिट्टी के भीतर से चमकते देखकर सुकन्या को कौतूहल हुआ और उसने अज्ञानवश परीक्षा करने के अभिप्राय से उनमें काँटे चुभा दिये। जब राजा को इस दुर्घटना का समाचार मिला तो वे बड़े दुखी हुए और ऋषि से क्षमा माँगने लगे। अज्ञान में किये गये अपराध के कारण ऋषि ने क्षमा तो कर दिया पर अन्धे हो जाने के कारण अपनी सेवा के लिए सुकन्या को माँग लिया। सुकन्या ने भी अपना अपराध समझ कर इसमें किसी प्रकार की आपत्ति न की और उसका विवाह च्यवन के साथ कर दिया गया । कुछ काल पश्चात् देवताओं के वैध अश्विनी कुमार च्यवन ऋषि के आश्रम में आये और दिव्य औषधियों के प्रभाव से उन्होंने उनके नेत्र ही ठीक न कर दिये वरन उनका कायाकल्प करके उनको सर्वथा नवयुवक बना दिया। इससे प्रसन्न होकर च्यवन ने उनसे कुछ माँगने का आग्रह किया तो उन्होंने कहा कि हमको वैद्य का धन्धा करने के कारण यज्ञ के समय देवताओं के साथ सोमपान करने से रोका जाता है, इस निषेधाज्ञा को आप दूर करा दें। च्यवन ने इसका वचन दिया और कुछ समय पश्चात् अपने श्वसुर शर्याति नरेश द्वारा आयोजित एक बृहत यज्ञ में उन्होंने अश्विनी कुमारों को सोमपान कराया। इस अवसर पर इन्द्र ने उस नई परम्परा का घोर विरोध किया और च्यवन के मारने को वज्र फेंका पर शिवाजी के प्रताप से अन्त उसी की पराजय हुई। इस विषम परिस्थिति को देखकर देवगुरु बृहस्पति ने दोनों पक्षी में समझौता करा दिया और अश्विनी कुमारों को यज्ञ में सोमपान का अधिकार स्थायी रूप से प्राप्त हो गया। इस प्रकार च्यवन ने अपने ऊपर किये हुए उपकार का बदला चुकाने के लिए प्राणों को जोखिम में डालकर भी अपनी प्रतिज्ञा की पूर्ति की।


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